अब हुआ प्रखर गाधेय इद्ध प्रतिशोधानल करवाल काल रसना कराल ज्वाला अविरल। नभ में उड़ती शतशः स्फुलिंग माला उज्ज्वल लप लप लपके लपटें प्रचंड प्रतिशोध उगल॥ ७-१ ॥
विकराल प्रलयकालीन कालकृत रणतांडव ज्यों हुआ उपस्थित स्वयं सिन्धु शोषक बाडव। झन झन झंझा झंकार बैरि गर्जन गौरव मनो पुण्य कदन कर रहा क्रूर दारुण रौरव॥ ७-२ ॥
अभिमानालात समिद्ध घोर वर वैश्वानर आक्रोश सर्पि सन्तुष्ट पुष्ट पुरुषार्थ प्रखर। करने को भस्म समस्त ब्रह्म वर्चस भास्वर सत्ता समीर प्रेरित भड़का संगर जित्वर॥ ७-३ ॥
यह महाकाल का दूत जगत का क्लेश हेतु करने को प्रस्तुत अहो भग्न संसार सेतु। यह क्या विडम्बना कहें आप द्विजवंश केतु भयहेतु उताहो मरण हेतु यह धूमकेतु॥ ७-४ ॥
हे विधे तुम्हें क्या इष्ट कौन इसका भोजन इसकी ज्वाला से कौन देश होगा निर्जन। किसके सिर पर मँड़राता धर कृतान्त का तन इसकी लपटों में कौन आज हा बने हवन॥ ७-५ ॥
वस्तुतः यही प्रतिशोध महानल है अनन्त जिसकी न कभी बुझ सकी बुभुक्षा अति दुरन्त। यद्यपि खा खा कर दिया पूर्ण इतिहास अन्त भगवन्त कभी कर सके न इसको अहो शान्त॥ ७-६ ॥
ऋषिवंश वेणु वन को करने हित भस्मसात अब हुआ उपस्थित दुर्निवार्य यह पवन जात। अति शान्त विपिन में यह कैसा भीषण विघात दिख रहा रात सा हा हा क्यों मधुमय प्रभात॥ ७-७ ॥
सचमुच सत्ता लोलुप मानव कितना निर्दय जिसमें न प्रीति की गंध नहीं अभिराम प्रणय। करता केवल जनता पालन का यह अभिनय वस्तुतः न इसमें विनय नहीं ईश्वर का भय॥ ७-८ ॥
निर्भीक अभीक गाधिसुत आगे बढ़ बढ़ कर उटजों को करता ध्वस्त क्रोध में भर भर कर। सर सर चलते निर्झर से उसके खर तर शर हो रहे क्षुब्ध वारीश शुष्क गिरि निर्झर सर॥ ७-९ ॥
अब हुआ उपस्थित एक पक्ष रण यज्ञ नव्य जिसमें न वेद की विधा नहीं परिणाम भव्य। कौशिक नृप लिप्सा जहाँ बन गई पंचगव्य एक ही जहाँ है होता याज्ञिक हव्य कव्य॥ ७-१० ॥
आकर्ण पूर्ण कार्मुक ही जहाँ स्रुवा बन कर भ्राजता जहाँ घृत आहुति थे कौशिक के शर। बलिदान जहाँ हो गया राजमद पापोत्कर मुनि देख रहे साश्चर्य दृष्टि से यह अध्वर॥ ७-११ ॥
खग कुल कोलाहल निरत नीड़ छोड़ने लगे अवलोक दृश्य बीभत्स बिकल बटु बृन्द भगे। तापस आये मुनि निकट क्रोध आमर्ष पगे लख दुर्विभाव्य विधियोग महर्षि वशिष्ठ जगे॥ ७-१२ ॥
मुनिवर ने कौशिक को अभिमुख आते निहार पहले से जो कर रहे महा भीषण प्रहार। निज दिव्यास्त्रों से ऋषि परिकर को मार-मार कर रहे महा प्रतिशोध प्रदर्शन नृप कुमार॥ ७-१३ ॥
बोली अरुन्धती निरख विप्रकुल पर संकट लख दुर्निवार्य गाधेय क्रूर प्रतिशोध विकट। नीरज नयनों से बहा अश्रुधारा उत्कट करके किंचित ऋषि ललनोचित आक्रोश प्रकट॥ ७-१४ ॥
हे आर्य करें मत देर उठायें ब्रह्मदंड रोकें इससे ऋषिकुल का यह संकट प्रचंड। हर लें पल भर में गर्व गाधिसुत का अखंड उद्दंड भूप भी इससे पाये तीक्ष्ण दंड॥ ७-१५ ॥
ब्रह्मन् इस जटिल परिस्थिति का प्रतिशोध करें उच्छृंखल सत्ता में कुछ गति अवरोध करें। इस ब्रह्मदंड से नृप का आप निरोध करें प्रतिशोध हुताशन का भी किंचित शोध करें॥ ७-१६ ॥
हे देव न मानें बुरा आप की एक भूल बन गई आज इस आश्रम के हित विषम शूल। करि पद से कुचले गये सलोने विविध फूल हा मधुर क्षितिज के मध्य उड़ रही आज धूल॥ ७-१७ ॥
हम ऋषि दम्पति एकान्त भजन करने वाले रहते मनको सन्तत सात्त्विकता में ढाले। सपने में भी न लखे विमोह मद के प्याले अतएव हृदय उपवन में सद्गुण मृग पाले॥ ७-१८ ॥
हमने सुरेन्द्रपुर वैभव को भी ठुकराया भूपालों को मणि मुकुट हमी ने दिलवाया। हमको न कभी बहका पाई भव की माया अतएव हमारे दरश हेतु यह नृप आया॥ ७-१९ ॥
सब को संतो से एक अपेक्षा यह होती उपलब्ध यहीं होती मानवता मृदु मोती। हँसती हैं यहीं जगत की वे आँखें रोती जगती हैं यहीं सकल जग की मेधा सोती॥ ७-२० ॥
पर अहो भूप दुर्भाग्य यहाँ भी आकर के कुछ पा न सका प्रभुपद में शीष झुका कर के। मर गया बिचारा नृपमद में इतरा कर के रह गया रिक्त कर सुरतरु ढिग भी जाकर के॥ ७-२१ ॥
सुरभी द्वारा कर नृप का राजोचित स्वागत कर दिया आपने ही उसका मन पापोद्धत। अहि-से कुपात्र को दूध पिलाकर हे विधिसुत कर दिया आपने कालकूट उसमें प्रस्तुत॥ ७-२२ ॥
फल मूलों से यदि आप उसे करते सत्कृत न्यायतः उसीके लिये भूमिपति था अधिकृत। तत्क्षण अभ्यागत तुष्ट सत्त्वगुण से होता प्रभुपद में शीश नवाकर निज कल्मष धोता॥ ७-२३ ॥
पर व्यर्थ सिद्धियों का मुनिनाथ प्रदर्शन कर कर दिया आपने उसे धेनु हित लोभ मुखर। है चमत्कार अभिशाप सन्त हित हे मुनिवर इससे पड़ता भोगना सुधी को जीवन भर॥ ७-२४ ॥
धनपति का स्वागत धन से नहीं किया जाता उसको तो सात्त्विकता से जीत लिया जाता। इस भाँति निभाते आप भूप से यदि नाता तो यह न आज दारुण संकट सन्मुख आता॥ ७-२५ ॥
वे सन्त नहीं जो चाटुकार पूंजीपति के अभिमानी दम्भी दुर्मदान्ध मिथ्यामति के। लोलुप सन्तत आसक्त दास विषयारति के वे कभी नहीं हैं पात्र जगत्पति सद्गति के॥ ७-२६ ॥
अतएव आप का ही प्ररोह तरुखंड हुआ इसमें प्ररूढ़ विषफल उल्बण उद्दंड हुआ। प्रस्तुत जिसके हित आज काल का दंड हुआ वह ब्रह्मदंड ही आज भूप का दंड हुआ॥ ७-२७ ॥
इस ब्रह्मदंड से आप करें नृप का निग्रह क्षणभर में निष्फल करें भूप आयुध संग्रह। पर नहीं वध्य यह यद्यपि पामर असदाग्रह है अनुग्राह्य नृप नीच आप हैं निरवग्रह॥ ७-२८ ॥
सुन अरुन्धती के बचन नीर दृग में छाया ऋषि पुलकित हुए विवेक दिव्य तत्क्षण आया। मानो पत्नी से मूलमंत्र मुनि ने पाया मन में कौशिक का किंचित निग्रह ठहराया॥ ७-२९ ॥
निकले आश्रम से कर में लेकर ब्रह्मदंड कीनास सरिस मुनि दिखे आज धृत कालदंड। थे साथ शिष्य संरब्ध युद्ध हित ब्रत अखंड उद्दंड भूप के दंड हेतु ऋषि चंड चंड॥ ७-३० ॥
था मन अशांत कुछ निरख मनुज संहार निकट आभुग्न नासिका चूम रही थी भृकुटि विकट। उर उदधि मध्य उमड़ा विषाद का ज्वार प्रकट अवलोक भूप आवेश द्वेष मत्सर उत्कट॥ ७-३१ ॥
सिर पीट सोचने लगे विधे अब क्या विधेय किस भाँति समस्या होगी मुझसे समाधेय। गाधेय क्रोध ज्वाला स्फुलिंग अति अप्रमेय धीरज कर करूँ दण्ड से नृपपशु को विनेय॥ ७-३२ ॥
एकान्त शान्त चित प्रथम भजन हम थे करते नित पंचयज्ञ कर पंचभूत का दुःख हरते। स्वाध्याय होम ब्रत शील सदा सुख से चरते कानन में रहकर नहीं काल से थे डरते॥ ७-३३ ॥
पर पाप प्रतिष्ठा कैसा यह दुर्दिन लाई जिस कारण शुद्ध तपोवन में विपदा आई। खुद गई आज दो वर्ग बीच लम्बी खाई भूपति के मन दर्पण में भी छाई काई॥ ७-३४ ॥
मैंने ही सारमेय को पायस खिलवाया मैंने केहरि का भाग शशक को दिलवाया। मैंने मूषिक को गरुडासन पर बिठलाया अतएव उसी त्रुटि का यह फल सम्मुख आया॥ ७-३५ ॥
मैं नही जानता था कि शत्रु होंगे अपने क्या पता शूल सम फूल सरिस होंगे सपने। अज्ञेय कि उडुगन स्वयं लगें शशि को झपने था नहीं ज्ञात गिरि मेरु लगेगा क्या कँपने॥ ७-३६ ॥
गीत गीत मैं किसको सुनाऊँ रागिनी मैं क्या बजाऊँ॥ टेक ॥ दिवस के इस तुमुल स्वर में भ्रान्त मेरी चेतनायें। मन्द कुछ कुछ हो चली थी साँझ तक जो वेदनायें। शूल शतशत चुभे उर में निरख जग व्यापार कलुषित। देवता वह है कहाँ श्रद्धा सुमन जिसको चढ़ाऊँ॥ ७-३७-१ ॥ सूर्य चंचल चन्द्र चंचल चल रहे हैं सकल तारे। नियति नियम निवध्य जग के चल रहे हैं जीव सारे। हा किसे अपनी व्यथाओं से अरे अवगत कराऊँ॥ ७-३७-२ ॥ कौन पतझड़ देख कर चीत्कार से अब रो सकेगा। कौन पुष्पों को मृदित लख अश्रु से मुख धो सकेगा। हाय हाहाकार को किसको यहाँ है तनिक अवसर। रसिक अहि अब हैं कहाँ में बीन से जिसको रिझाऊँ॥ ७-३७-३ ॥
बस बस वशिष्ठ अब और अधिक संताप न कर दे ब्रह्मदंड से दंड भूप का बल मद हर। जिससे पा जाये सीख महिप मदमत्त मुखर देखें यह भी ब्राह्मण कुल का वर्चस्व प्रखर॥ ७-३८ ॥
उच्छृंखल पशु के लिये दंड ही शिक्षा है अति नीच नराधम हेतु यही शुभ दीक्षा है। उद्धत भुजंग को कथमपि उचित उपेक्षा है उसके उपमर्दन की ही यहाँ अपेक्षा है॥ ७-३९ ॥
यह निश्चय कर मुनि मन्द मन्द मृदु मुसकाते आगे आये हलके हलके भय दरशाते। थे साथ तपस्वी शिष्य न मन में घबराते अवलोक नृपति के हुए नैन रिस से राँते॥ ७-४० ॥
प्रतिशोध वह्नि ज्वाला से जलकर गाधिसुवन करने को तत्पर हुआ अहो ऋषि वंश कदन। फड़ फड़ा उठे शस्त्रास्त्र मनो हो कालवदन आया वन में धर विविध रूप यमराज सदन॥ ७-४१ ॥
पवमान हो गया मन्द तिरोहित चंड किरण हय खुरोक्षिप्त रज राशि बनी अम्बरावरण। चौंके सभीत दिक्पाल लोक पति पुरश्चरण कर भाग रहें भयमग्न निजलोक शरण॥ ७-४२ ॥
अब क्रूर कृत्य गाधेय रोष लोचन समरुण ऋषि पर कर रहा प्रयुक्त दिव्य आयुध दारुण। आग्नेय पवन पार्जन्य पाशुपत बन वारुण नारायणास्त्र ब्रह्मास्त्र सार्प शिखि गरुण तरुण॥ ७-४३ ॥
इन सब शस्त्रों को ब्रह्मदंड पर रोक रोक कर रहे भूप को उत्तेजित मुनि टोक टोक। करता कुलाल जो कलश व्यवस्थित ठोक ठोक निज तपो भार्ष्ट्र में भूप शस्त्र तृण दिया झोंक॥ ७-४४ ॥
ज्यों ज्यों नृप क्रुद्ध कराल शस्त्र इष्वास तान करता प्रयुक्त मुनिवर पर कालानल समान। त्यों-त्यों अकलान्त नितान्त शान्त समतानिधान करते निष्फल मुनि ब्रह्मदंड से सावधान॥ ७-४५ ॥
कर ब्रह्मदंड मारुत से विघटित शस्त्र घटा मुनिवर ने आश्रम संकट पल में दिया मिटा। नृप कौशिक का गुरुगर्व महाद्रुम निकर कटा कहते तापस जय जय मुनि किंचित हिला जटा॥ ७-४६ ॥
हो गई प्रमोदित प्रकृति दिव्य दुन्दुभी बजी बरसे प्रसून सुर विवुधवधू आरती सजी। कौशिक कराल कटु कुमति पराजित अधिक लजी वर ब्रह्मदंड सम्मुख नृप ने नीचता तजी॥ ७-४७ ॥
हिमहत सरोज सा शुष्क बदन विवरण उदास नृप हुआ स्विन्न तनु क्लिन्न खिन्न मन से उदास। उच्छ्वास सहित लौटा श्री हत बिगताभिलाष बस ब्रह्मदंड दीखता उसे ज्यों मृत्युपाश॥ ७-४८ ॥
सोचने लगा मणिहीन सर्प ज्यों नृप निर्बल धिक्कार क्षत्रबल धन्य ब्रह्मकुल तेजोबल। एक ब्रह्म दंड ने तूलराशि ज्यों प्रबल अनल मेरे सुशस्त्र दिव्यास्त्र सकल कर दिये विफल॥ ७-४९ ॥ यथा – धिग्बलं क्षत्त्रियबलं ब्रह्मतेजोबलं बलम्। एकेन ब्रह्मदण्डेन सर्वास्त्राणि हतानि मे॥ वा रा १-५५-२३ ॥
हत सैन्य भग्न दिव्यास्त्र भूप फिर कानन में तप हेतु गया तपता प्रतिशोध हुताशन में। आये वशिष्ठ तब लौट प्रसन्न निजायन में। अब हुई उपस्थित अरुन्धती प्रमुदित मन में॥ ७-५० ॥
द्रुतविलम्वित रमण का अभिषेक दृगश्रु से कर लगा उर से निज नाथ को। बदन को ढक अंचल से सती निरखती अनिमेष अरुन्धती॥ ७-५१ ॥
॥ श्रीराघवः शन्तनोतु ॥