‘अरुन्धती’ महाकाव्य एक नूतन वाङ्मयी प्रयाग है हिन्दी साहित्याकाश में – ‘नूतन’ इस कारण कि इसमें कविकुल चूड़ामणि प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद हुलसीनंदन तुलसी कृत ‘मानस’ स्थित ‘राम भक्ति’, ‘ब्रह्म विचार’ एवं ‘कर्मकथा’ रूप गंगा, सरस्वती और यमुना की धारायें तो हैं ही, साथ ही शब्द, अर्थ, अनुभूति तथा अभिव्यक्ति की अन्यतम उत्ताल तरंगें भी उद्वेलित हैं; जो मनीषी अध्येताओं को सहज ही लोकोत्तर चैतन्य से साक्षात्कार कराकर उसे परमानन्द की प्राप्ति भी करा देती हैं। इसकी सबसे बड़ी विलक्षणता यह है कि एक ओर यदि इसमें सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय का रसास्वादन हुआ है तो दूसरी ओर निखिल लोक जीवन के क्रूरतम यथार्थों का सम्यक एवं निर्भीक निदर्शन भी। जहाँ तक इसकी शब्द-सम्पदा, अर्थ गाम्भीर्य और रसनिष्पादन सम्पदा का प्रश्न है इस पर निष्पक्ष दृष्टिपात करने से हमें सहज ही ऐसा भासता है कि पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास के ‘मानस’ के मङ्गलाचरण का प्रथम श्लोक ‘वर्णानामर्थसङ्घानां रसानां छन्दसामपि’ के साथ-साथ ‘मङ्गलानां च कर्त्तारौ’ तक की सार्थकता का सम्पूर्ण दायित्व निर्वहण करते हुए प्रस्तुत महाकाव्य के रचयिता महाप्रज्ञा सरस्वती के वरदपुत्र अनन्तानन्तश्रीसमलङ्कृत कविपुंगव परमाचार्यचरण ने एक अद्भुत साहित्यिक प्रयोग प्रस्तुत किया है – एक ऐसा प्रयोग जिसमें शब्दार्थ की सैन्धव गहराई के साथ-साथ अनुभूति की हिमालयी ऊँचाई भी सर्वत्र परिदृष्ट होती है। अर्वाचीन सारे कवियों – चाहे वे हिन्दी जगत के हों या पाश्चात्य जगत के – उन सबों की सर्वोत्तम कृतियों में भी शब्दार्थ एवं अनुभूति का ऐसा मणि कांचन संयोग विरल ही नहीं सुदुर्लभ है। वर्तमान दृग्दोषयुक्त एवं दिग्भ्रमित जनमानस को पुनः दिव्यदृष्टि प्रदान करने वाला साहित्य का इधर युगों से अभाव था जिसकी पूर्ति ‘अरुन्धती’ महाकाव्य अवश्य करता दिखेगा – ऐसी मेरी मान्यता है।
प्रथम शिष्य आचार्यचरण के अकिंचन किंकर डा. रामदेव प्र. सिंह ‘देव’ एम.ए. वि.वि. प्राचार्य, छपरा, बिहार।