पति के अनुनय को ठुकराकर कुपिता पति प्रणय अनूठी सी छिप गई निशा अम्बर-पट में भामिनी भामिनी रूठी सी। उसकी विधिकरी कुमुदिनी भी सखि का सहचार निभाती सी कुछ सिहर गई आन्दोलित हो अचंल में वदन छिपाती सी॥ ६-१ ॥
उस ओर पद्मिनी योषा का मधुमय सौभाग्य समय आया प्रेयसी दयित के संगम का लोचन अभिराम प्रणय आया। दिनकर के प्रत्यागमन पूर्व तम दूर गया सब क्षण भर में निद्रा तज प्रमुदित विहग-वृन्द गा उठे मधुर सरगम स्वर में॥ ६-२ ॥
मृदु मंजुल मलय समीरण से चल दल के किसलय डोल रहे कल कंठ कंठ से निष्प्रमत्त दिशि दिशि में मधुरस घोल रहे। था वातावरण प्रसन्न आज सुन्दरी प्रकृति मुस्काती थी दिनकर के स्वागत हेतु उषा सुमनों के थाल सजाती थी॥ ६-३ ॥
जड़ जंगम थे सतर्क जाग्रत पावन प्रभात की थी वेला अम्बर के नीले अंचल में धृत धवल वस्त्र नव शिशु खेला। प्राची ने उसका बदन चारु अज्ञात प्रेम से चूम लिया फिर नव कुंकुम के रंगों से उसका मंगल शृंगार किया॥ ६-४ ॥
वह अरुण वर्ण सुन्दर बालक जड़ जंगम को हर्षाता था प्राची की गोद थिरकता वह शोभा अपूर्व ही पाता था। तब तक तेजोमय पुरुष एक पीले पराग का लेप किये चढ़ कनक ज्योतिमय स्यन्दन पर आया शिशु पास हुलास लिए॥ ६-५ ॥
अवलोक सलोने बालक को उस नर ने सुख से उठा लिया झट से आवृत कर वसनों में निज उर में उसको छिपा लिया। किसलय का अंचल डोल रहा खगकुल भी कल-कल बोल रहा तरु गुप्त मर्म को खोल रहा जन मन था आनँद घोल रहा॥ ६-६ ॥
मारुत के मन्द झकोरों से कर रही लता तरु-परिरम्भण नव परिणीता प्रणयिनी मनो कर रही प्रणय का आरम्भण। उपहार दे रही थी बसुधा नव-मौक्तिक हार विभाकर को वह था समेटता हो सतर्क भावना निमग्न बढ़ा कर को॥ ६-७ ॥
मुनिजन पावन सर-सरि तट पर शुचि संध्या वन्दन थे करते परमेश्वर का कर दिव्य-ध्यान आनन्द उदधि में थे तरते। उत्तान वाहु पढ़ वेद मंत्र दे अर्घ्य सूर्य का उपस्थान करते वे अंगन्यास पूर्वक मुद्रा गायत्री जप-विधान॥ ६-८ ॥
गायत्री जप से ऋषियों के हिलते थे कुछ कुछ अधर किसल मानो था मौन तपस्यारत अति सावधान विनियोग कुशल। रुद्राक्ष दिव्य तुलसीमाला लसती मुनिवर कर-पल्लव में अविराम चल रहा अजपाजप श्रुतियों का मानस अभिनव में॥ ६-९ ॥
सस्वर श्रुतिपाठ कुशल बटुगण मुनियों की सेवा में रत थे तेजोमय ब्रह्मचर्य मंडित तनु तरुण विग्रही मुनिवत थे। कटि लसित मेखला मौञ्जी की भस्मार्चित आयत थे ललाट मुनि सेवा मनो स्वयं करता नाना तनु धर धर कर विराट॥ ६-१० ॥
कौपीन वीत उपवीत पीत काँखों में लिये पलास दंड सिर जटाजूट तन तपःपूत कूटस्थ समर्पित मनं अखंड। ज्योतिर्मय वदन चमकता था दाड़िम से सुन्दर श्वेत दशन पाटल समान निर्दोष अरुण आकर्षक पावन दशन वसन॥ ६-११ ॥
उन्नत कपोल पर थिरक रही नव-यौवन की पावन लाली कुछ अरुण तरुण दृग के अपांग लसते ले शोभा की प्याली। उनके अदोष सौन्दर्य कोष नयनों में स्नेह सिहरता था श्रुतियों का माला जटा पाठ जन जन में मंगल भरता था॥ ६-१२ ॥
थी विलस रही मुख मंडल पर ब्राह्मव्रत की अविचल रेखा चान्द्रायणादि व्रत निष्ठा की थी झलक रही निर्मल रेखा। लेखाधीशों के भी प्रणम्य ब्राह्मण-वटु शोभा पाते थे निज उग्र तपस्या संयम से भूतल को स्वर्ग बनाते थे॥ ६-१३ ॥
उनकी पद-पद्म पादुका से बसुमती प्रमोदित होती थी सुन मंगलमय श्रुतिपाठ मधुर संताप पाप सब खोती थी। बटुओं की चरण-रेणुका से वामन की सुस्मृति कर कर के तरु मिस होती थी पुलक-पूर्ण निर्झर लोचन में जल भर के ॥ ६-१४ ॥
कानन था निचित निलीन किसी अज्ञात सौख्य के सागर में बह रहा अतर्कित गति से था आध्यात्मिक ज्ञान सरोवर में। परमात्म प्रेम नव सरसिज के कानन सुरभित था परिमल से हो रहा प्रफुल्लित निराबाध मानस में संयम शतदल से॥ ६-१५ ॥
मुनि कन्याएँ नीलोत्पल को सोल्लास बनाकर कर्णपूर थी विपिन प्रान्त में सुखा रही नीवार उटज के दूर दूर। भव मरु मरीचिका भी जिनके मन को न कभी मुरझा पाई वासना भुजंगिनी भी जिनके तन को न कभी कुंभला पाई॥ ६-१६ ॥
सपने में हो न सका जिनका मालिनी प्रकृति से कल सिंचन जिनको न हुआ अनुभूत कभी मधु प्रणय गीत नूपुर सिंजन। निष्कलुष मान्य सामान्य वेश चरणों तक मेचक मुक्त केश अवलोक जिन्हें सहसा सुरेश नत होता तजकर दोष लेश॥ ६-१७ ॥
जिनके अधरों पर निर्विकार शशिकर-सा शीतल मन्द हास अकलंक शंक आतंक रहित जिनका निसर्ग शुचि भ्रूविलास। अज्ञात भोग साधती योग निष्कल निरोग विगलित वियोग कानन में भरती पवित्रता मनुजता विमल संयम सुयोग॥ ६-१८ ॥
अतरंग सिन्धु-सा उर गँभीर शुचि ब्रह्मचर्य भावित शरीर पहने वन-तापस वल्क चीर थी विबुध वंद्य मुनिसुता धीर। थी भारतीय शुचि संस्कृति की चेतनामयी मंगल प्रतिमा रखती थी तापस कन्याएँ सत्कृति चरित्र पावन गरिमा॥ ६-१९ ॥
तरुओं को सुख से सींच सींच वाटिका मनोज्ञ सजाती थी मृग शिशुओं को श्यामाक अन्न मुट्ठी भर मुदित खिलाती थी। प्रत्यूष यूष पीयूष तरल मेदिनी झूमती थी सुख से फलभार नम्र तरु शाखाएँ वसुमती चूमती थी सुख से ॥ ६-२० ॥
इस प्रकृति रम्य नव कानन में पावन वशिष्ठ का था कुटीर जिसमें करते थे वेद पाठ सानन्द सारिका चतुर कीर। तुलसी तरु शोभा पाते थे मुनिवर आश्रम के आस पास निर्वैर भाव से चरते थे खग-मृग आश्रम में विगत त्रास॥ ६-२१ ॥
सिंहिनी गोद में बैठ मुदित गो सुत आनन्द मनाते थे वात्सलय भाव से गउओं के हरि-शावक पय पी जाते थे। विकलांग तापसों को बन्दर कर पकड़ राह दिखलाते थे बिठला पीठों पर करि शावक उनको नहला ले आते थे॥ ६-२२ ॥
निद्रित हरि को सोल्लास हरिण निज सींगों से सहलाते थे चीते शशकों से खेल खेल अपने मन को बहलाते थे। श्वानों से भी मार्जार-सुता भगिनी की ममता पाती थी मूषक को बन्धु मान प्रमुदित वह मंगल-गीत सुनाती थी॥ ६-२३ ॥
लगता न कभी था दावानल बन हरा भरा नित रहता था सर्वत्र विपिन के झरनों में अविराम प्रेम-रस बहता था। विषधर अहि मणि के रुचिर हार न्योलों को पहना जाते थे उनके अंगों में लिपट लिपट औरस का प्रेम निभाते थे॥ ६-२४ ॥
था परम शान्त मुनिवर आश्रम वन में हिंसा का नाम न था सर्वत्र लहरता विमल प्रेम मद मत्सर कैतव काम न था। अवलोक व्यतिक्रम मंत्रों में रोकती सारिकाएँ तत्क्षण करते वटुओं से थे तोते शास्त्रार्थ प्रबुद्ध विपक्षी बन॥ ६-२५ ॥
श्रुतिओं के पाठ व्यतिक्रम को सारिका नहीं सह पाती थी कथमुक्तमशुद्धं त्वया वटो कह कह वो शोर मचाती थी। हो विप्र पुत्र करते प्रमाद तुम तनिक नहीं शर्माते हो श्रुति पाठों को आलस्यवशात् तुम यों विस्मृत कर जाते हो॥ ६-२६ ॥
तुम खेल खेल में मत्त अरे यह जीवन व्यर्थ गवाँ बैठे निद्रा प्रमाद के परवश हो तुम स्वर्णिम समय बिता बैठे। ब्राह्मण कुल में अवतार लिया इतने से चलता काम नहीं बस नींव मात्र खुदवाने से बनता है स्वर्णिम धाम कहीं॥ ६-२७ ॥
तुम सावधान दे कान सुनो रक्षी भी तेरा भक्षी है कर्त्तव्य मार्ग पर डट जाओ पक्षी भी बना विपक्षी है। बस जगो सिंह शावक प्रवीर यह काल नहीं है सोने का कर ओंकार हुंकार उठो अब काल नहीं है खोने का॥ ६-२८ ॥
ओ तरुण तरुण दिनकर सहसा जग को तुम ज्योतष्मान करो निज सत्य सनातन धर्मव्रती जय भारत का आह्वान करो। जो अश्वमेध आदिक मख के यूपों से मंडित बसुंधरा उस पर ही आततायियों ने अपना कैतवमय चरण धरा॥ ६-२९ ॥
ओ सर्पराज अवलोक जरा तेरी क्या हुई बुद्धि भोरी ये छद्म वधिक कर रहे हाय तेरी वर्णाश्रम मणि चोरी। ओ कलभ निरापद विपिन नहीं तेरे नाशक हैं यंत्र सभी गड्ढे हैं ढके खने बहुशः तुम क्यों स्वतंत्र परतंत्र अभी॥ ६-३० ॥
ओ सरल हरिण वीणा निनाद तेरा समूलतः घातक है यह मरु मरीचिका सहज सौख्य तेरी सत्ता का पातक है। ब्राह्मण अवध्य सुर शस्त्रों का पर पतित हुआ निज कर्मों से मर रहा हाय श्रुति वर्ण-हीन हो रहित सुकोमल चर्मों से ॥ ६-३१ ॥
श्रुति वर्म हीन विग्रह तेरा आचरण प्रखर तर ढाल नहीं संयम शर बुद्धि चाप वर्जित हा ब्रह्मचर्य करवाल नहीं। आलस्य दोष से कोष भरे कौषेय वसन कर सकते क्या इस मृत्यु सिंहनी से द्विजवर हा तुम कदापि बच सकते क्या ॥ ६-३२ ॥
हो सावधान निज कर्म निरत वैदिक बल से निर्भीक बनो निज धर्मनिष्ठ राष्ट्रीय शक्ति ले अजय विसृष्ट व्यलीक बनो। म्रियमाण मनुजता का तुमको करना है अब जीवनोद्धार हो जाओ सजग देश प्रहरी हो सावधान ब्राह्मण कुमार॥ ६-३३ ॥
जब तक वैदिक मंगल ध्वनि से हो रहा नहीं भारत भासुर तब तक इसमें पल रहे दम्भ पाखंड पाप के विहग प्रचुर। भारत को कतिपय सारमेय कर रहे मलिन कलुषित सारे ओ सिंह न गफलत में आओ निष्फल हैं सब इनके नारे॥ ६-३४ ॥
इस भाँति सारिकाएँ भी थीं मंगलमय उद्बोधन करतीं पावन प्रभात की वेला में श्रुति ध्वनि से कानन को भरतीं। द्विज बालक श्रुति का पाठ सदा दे ध्यान संशकित करते थे आचार्य चरण की सेवा कर वन में सोल्लास विहरते थे॥ ६-३५ ॥
अब अरुन्धती उठ निष्प्रमत्त कर पुण्य सलिल सरि में मज्जन दे अर्घ्य भुवन भास्कर को वह कर रही शुद्ध श्रद्धा सर्जन। भर सलिल कलश में स्तोत्र पाठ करती मन में अति हर्षाई अविलम्ब दिव्य मुनिवर पत्नी आचार्य चरण सम्मुख आई॥ ६-३६ ॥
संवृत मुनिचरण सरोज हुए तत्क्षण दयिता के अंचल से अब अरुन्धती के छलक पड़े श्रद्धा के नीर दृगंचल से। ऋषि पत्नी का सीमन्त लसित सिन्दूर विप्र के पाद पद्म करता था अधिक अरुण पाटल शृंगार सार सर्वस्व सद्म॥ ६-३७ ॥
जप निरत वशिष्ठ देव ने लख प्रिय पत्नी को करती प्रणाम बिठलाया वाम भाग में दे संकेत वाम कर से अकाम। पति वाम भाग में विलस रही हवनार्थ सुशीला अरुन्धती मानो स्फुलिंग माली समीप लसती स्वाहा गुणशीलवती॥ ६-३८ ॥
देवी ने विनत भाव से फिर पति-पाद सरोरुह सलिल लिया तदनन्तर लोचन भाजन से प्रियतम आनन विधु सुधा पिया। कर हवन कार्य विधिवत समाप्त पाकर पति का मंगल निदेश अभ्यागत सेवा हित देवी आई गृह में धृत बन निवेश॥ ६-३९ ॥
इस भाँति प्रतीक्षा राघव की पति संग सती करती रहती रह कानन में चतुरानन की वह पुत्र-वधू संकट सहती। देवी के हृदय अवनिथल में प्रभु भक्ति वेलि जैसी विलसी तुलसी मँजरी-सी राम प्रेम भावना मनोवन में हुलसी॥ ६-४० ॥
ऋषि दम्पति के जीवन मधु में आ ढहा ग्रीष्म दुस्सह कराल अब हुआ उपस्थित संकट की घड़ियों से कल्पित क्रूर काल। क्या है यह विधि की विडम्बना भव काल चक्र चलता कैसा जीवन गुलाब के पुष्प सदृश काँटों में ही पलता कैसा॥ ६-४१ ॥
माली उसको कितने श्रम से सींचता सलिल के सीकर से पर निर्दय उसे तोड़ लेता अपने दारुण कराल कर से। उसके सुन्दर कोमल दल में सूई से ताग पिरोता है माला निर्मित कर हा उसकी मन में वह प्रमुदित होता है॥ ६-४२ ॥
क्या प्रकृति सिद्ध सुन्दरता को मानव देता उपहार यही क्या कोमलता के लिये उचित पवि का भीषण शृंगार यही। क्या सुरभिक्षीर का फेन मृदुल पवि का टाँका सह सकता है क्षीरोदधि का कलहंस कहो क्षारोदधि में रह सकता है॥ ६-४३ ॥
निर्बलता का निर्दयता से कैसे होता यह दुरुपयोग हा कमल कोष का करा दिया मानव ने करि कर से प्रयोग। शाश्वत स्वभाव यह जीवों का निर्बल को सबल सताते हैं वे प्रतिक्रिया में हो अक्षम आँसू पीकर रह जाते हैं॥ ६-४४ ॥
मृगया हित विश्वामित्र नृपति कानन में आए एक बार मुनिवर वशिष्ठ ने किया दिव्य नरपति का अनुपम अतिथिकार। निज कामधेनु साधन बल से नृप की करके आतिथ्य क्रिया मन में कृत कृत्य हो रहे थे मुनिवर्य प्रेमवश सहित प्रिया॥ ६-४५ ॥
कर कुशल प्रश्न सानन्द दिया नरपति को ऋषि ने दर्भासन प्रश्रय नतकंधर भूमिपाल बैठे सुनि मुनि का अनुशासन। देखा अपलक नयनों से जब चतुरस्र शुभाश्रम की शोभा बढ़ गया कुतूहल मानस में एक टक नयनांचल पट लोभा॥ ६-४६ ॥
क्या दिव्य भव्य आभा वन की यह धन्य धन्य आश्रम निकुंज अविराम चतुर्दिक थिरक रहा ऋषि दम्पति का शुचि तपः पुंज। अविरत शास्त्रों का पठन तथा श्रुतियों का सस्वर शुभ-वाचन अभिराम नयन कर्णों को भी भूसुरगण का पुण्याहवाचन॥ ६-४७ ॥
उद्गीथ जटा माला क्रम से वैदिक मंत्रों का संरक्षण है उमड़ रहा इस कानन में धृत विग्रह सात्त्विक सुख क्षण क्षण। शत कोटि बाजि गज स्यन्दन धन है व्यर्थ राजसी सुख सारा यह धन्य धन्य ब्राह्मण कुल का सच्चिदानन्दमय सुख न्यारा॥ ६-४८ ॥
क्या तुलना में है सुधा भला इन मधुर कन्द फल मूलों की अमरावति का भी सुख नगण्य तुलना में सुस्मित फूलों की। सुर ललनाएँ भी अरुन्धती के सुख पर ईर्षा करती हैं अवलोक तापसी की सत्ता सतियाँ भी मन में डरती हैं॥ ६-४९ ॥
ऋषि-पत्नी मधुर वचन कह कह मुनि को नैवेद्य कराती है अनुराग राग सौभाग्य भरी अंचल में व्यजन डुलाती है। है यही गृहस्थाश्रम अविरल वस्तुतः यही दाम्पत्य सत्य जिसके अंतर में थिरक रहा सम्बंध निबंधन ब्रह्म नित्य॥ ६-५० ॥
क्या पति पत्नी का मिलन क्रूर कामना केलि का तर्पण है क्या यह मंगलमय ग्रन्थि बन्ध मन्मथ का निम्न समर्पण है। सच पूछो तो दाम्पत्य दिव्य परमेश्वर का है आराधन मनु दम्पति के हित सिद्ध हुआ जो राम-जन्म का शुभ साधन॥ ६-५१ ॥
जब तक न ज्ञात होगी नर को इस रस रहस्य की परिभाषा तब तक न सकेगी कर भावित ईश्वर को भी उसकी भाषा। संकल्प शुद्धि के लिये दिव्य पत्नी है मन्दिर अति पावन जिसमें पति रूपी परमेश्वर संतत पूजित होता भावन॥ ६-५२ ॥
गृहिणी के बिना न चल सकता अभिराम अकाम गृहस्थाश्रम पत्नी ही सफल सदा करती पति का अमोघ तीर्थाटन श्रम। आत्मा शरीर की भाँति युगल हैं एक दूसरे से अभिन्न यह अनिर्वाच्य अद्वैत अहो रहता सदैव ही अविच्छिन्न ॥ ६-५३ ॥
इस शाश्वत सत्य प्रेम की क्या होती है परिणति विनिमय में क्या नेह कभी भी निभ सकता है चाटुकार के अभिनय में। इस तरु परिरम्भित लतिका का है विमल प्रेम ही आलवाल सेचन जिसका सुस्नेह सलिल हरि-भक्ति मनोहर फल रसाल॥ ६-५४ ॥
देखों ऋषि-पत्नी सेवा की कैसी विचित्र है परिभाषा जिसकी केवल उनके पति ही अवगत कर पाते हैं भाषा। इंगित पर दारुयोषिता सी अविराम अनुसरण करती है ला समिध कुशा सत्वरगति से मुनिमन में आनँद भरती है॥ ६-५५ ॥
विधि ने विचार करके विरचा इनका यह पावन सम्प्रयोग जिसमें न कभी सम्भावित है मन में भी दम्पति विप्रयोग। पर साथ साथ सात्त्विकता के आया कैसे राजस वैभव इस तपः पूर्ण तृणशाला में छाया कैसे यह सुख अभिनव॥ ६-५६ ॥
क्या यहाँ आज निष्पन्न हुआ मृदु भोग योग का संगम है उत्पन्न कहाँ से यहाँ राग वैराग्य स्वरों का सरगम है। एकत्र सत्त्व गुण सुभग छटा अपरत्व रजोगुण का विहार निर्वैर यहाँ कैसे रहते युग पद कठोरता और शृंगार॥ ६-५७ ॥
यह दीन तपस्वी कर सकता कैसे इतना अद्भुत स्वागत क्या चमत्कार इनका किंचित अथवा विशुद्ध है आत्मब्रत। ऋषि से ही जिज्ञासा करके कर लूँ रहस्य का उद्घाटन हो जाय अंजसा महा मोह दुर्घट पादप का उत्पाटन॥ ६-५८ ॥
कर जोड़ गाधिसुत ने पूछा ऋषि से लज्जा अवनत होकर वैभव कौतूहल उत्कंठित साम्राज्य तीव्रतर मद खोकर। मुनिराज आप इस कानन में स्वीकृत कर निष्किंचना वृत्ति पत्नी सह करते तपश्चरण करके सनाथ सात्त्विक प्रवृति॥ ६-५९ ॥
हे आर्य कहें करुणा करके इस वन में यह कैसी समृद्धि निर्जन में आई किस प्रकार यह राजोचित निरुपमा रिद्धि। जो सुख न स्वप्न में देवों को उपलब्ध कदाचित भी भगवन् मुझको कर दिया सुलभ क्षण में भवदीय तपोबल ने श्रीमन्॥ ६-६० ॥
प्रासाद हुआ विस्मृत मेरा अवलोक ब्रह्मसुत का प्रसाद अवलोक आपकी अतिथि क्रिया अवसन्न हुआ मृग्यावसाद। यह अर्घ्य पाद्य आचमन देव छप्पन प्रकार के राजभोग पर्यंक शिरिष मृदु कुसुमावृत नन्दन सा मधुमय मधुर योग॥ ६-६१ ॥
किस तपबल से यह सामग्री ऋषिवर्य आपको प्राप्त हुई जिसमें मेरी नृपपद लिप्सा क्षण भर में आज समाप्त हुई। वस्तुतः धन्य है तपस्तेज वर्चस्व धन्य है भूसुर का है तुच्छ अहो इसके समक्ष संचित समस्त सुख सुर-पुर का॥ ६-६२ ॥
ऋषिवर ने सुन वर वचन दिया उत्तर नरेन्द्र को कुछ हँस कर तन पुलक सजल लोचन मानो संकोच पंक में कुछ धँस कर। मुखड़ा था सहज भाव मंडित अधरों पर मंजुल हास्य लिये विन्यस्त हस्त उरु युगल ललित नयनों से सात्त्विक लास्य किये॥ ६-६३ ॥
उस समय आर्य आभा समग्र सिमटी थी मंजु कपोलों पर रोलम्ब वृंद ईशत् सलज्ज हो रहा सुकुन्तल लोलों पर। तुम सत्य कह रहे गाधितनय जिनको जग से कुछ स्वार्थ नहीं है सुलभ सिद्धि सारी उनको करतल हैं चार पदार्थ वहीं॥ ६-६४ ॥
कर हस्तामलक भोग तप से निर्लिप्त सदा हम रहते हैं सब कुछ पाकर भी निर्विकार सम बुद्धि द्वन्द्व सब सहते हैं। सुविधाओं का जो अपने हित उपयोग निरन्तर करते हैं राक्षस संस्कृति के पोषक वे भविनिधि न कदाचित् तरते हैं॥ ६-६५ ॥
एक ही विधाता ने विरचा इस दृश्यमान सचराचर को राक्षस मानव दानव सुरत्व रंजित विशाल रत्नाकर को। निज भेद बुद्धि गत जन्य नये ये भिन्न-भिन्न भासते चित्र वस्तुतः दृष्टि गत दोषों से यह सृष्टि दूषिता है विचित्र॥ ६-६६ ॥
यदि शुद्ध सच्चिदानन्द कन्द परमेश्वर निष्कल निर्विकार लो क्यों उसकी यह सृष्टि अरे दिखती है विलसित बहु विकार। यह कैसा अद्भुत नाटक है मिथ्या दिखता सत्कार्यवाद आनन्द कन्द के सर्जन में क्यों भास रहा हा यह विषाद॥ ६-६७ ॥
इन सब विपत्तियों का निदान है बुद्धि भेद संभव विक्लव इससे प्रसूत कर रहा नृत्य संसार मध्य भीषण विप्लव। मेरे विचार से संस्कृतियों का मुख्य मूल आत्म प्रवृति जिससे अनेकधा पनप रही तलत संस्कृति की क्रूर वृत्ति॥ ६-६८ ॥
जब मननशील परहित में रत पुरुषार्थ समन्वित करुणार्णव होता यह जीव तभी कहते सब लोक इसे सुन्दर मानव। वैदिक संस्कृति के अंचल में मानवता शोभा पाती है वात्सल्य सुधा उसकी पीकर सुरता को भी ललचाती है॥ ६-६९ ॥
जो तृप्त नहीं हैं भोगों से अपने प्रवाह में बहते हैं वर्णाश्रम हीन विचार रहित दानव उनको ही कहते हैं। उनको स्वभाव गत प्राप्त सदा निर्दोषों का उत्कट पीड़न आतंकवाद की विभीषिका उनका ही करती उत्पीड़न॥ ६-७० ॥
रक्षति सवार्थं यः स राक्षसः यह राक्षस पद की है व्याख्या निज सुख हित अर्जन करना ही है राक्षस मानव की आख्या। इन आत्मवृत्तियों के कारण मानव ही तो दानव होकर करता परपीड़न उद्धत बन साक्षर ही होकर राक्षस नर॥ ६-७१ ॥
साक्षर का है विलोम राक्षस यह परिभाषा वैचारिक है इसलिये मिटाना है इसको यह भेद सदा वैकारिक है। इन भेद जन्य खल धर्मों को जब तक मानव न मिटायेगा तब तक न निरापद होकर वह सुख शान्ति कभी भी पायेगा॥ ६-७२ ॥
जितने से हो शरीर धारण उतना ही स्वत्व मनुज का है अधिकापेक्षा ही खल लिप्सा क्रूरता कृतित्व दनुज का है। इन भेद खाइयों को अब तो अपने विवेक से पाट पाट पृथ्वी पर स्वर्ग हमें लाना सारे काँटों को काट काट॥ ६-७३ ॥
हे राजपुत्र हम सच कहते हमको न स्वर्ग में जाना है इस आर्य भूमि पर ही अब तो स्वर्गीय सुखों को लाना है। स्वर्गापवर्ग सोपान यही प्रिय भारतवर्ष हमारा है निज स्वत्व विसर्जन परहितार्थ मंगल आदर्श हमारा है॥ ६-७४ ॥
इन व्यापक भावों को अब तो हम मनोभूमि पे लायेंगे अवलोक हमारी मानवता सुरगण हमपे ललचायेंगे। करके समक्ष सिद्धियाँ तात आमलक समान सदा करतल हमने न प्रदर्शित किया कभी निज सुख हितार्थ उनका यह बल॥ ६-७५ ॥
हो सर्व समर्थ भूलकर भी सामर्थ्य भान हममें न हुआ पाकर सुरगुरु की भी गरिमा गुरुताभिमान हममें न हुआ। मानव की सभी अपेक्षाएँ सम्पन्न प्रकृति ही करती है फिर भी नरलिप्सा निराधार संकल्प विकृति से भरती है॥ ६-७६ ॥
है कोटि कोटि सुर सदनों से सुख-प्रद वन निर्मित पर्ण ओक वस्तुतः थिरकता मेरे इस आश्रम में सन्तत स्वर्ग लोक। मेरी अरुन्धती की पूजा सुर ललनायें कर जाती हैं पाकर उसकी पद-कमल-रेणु अविचल सीमन्त बनाती हैं॥ ६-७७ ॥
यह कामधेनु सब इच्छायें पूरी करती हो वशम्वदा देती मनवांछित सर्वकाल आवश्यक सुख सम्पदा सदा। पर हम निज हित इसका न कभी उपयोग भूल कर करते हैं तुम जैसे राजसुतों के ही इसके बल से मन हरते हैं॥ ६-७८ ॥
जैसे वैदिक सत्कर्मों में ऊर्जा सहचरी हमारी है वैसे ही सुरभी पुत्री सी हमको प्राणों से प्यारी है। गोबर जिसका वरदान तथा निःस्यन्द पुण्य नर्मदा नीर जिसका पय पावन गंगा जल पी पी होता निर्मल शरीर॥ ६-७९ ॥
मम अग्निहोत्र हित जागरूक पयदान निरन्तर करती है तुमसे भूपों के स्वागतार्थ आश्रम मंगल से भरती है। बस इतने में ज्ञातव्य तुम्हें हो मेरा स्वागत चमत्कार वस्तुतः न हम इसमें सचेष्ट करते निज प्रभु को नमस्कार॥ ६-८० ॥
जो चमत्कार दिखला करके जग का नित वंचन करते हैं वे नर पिशाच हैं सन्त नहीं भवनिधि न कभी वे तरते हैं। क्या सांसारिक सुविधाओं से है गेय सन्त की परिभाषा उसकी हरि भक्ति प्रवणता ही मूकास्वादनवत् सी भाषा॥ ६-८१ ॥
जिनका दर्शन परमेश्वर की सुस्मृति का पावन साधन है वस्तुतः सन्त उनको कहते प्रभु प्रेम मात्र जिनका धन है। जिनकी पद-पंकज नख ज्योति भीषण निशीथिनी को हरती है सन्त वही जिनकी वाणी मन में प्रभु-प्रेम सुधा भरती॥ ६-८२ ॥
हम पूर्णकाम सर्वदा तात बनते न कभी भी भोगी हैं तुम जैसे भोगलिप्सुओं को करते क्षण भर में योगी हैं। बस कामधेनु का कृपा कोर पाथेय बनाते राज्यपाल इतने में यह रहस्य समझो अवलोक तुम्हें हम हैं निहाल॥ ६-८३ ॥
इतना ही कहकर द्रुहिणतनय बस एक निमिष तक मौन रहे हो गया कंटकित तरु शरीर नव नलिन नयन से नीर बहे। भावी वश गाधितनय का मन अब कामधेनु हित मचल गया लिप्सा पिशाचिनी से उनका कुछ धैर्य कूट भी विचल गया॥ ६-८४ ॥
मानव की कुप्रवृतियाँ ही प्रस्तुत करती हैं महोत्पात उच्छृंखल इच्छाओं से ही होता अनर्थ का सूत्रपात। अनियंत्रित भोग वासना ही शैतान बनाती मानव को यह श्रीमदान्धता ही सृजती पल भर में उद्धत दानव को॥ ६-८५ ॥
दुर्दान्त इन्द्रियों का समूह नर को पिशाच कर देता है आशा सुरसा का मुख संयम मारुति को भी ग्रस लेता है। जो हो न सका पल भर को भी इस मुद्रा राक्षस का शिकार वह ही कर सका सफल जग में रह कर भी प्रभु को नमस्कार॥ ६-८६ ॥
मेरे विचार से यह इच्छा डाइन ही सर्वानर्थ मूल इसने ही प्रकट किये सारे इस हृदय फूल में अमित शूल। वस्तुतः गाधिसुत जीवन में क्या किसी वस्तु का है अभाव पर रोक न पाये वे भी तो इस वैतरणी का कटु प्रभाव॥ ६-८७ ॥
इस कामधेनु की लिप्सा ने नरपति को पागल बना दिया तृष्णा तरंगिणी ने पल में नृप धर्म सेतु को भग्न किया। संकल्प विकल्पों के अब तो उठते सहस्र आवर्त वृन्द दुर्गम मनोरथों के करते कल्लोल केलि कलकल अमन्द॥ ६-८८ ॥
किस भाँति मिले यह कामधेनु नरपाल विचार लगे करने निज हृदय कलश को नृपमद से तत्काल अपार लगे भरने। दे द्रव्य प्रलोभन भूसुर को यह कामधेनु ले जाऊँगा इससे मन ईप्सित भोग भोग जीवन को सफल बनाऊँगा॥ ६-८९ ॥
वस्तुतः कामनातुर का मन चल-दल सा अस्थिर होता है जो इतस्ततः हिलता डुलता सुख से न कभी भी सोता है। वह सारमेय सा उच्छृंखल उच्छिष्ट पात्र के लेहन को है समझ रहा निज चरम लक्ष्य धिक्कार कोटि इस खल मन को॥ ६-९० ॥
अब रोक न पाये गाधिनतय सहसा उनका मन मचल पड़ा प्रार्थना व्याज कर आनन से विष का प्याला जो निकल पड़ा। उस काल नराधिप के मुख की आकृति पर था अधिकारलास्य कुछ भाव भंगिमा से ढकता उसको था कृत्रिम अधर हास्य॥ ६-९१ ॥
हे विप्रवर्य इस कानन में हैं आप सदा तपव्रत निस्पृह आवश्यकता भवदीय अल्प संयम सनाथ है यह तृण गृह। यह प्रकृति सुन्दरी ही बनकर परिकरी आपकी रहती है सब सुविधाएँ प्रस्तुत करके सेविका धर्म निर्वहती है॥ ६-९२ ॥
यह कामधेनु आवश्यक क्या भवदर्थ बतायें हे ऋषिवर किस हेतु उतारेंगे नन्दन कहिए कानन कन्टक भूपर। क्या राजहंसिनी मरुस्थल में रहकर सुषमा सरसायेगी क्या विषोद्यान में आकर के संजीवनि शोभा पायेगी॥ ६-९३ ॥
हैं आप सदा वैखानसरत अतएव आपको उचित योग हम राजाओं के लिये नाथ आदिष्ट कीजिये राजभोग। यह कामधेनु है भू सुरेन्द्र होकर मम इच्छा वशंवदा मेरे हित करती रहे सतत संचित सुरपुर की सुसंपदा॥ ६-९४ ॥
इसको पाकर मैं वैभव से सुरनायक को भी ललचा दूँ इसके बल पर निज महलों में मैं इन्द्रपुरी को भी ला दूँ। इसके विनियम में ब्रह्म पुत्र वैभव समस्त मुझसे ले लें अविलम्ब आप यह कामधेनु मुनिवर कृपया मुझको दे दें॥ ६-९५ ॥
गज वाजि राजि मणि गण स्यन्दन देकर न तनिक दुःख पाऊँगा पर कामधेनु इस आश्रम से मुनिराज आज ले जाऊँगा। इस क्षीरसिन्धु सम्भव ललाम का एक मात्र मैं अधिकारी राजानो रत्नभुजः कहकर श्रुति ने आज्ञा दी अविकारी॥ ६-९६ ॥
ऋषिराज आप तो अनधिकार उपभोग रत्न का करते हैं होकर भी शास्त्रविज्ञ भगवन् श्रुति से न कभी भी डरते हैं। हम भूपों की अधिकार प्राप्त सम्पत्ति आप के घर आई विधिवश मैंने चिर प्रतीक्षिता अपनी ही खोई निधि पाई॥ ६-९७ ॥
होकर क्षत्रिय हे भूमिदेव हम नहीं माँगते हैं भिक्षा केवल अपने अधिकृत धन की है इष्ट हमें करनी रक्षा। दायित्व प्राप्त कर्त्तव्यों का सम्पादन ही है मनुज-धर्म इससे अतिरिक्त जिघृक्षा का प्रतिपादन ही है क्रूर कर्म॥ ६-९८ ॥
प्रत्येक व्यक्ति अधिकार प्राप्त यदि कर्मों में ही रहे निरत तो वाद विवाद विषादों के कट जायें कंटक सभी तुरत। मानव को अब तो इष्ट अरे अभिरुचि से परछिद्रान्वेषण पीकर के सुधा स्वयं करता औरों को विष का परिवेषण॥ ६-९९ ॥
होकर भी स्वयं महापापी परिहास शंभु हरि का करता हो स्वयं नारकी नरकान्तक यश इच्छा से मन को भरता। होकर भी कालकूट पुतला करता है शशि का तिरस्कार सह सकता नहीं तूल अघ का हो करके भी पातक पहाड़॥ ६-१०० ॥
किम् बहुना आप मुझे दे दें यह कामधेनु मेरा ही धन इससे मैं ले आऊँ भूपर सानन्द सुरों का नन्दन वन। निज अग्निहोत्र हित धेनुवृन्द ले लें मुझसे प्रभु सहस्रशः पर ठुकराएँ ना यह आग्रह हो चुका प्रलोभन अब बहुशः॥ ६-१०१ ॥
गाधेय वचन शिलीमुखों से ऋषि हृदय पद्म भी भिन्न हुआ यह देख नराधिप की लिप्सा करुणा से आनन खिन्न हुआ। तत्काल निराशा स्वेदबिन्दु आयत ललाट पर आ झलके निज खेद रोक धर धैर्य विप्र नृप से बोले हलके हलके॥ ६-१०२ ॥
अधिकार प्राप्ति देवों को भी सचमुच पागल कर देती है यह धन मदान्धता मनुजों में कुविचार गरल भर देती है। पीकर भी कालकूट शिव सा अब कौन अचल रह सकता है अब कौन हिमाचल सा भीषण पविपात भला सह सकता है॥ ६-१०३ ॥
जो नहीं प्रभावित हो विष से पा अनायास भी शेष तल्प वह एकमात्र पुरुषोत्तम है जिसकी क्रीड़ा कल्पना कल्प। राजन् हमने करके प्रतीति उन्मुक्त तुझे सौंपी सत्ता पर हुई आज विपरीत क्रिया बन गई गरल यह गुणवत्ता॥ ६-१०४ ॥
हमने न स्वप्न में भी सोचा यह माला अहि बन जायेगी थी नहीं कल्पना चन्द्र रश्मि झंझा बन हमें सताएगी। हमने नियुक्त था किया तुम्हें भारत भविष्णुता का रक्षक पर आज क्रूर दुर्भाग्य वशात् रक्षक ही स्वयं बना भक्षक॥ ६-१०५ ॥
हमने न कभी भी समझा था काँटा गुलाब में आएगा आभास नहीं था अरे कभी राजीव कुन्त बन जाएगा। क्या आर्यावर्त भूमि सन्तत पशुओं से रौंदी जाएगी क्या मातृ क्रन्दना कभी नहीं नर के मन को दहलाएगी॥ ६-१०६ ॥
समझा था जिसे सजग प्रहरी हा वही आज चौरेन्द्र बना हा हा सरोजिनी ने कैसे यह कालकूट का विटप जना। योजना कमलिनी में हमने कर यत्न संजोया मधुप पुंज पर निगल गया हा हा झट से यह लिप्सा कुंजर क्रूर कुंज॥ ६-१०७ ॥
जिसकी गोदी में सिर रखकर सोना हमने प्रारम्भ किया उसने ही हा हा शिरश्छेद करना अब तो आरम्भ किया। अधिकार और कर्त्तव्यों की करती है जनता परिभाषा जिसकी न कदापि कुशासक नर अवगत कर पायेगा भाषा॥ ६-१०८ ॥
तुम द्वारपाल से मातृभूमि के संरक्षण के अधिकारी सुख सुविधाओं की लिप्सा तो नृप का है अनधिकार भारी। इस भारतवर्ष धरातल पर सम्मान रहा है पोषक का इसके प्रतीप में यहाँ सदा अपमान हुआ है शोषक का॥ ६-१०९ ॥
इस भू ने संयम सुसलिल से शोषक कृशानु को बुझा दिया पोषक शशांक को निष्कलंक शिव सिर का भूषण बना दिया। हमको तो जन्म जन्म से है नेतृत्व प्राप्त ऋषि मुनिगण का पर तुमको तो हमने सौंपा तात्कालिक शासन इस जन का॥ ६-११० ॥
होकर के क्षणिक स्वार्थ अन्धे यदि इसको अधिक सताओगे तो सत्य जान लो राजपुत्र तुम कल न कभी भी पाओगे। ऋषिराज हमी हैं जन्म सिद्ध सुरभी सम्पदा हमारी है यह अनिधकार इस पर लिप्सा हे भूपति अहो तुम्हारी है॥ ६-१११ ॥
तुम क्षणभंगुर हो राजपुत्र अस्थाई तेरा शासन है यह चार दिनों की चन्द्र निशा फिर कृष्ण पक्ष ही तमघन है। उच्छृंखल क्षणिक विभव पाकर पूर्वापर का करते न ध्यान अपने ही तुच्छ स्वार्थ सुख में करते हैं धर्म नृशंस म्लान॥ ६-११२ ॥
सच कहो भूप जिसके बल पर करते तुम सबका उत्पीड़न यह अपरिमेय धन राज्य श्री सुस्थिरा रहेगी कितने क्षण। अज्ञात रूप में कालबली सबका आह्वान किया करता वह दुनिवार्य कभी न कभी सबका बलिदान दिया करता॥ ६-११३ ॥
पर नीच मनुज को निज सिर पर भी आई मृत्यु नहीं दिखती साप्ताहिक सात दिनों में ही वह मुख फैला सबको चखती। इसलिये भूप इस धरती पर तुम अल्प दिनों के शासक हो फिर भी पाकर सत्ताभिमान बन गये मनुजता त्रासक हो॥ ६-११४ ॥
इस आर्यभूमि ने बहुतों का निज नयनों से शासन देखा गिरगिर कर लुढ़क लुढ़क उठना सम विषम सुदिन दुर्दिन लेखा। अगणित भूपों के राजछत्र इस आर्य भूमि पर ही चमके अगणित सुरराज विजेताओं के शासन चक्र यहीं दमके॥ ६-११५ ॥
पर यह शाश्वत सिद्धान्त सदा भूपाल सभी के साथ जुड़ा जो गिरा उठा वह निर्विवाद जो अकड़ा वह अविलम्ब मुड़ा। यह पावन भारत वसुंधरा सत्ता के पाप नहीं सहती अविलम्ब उगल कर ज्वालाएँ पापी शासक को ही दहती॥ ६-११६ ॥
हैं जहाँ राजप्रासाद वहीं थे सुर श्मशान कभी न कभी थे जहाँ मरुस्थल कभी घोर हैं सिंधु दीखते वहीं अभी। नरदेव विषम संसार चक्र अविराम रूप से चलता है सत्ताभिमानियों के मद को पा समय अवश्य कुचलता है॥ ६-११७ ॥
कोई भी अमर न हो पाया इस मर्त्यलोक भूपर आकर जो आये वे सब चले गये कोई रोकर कोई गाकर। इस भारत भूपर रहा अचल सब लोगों का ध्वंसावशेष पर कीर्ति पताकायें फहरीं जिनके मन में मद का न लेश॥ ६-११८ ॥
जिनके चरित्र को छू न सकी संसार चक्र की यह माया उनकी ही विमल यशोगाथा सुधियों ने मुदित हृदय गाया। उरुगाय उन्हीं के चरण चूम होते कृतकृत्य प्रेम निर्भर जो सुजनों की स्मृति के दीपक मरकर भी वे नित रहे अमर॥ ६-११९ ॥
यह क्षीर सम्भवा कामधेनु सुरवन्दित रत्न पुरातन है ऋषियों की अधिकृत सुसंपदा ऋषिराज्य सदैव सनातन है। हम ऋषिकुल पति जन्मना और तुम कतिपय दिन के हो शासक अतएव स्वत्व मेरा इस पर अब बनो न तुम इसके त्रासक॥ ६-१२० ॥
इसके पय से कर अग्निहोत्र करते हम वेद धर्म पालन इसके ही फल से हो तटस्थ करते जग का हम संचालन। जाओ बस लौट सदन अपने छेड़ो मत मुझे गाधिनन्दन पर्याप्त कामधुक् के द्वारा कर दिया तुम्हारा अभिनन्दन॥ ६-१२१ ॥
मन्थन के समय क्षीरनिधि के अधिकार पुरःसर कामधेनु ऋषियों को सौंप लिया सिर पर सादर श्रीहरि ने चरण-रेणु। अधिकार विभाजन में मधुरिपु करते न कभी भी पक्षपात उनकी मर्यादा का तुम ही करने आये हो अब विघात॥ ६-१२२ ॥
यह शुल्क नहीं है धर्म प्राप्त अधिकार नहीं तेरा इस पर पुत्री यह ऋषियों की भूपति अभिचार नहीं तेरा इस पर। कोई भी आर्यभूमि शासक ऋषियों से शुल्क नहीं लेता विनिमय में लेकर चरण धूलि श्रद्धा प्रसून ही है देता॥ ६-१२३ ॥
भारत को जगतवन्द्य पद पर ऋषियों ने किया प्रतिष्ठित है यह ब्रह्म वंश निजधर्म निरत श्रुति मर्यादा पर निष्ठित है। वस्तुतः आर्य मर्यादा ही भारत भविष्य की विशद सुधा जिसके आस्वादन से मिटती सम्पूर्ण विश्व की भोग क्षुधा॥ ६-१२४ ॥
ज्यों ज्यों करता है यह मानव भौतिक सुविधाओं का विकास त्यों-त्यों करता है आमंत्रित अति दुर्निवार्य अपना विनाश। संयत्रों की यह चकाचौंध क्या कर सकती मानस सर्जन क्या दारुयोषिता से सम्भव मंजुल अभिरुचियों का अर्जन॥ ६-१२५ ॥
कितना भी पक्षी उड़े गगन आना उसको जहाज पर ही पुरुषार्थ वाद को अन्त समय जीना है ऋषि समाज पर ही। ऋषियों का यह अध्यात्मवाद वास्तव भारत का दर्शन है जीवन की दृष्टि यहीं खिलती मानव का यहीं निदर्शन है॥ ६-१२६ ॥
ओ हरिण तुम रहो सावधान यह मरुमरीचिका झूठी है झुठलाई तुमको भी अबतक मानवता तुमसे रूठी है। ओ चातक पी पी रट न लगा क्यों आशा में अवसर खोता यह धूम राशि है जलद नहीं क्यों धोखे से बेसुध सोता॥ ६-१२७ ॥
अब उठो उठो ऐ सुप्त सिंह मधुमय यह पुण्य प्रभात हुआ तेरे पंजों पर श्वानों का कायरतापूर्ण निघात हुआ। ओ तरल तंरगे विष्णुसुते तू शान्त बेग से क्यों बहती इन श्वान सेवरों के विवाद क्यों मूक भाव से है सहती॥ ६-१२८ ॥
अब बहुत हो चुका उत्पीड़न ऋषिवंश इसे न सहेगा अब बनकर प्रालेय प्रभंजन सुत आलातवरूथ दहेगा अब। सीमा हो गई तितिक्षा की अब शाश्वत क्षमा क्षमा छोड़ी बेला भी भग्न पयोनिधि की धृति ने गुरुता से मुख मोड़ी॥ ६-१२९ ॥
अब शान्ति पाठ भी व्यर्थ हुआ नारे हो गये पुराने हैं वास्तविक क्रान्ति के नवल सूत्र अब तो भारत में लाने हैं। मूल्यों में भी परिवर्तन की अब बहुत अपेक्षा हमको है मानव संस्करण परिष्कृति की अब बहुत प्रतीक्षा हमको है॥ ६-१३० ॥
अतएव लौट जाओ घर को सुरभी मैं तुझे नहीं दूँगा होकर कुलपति ऋषि कुल का मैं विनिमय का पाप नहीं लूँगा। पुत्रिका भाव से कामधेनु यह नित्य रहेगी आश्रम में यह है अदेय संतत नृपाल मत भूल पड़ो तुम विभ्रम में॥ ६-१३१ ॥
शाश्वत मूल्यों में परिवर्तन कथमपि है इष्ट नहीं हमको सिद्धान्तों से करनी क्रीड़ा त्रयकाल अभीष्ट नहीं हमको। यह निश्चय जानो राजपुत्र ब्राह्मण व्यापार नहीं करता कन्या गौओं का विक्रय कर शिर पर अघभार नहीं धरता॥ ६-१३२ ॥
इसका निज प्रेम सुधा पय से लालन करती है अरुन्धती इसके गोमय से उटज लीप प्रमुदित रहती सौभाग्यवती। सुर ललनार्चित सीमन्त व्यजन कर अंचल को आतप वारण मेरी सहचरी सदा इसको पूजती प्रीति कर निष्कारण॥ ६-१३३ ॥
इस भारतीय शुभ संस्कृति की गोधन एक ही धरोहर है औरों का चाहे जो बर हो आश्रम का बर तो गोबर है। यह कहकर विधिसुत हुए मौन मानस में प्रेम उमड़ आया तन हुआ कंटकित प्रेमपूर्ण नयनों में नेह सलिल छाया॥ ६-१३४ ॥
सुरभी रसना से ऋषितनु का कर करके सुख से अनुलेहन आनन्द प्रफुल्लित रोमांचित कर रही मुदित होकर मेहन। सादर वशिष्ठ कर कंजों से सहला सहला कर गल कम्बल गोमुख समलंकृत अंस किये होते पुलकित भर लोचन जल॥ ६-१३५ ॥
संकेत देख निज कुलपति का सुरभी उटजान्तर चली गई उस ओर गाधिसुत के मन में क्रोधानल ज्वाला बढ़ी नई। हो गये नयन विकराल लाल रद वसन क्रोध से फड़क उठे नाथावमान से क्षुब्ध हृदय सांभ्रामिक भट भी भड़क उठे॥ ६-१३६ ॥
तत्काल गाधिसुत हृदय जलधि आक्रोश वारि परिपूर्ण हुआ झट कामधेनु के ग्रहण हेतु उनका चल मानस तूर्ण हुआ। चढ़ गई त्योरियाँ नयनों में आकस्मिक अरुणाई छाई कुछ फड़क उठे युग दशन वसन आनन पर कुछ लाली आई॥ ६-१३७ ॥
उस काल वीर रस महाविटप नृप हृदय विपिन में फूल गया कामानुज के आवेश मध्य सुविवेक ज्ञान सब भूल गया। झट क्रोध रक्त लोचन नरपति निज आसन तज कर उछल पड़े होकर निविष्ट आविष्ट रुष्ट सुरभी के सम्मुख हुए खड़े॥ ६-१३८ ॥
कर सिंहनाद गर्जन भीषण करके मुनिवर का तिरस्कार श्रीमद मदान्ध हो गाधितनय कर रहे प्रदर्शित स्वाधिकार। सचमुच सत्ता की मादकता नर को पागल कर देती है उसके मन प्याले में सहसा वह कालकूट भर देती है॥ ६-१३९ ॥
ऋषि को भर्त्सित कर राजपुत्र खूँखार अधिक बिकराल हुआ अब उमड़ पड़ा अभिमान सिन्धु आनन कराल उस काल हुआ। सुरभी की रश्मि पकड़ कर में कर रहा आज नृप आकर्षण यह क्रूर कार्य सत्ता मद का या कहो धर्म का ही धर्षण॥ ६-१४० ॥
होकर तटस्थ वीभत्स दृश्य सब देख रही थी अरुन्धती करुणाश्रु नीररुह नयनों में अति कृपण वित्त ज्यों निरुन्धती। अब सह न सकी सुरधेनु आज इस भाँति धर्म की महाम्लानि सत्तातिरेक सम्भव दुर्मद लख ऋषि को भी हो गई ग्लानि॥ ६-१४१ ॥
नरपति के क्रूर करों से अब सुरधेनु हो रही थी कृष्टा वात्सल्य सरोवर नलिनि आज हो रही मत्त करिकर क्लिष्टा। निर्दोष धेनु का आक्रन्दन सुन खगमृग तरु गण रोते थे यह देख धर्म का तिरस्कार वनदेव क्षुब्ध से होते थे॥ ६-१४२ ॥
कातर नयनों से कामधेनु ने ब्रह्मपुत्र आनन देखा अब प्रकट हुई ऋषि के मुख पर निःसुप्त क्रोध गुण की रेखा। उत्फुल्ल हुआ पंकज कपोल कुंडल भी कुछ हो गये लोल हो गये केश मेचक विलोल अब सिहर पड़े वर रद निचोल॥ ६-१४३ ॥
ये सत्तालोलुप नरपिशाच करते निरीह जन का पीड़न देखो तो इन नर पशुओं का निर्दयतापूर्वक उत्पीड़न। ये द्वारपाल ज्यों यहाँ अहो जन रक्षण हित आदिष्ट हुए पर उच्छृंखल हो यज्ञभांड उच्छिष्ट करण हित दिष्ट हुए॥ ६-१४४ ॥
अब नहीं सहूँगा मूर्खों का इस भाँति पराभव भव कुकृत्य बस ब्रह्मदंड से संमर्दित कर रहा क्षात्रबल मैं निवृत्त। जिस भाँति मत्त केशरी क्रूर गजवन का विघटन करता है कर भिन्न शीर्ष मुक्तायें वह उन्मुक्त विपिन में चरता है॥ ६-१४५ ॥
उस भाँति आज इस नरपति का विध्वस्त सैन्य बल कर दूँगा इसके अखर्व सत्ता मद को पल मध्य आज मैं हर लूँगा। यों कर संकल्प कल्पव्रत ने कर दिया दर्भ से संप्रोक्षण बस गरज पड़ी अब कामधेनु नृप सैन्य दलन हित काली बन॥ ६-१४६ ॥
कर खुर प्रहार चरण प्रसार नृप सुभट गणों को मार मार कर रही युद्ध लीला सुरभी अविलम्ब बहाकर रक्त धार। क्षण मध्य सैन्यबल क्षीण हुआ श्रीहत अब भूप प्रबीण हुआ सत्ता का गर्व विलीन हुआ नृप मुख लज्जा से दीन हुआ॥ ६-१४७ ॥
ज्यों प्रलय प्रभंजन तीब्र बेग तृण कक्ष उड़ा देता पल में त्यों कामधेनु ने क्षिप्त किया नृपसेना को उद्धत जल में। बस हाहाकार कराल मचा संग्राम धाम कोहराम मचा रणचंडी का यह शुभाह्वान या क्रूर काल अभिराम मचा॥ ६-१४८ ॥
चट चट चटकीं गिरि चट्टानें तड़ तड़ तलवारें तड़क उठीं कालानल की ज्वालाएँ भी संग्राम भूमि में भड़क उठीं। थी भीमनाद करती चंडी कर समर भूमि में अट्टहास रक्ताक्तकरालतरास्यों से पी पी शोणित सरिता विलास॥ ६-१४९ ॥
था महाश्मशान भयानक या प्रालेय शम्भु का यह तांडव अथवा स्फुलिंगमाली उद्धत अथवा उद्वेलित था वाडव। क्षण मध्य भस्म कर भूप विभव उपहत वशिष्ठ ज्वाला माली सतरंग सिंधु सा शान्त हुआ संतुष्ट क्षमा करुणाशाली॥ ६-१५० ॥
नृप हुआ म्लान अवनत आनन अवलोक सैन्यबल पराभूत पंचानन पीडि़त कुंजर सा लज्जानत मस्तक मदोद्धूत। कर गया पलायन गाधितनय फिर कामधेनु आश्रम आई सब सुखी हुए आश्रमवासी खोई निधि को ऋषि ने पाई॥ ६-१५१ ॥
भावाविभूत सुरभी ऋषि के चरणों को अब चाटने लगी निज नयन अश्रुओं से वन के संकट बन को काटने लगी। ऋषि ने कर मूर्धा समाघ्राण फेरा कर पंकज को सिर पर पुत्री भी मुदित हुई मानों चिर प्रोषित पिता भवन पाकर॥ ६-१५२ ॥
उस ओर विश्वरथ तपोलीन कर रहे क्षात्र बल का संचय हो सका नहीं था अभी उन्हें दुर्दान्त ब्रह्म बल का परिचय। दुर्धर्ष तपस्या सलिलधार वैरानल को न बुझा पाई संयम की चिन्तन धारा भी सन्मार्ग उन्हें न सुझा पाई॥ ६-१५३ ॥
प्रत्येक कार्य की सफल सिद्धि संकल्पों पर निर्भर होती सामान्य शुक्ति से कभी नहीं प्रकटा करती मंजुल मोती। क्या मरु मरीचिका कर सकती अविराम सलिल सींकर सिंचन क्या धूम समूहों से संभव चातक हित स्वाति वारि मुंचन॥ ६-१५४ ॥
तप के ही साथ गाधिसुत की वैरानल ज्वाला भी भड़की ब्राह्मण पर करने को प्रहार काली ज्यों करवाली कड़की। अब भूल पराभव भूतपूर्व पाकर रण का वैभव अपूर्ण आक्रोश भरे आश्रम आए ज्यों उमड़ पड़ा प्रालेय और्व॥ ६-१५५ ॥
काष्ठाएँ तम से पूर्ण हुईं मार्तंड छिप गया धूलों में हा कानन के अति मृदुल फूल अब बदल गये कटु शूलों में। ललकार ब्रह्म सुत को सहसा आह्वान किया रणहित उनका थे रोक नहीं पाये पहले संकल्प कल्प संभ्रम जिनका॥ ६-१५६ ॥
सन् सन् सन् श्येन सरिस सनके सैनिक ऋषिकुल को मान लवा धम् धम् धम् धम् धम् धमक उठी कौशिक मन में प्रतिशोध दवा। चम् चम् चम् चम् चम् चमक उठे चपला से दिव्यायुध अनेक मन् मन् मन् महामंत्र मनके ज्वालामाली से तज विवेक॥ ६-१५७ ॥
उद्दंड उग्र उद्भट नृप ने चाहा करना ऋषि का धर्षण प्रारंभ किया झट धृतावेश वारिद सम अस्त्र-शस्त्र वर्षण। पशुबल की मादक मदिरा ने हर लिया विवेक मनस्वी का हा दुर्निवार्य तप क्रूर बना आपत बन तरुण तपस्वी का॥ ६-१५८ ॥
वस्तुतः क्रोध मानव मन का होता सपत्न सबसे उत्कट इसके कारण ही मँड़राते जीवन पर संकट मेघ विकट। प्रतिशोध अनल में जल जाते क्षण में ही मानव मूल्य सभी इसकी झंझा में उड़ जाते सद्गुण सुरपादप तुल्य सभी॥ ६-१५९ ॥
यह जटिल समस्या दुराधर्ष सोचना हमें इसका हल है सुर दुष्कर तीब्र तपस्या का क्या पर उत्पीड़न ही फल है। अब शान्त सान्द्र सागर सर में सहसा ही ज्वार उमड़ आया कल्लोल लोल उत्तुंग निरख कुलपति का मन भी घबराया॥ ६-१६० ॥
सुप्तोत्थित सिंह सरिस उठकर अवलोक ध्यान में नृप भविष्य उद्दीप्त किया रोषानल को अर्पण हित शासक मद हविष्य। अब थिरक उठी विधु आनन पर दुर्धर्ष ब्रह्म बल की आभा मानो अभिरक्त अरुणिमा से सायन्तन शारद चन्द प्रभा॥ ६-१६१ ॥
क्या मणि वियोग से व्यथित हृदय होकर अधीर भुजगेन्द्र जगा अथवा प्रशान्त वारीश मध्य यों ज्वार वीर रस ही उमगा। अब गई शान्ति मुख कान्ति क्लान्त विधुपुत्र चित्त बेचैन हुआ आभुग्न नासिका भृकुटि कुटिल रोषाक्त रक्त ऋषि नैन हुआ॥ ६-१६२ ॥
तत्क्षण समाप्त कर संध्या को नैमित्तिक भी संक्षिप्त किया अवलोक समागत महाविघ्न हवनीय द्रव्य निक्षिप्त किया। कर तुरत विश्रमित वैश्वानर मुनि देकर सब को आश्वासन उद्दंड भूप के दंड हेतु ले ब्रह्मदंड अग-जग त्रासन॥ ६-१६३ ॥
कर से उतार दर्भांगुलीय आसन पर रख दी जप माला अब शान्त हृदय में धड़क उठी रिपु दमन हेतु क्रोध ज्वाला। फड़ फड़ फड़ रदपट फड़क उठे चट चट चट चटकी चट्टानें भयभीत हुए सब लोकपाल सुरवृन्द लगे सब घबराने॥ ६-१६४ ॥
हिल गया सुखासन ब्रह्मा का छूटी समाधि अब शंकर की चिरकाल सुप्त उगलने लगी ज्वाला स्फुलिंग प्रलयंकर की। सहसा वैश्वानर शान्त हुआ आहुति का भी विश्राम हुआ रण में पशुबल के आहुति हित वाशिष्ठ रोष उद्दाम हुआ॥ ६-१६५ ॥
रे ठहर मनुजता के शोषक राजन्य वंश पांशन पामर यह दुराधर्ष पशुबल तेरा सुस्थिर न रहेगा अब पल भर। यह छुद्र काक शावक अब तो उच्छिष्ट कर रहा पुरोडास लेने दौड़ा देखो देखो केहरि का यह लघु शशक ग्रास॥ ६-१६६ ॥
कर रहा मुरैला अरे अरे अब वैनतेय बल की समता छोटा सा गढ़ा दिखा सकता क्या सागर के जल की क्षमता। इस रोषानल में नृप कलंक यह तूल सरिस जल जायेगा मम ब्रह्मदंड बन कालदंड उद्दंड भूप को खायेगा॥ ६-१६७ ॥
ब्राह्मण का तेजोमय प्रभाव मैं आज जगत को दिखला दूँ जीवन यात्रा की सीख आज मैं गाधितनय को सिखला दूँ। ललकार गीदड़ों की कब तक चुपचाप केशरी करे सहन सूखे तृण को कब तक हुताश होकर पार्श्वस्थ करे न दहन॥ ६-१६८ ॥
अब स्वाहाकार समाप्त करो होताओं होओ सावधान लो शान्ति पाठ विश्राम तनिक कर महाक्रान्ति का शुभाह्वान। बटुओं स्वाध्याय विसर्जन कर कुछ क्षण हित हो जाओ सतर्क अब रणाध्याय का नया दृश्य देखो तुम भी होकर सतर्क॥ ६-१६९ ॥
यों निज कुल को कर समाश्वस्त ले कालदंड सा ब्रह्मदंड निकले कुटीर से देने हित उद्दंड भूप को घोर दंड। उस काल हो रहा दुर्निरीक्ष आकार ब्रह्म वर्चस्वी का लख थरथरा गई अरुन्धती त्रासक आवेश तपस्वी का॥ ६-१७० ॥
भ्राजे ललाट पर स्वेद बिन्दु मुनिवर वनिता थर थर काँपी बिम्बाधर तत्क्षण सूख गया मन में विशाल ज्वाला व्यापी। झंझा विधूत सुरव्रतती सी तत्काल मुनिवधू सिहर गई तन हुआ कंटकित शिथिल चित्त में धधकी चिन्ता चिता नई॥ ६-१७१ ॥
वह निर्निमेष दृग से निहार पति वदन लगी धीरज खोने अब लगी पगी करुणा रस में वह फूट फूट करके रोने। देवी के चारु दृगंचल से करुणा जल बिन्दु छलकते थे झरते नवनील सरोरुह से हिमकण ज्यों विशद झलकते थे॥ ६-१७२ ॥
अविराम अश्रुओं ने जदपि कज्जल नयनों को धो डाला पर बुझा न पाये वे भी हा यह शोकमयी पावक ज्वाला। वह प्रकृति सौम्य मुनि वनिता भी कुछ क्षण के लिये हुई चंचल हो गये समीरित अब सहसा रद वसन युगल ज्यों नव चल दल॥ ६-१७३ ॥
धर हाथ माथ पर ऋषि नारी लेकर विवेक का आलम्बन अनुनय हित तत्पर हुई तुरत कर मृदुवाणी का अवलम्बन। हे आर्यपुत्र ठहरें ठहरें यह रोष आपको उचित नहीं है क्षमा विप्रकुल का सर्वस आक्रोश आपको उचित नहीं॥ ६-१७४ ॥
गंभीर कृपा कूपार मध्य विक्षोभ अहो कैसे आया तूफान कौन जो सागर में मर्यादा हित संकट लाया। हे देव आप विक्रान्त शान्त ब्रह्मर्षि वर्य भूसुर पुंगव यह नहीं शोभता अहो यहाँ प्रतिशोध पूर्ण भीषण रौरव॥ ६-१७५ ॥
है क्षमा सार ब्राह्मण कुल का उपराम मनुज का अलंकार नर भूषण दिव्य तितिक्षा ही उपहार भव्य संयम प्रचार। इन दिव्य गुणों के कारण ही ब्राह्मण की अर्चा होती है इनसे ही सुरपुर में सन्तत भूसुर की चर्चा होती है॥ ६-१७६ ॥
देखें पृथ्वी अगणित प्रहार चुप-चाप सहन ही करती है भूदेवी सर्बसहा क्षमा इससे कहलाती धरती है। होकर उत्खात स्वयं धरती जीवन जल सब को देती है चुपचाप जीव का विषम भार यह धरा आप सह लेती है॥ ६-१७७ ॥
अतएव क्षमा इसको कहकर शास्त्रों ने सदा पुकारा है ईश्वर को भी इसका अंचल इस कारण ही तो प्यारा है। हे देव आप कौशिक नृप से कैसे प्रतिपक्ष निभायेंगे क्या शशकों से मृगराज कहीं लड़ने में शोभा पायेंगे॥ ६-१७८ ॥
क्या सुरसरि तरल तरंगों से स्पर्धा कर सके कर्मनाशा इस क्षुद्र नीच नरनायक से क्यों करें आप सद्गुण आशा। सच पूछो तो दुःख का कारण अपनी ही स्वयं अपेक्षा है इससे सौगुनी भली होती जगती में स्वयं उपेक्षा है॥ ६-१७९ ॥
यह एक विलक्षण देवी है जिसको हम आशा कहते हैं हो विमुख शान्ति पाते जिससे सम्मुख हो दुःख से दहते हैं। यह सेमर पुष्प समान प्रभो खट पटी जगत का धंधा है भटका भवाटवी में अटका इसमें भूला नर अंधा है॥ ६-१८० ॥
क्या देकर दंड आप नृप की पाशवी वृत्ति को हर लेंगे क्या निग्रह द्वारा क्रूर सर्प का मानस वश में कर लेंगे। भीषण भुजंग का एकमात्र है वशीकरण मृदुबीन बाद्य अतएव खिझाएँ नहीं उसे होवें प्रसन्न महिदेव आद्य॥ ६-१८१ ॥
हे आर्य वैर का वैर कभी उपशामक नहीं हुआ करता क्या कहो कहीं विद्युत प्रवाह विद्युत प्रवाह की गति हरता। अतएव नाथ करती विनती पग पड़ सहचरी तुम्हारी है सह धर्म भाव से माँग रही भिक्षा यह तापस नारी है॥ ६-१८२ ॥
छोड़ें अदम्य आक्रोश आर्य यह संयम का संहर्ता है यह मानवता धन का लुंठक शाश्वत मूल्यों का हर्ता है। सुर दुर्लभ इस मानव तन को पल में यह प्रेत बना देता मानव मनस्विता को क्षण में यह क्रूर कृतान्त मिटा देता॥ ६-१८३ ॥
इसके चंगुल में धीर-वीर नर पुंगव भी फँस जाते हैं इसके प्रभाव के वशीभूत नर स्वयं भूत बन जाते हैं। हे दयित आप देखें विचार पशुबल का उत्तर दंड नहीं इस प्रतिक्रिया से निगृहीत क्या होगा यह उद्दंड कहीं ॥ ६-१८४ ॥
अतएव करें मुनि क्षमा आप यह ऋषिकुल का शाश्वत धन है इसके बल पर ही तो पाती वसुमती समत्र समर्चन है। यह क्षमा सार है श्रुतियों का यह शाश्वत सत्य तपस्या का है यही विप्रकुल का भूषण मंजुल कृतित्व वरिवस्या का॥ ६-१८५ ॥
होते अधीर क्यों ब्रह्म पुत्र लखकर बालक का अनौचित्य क्या सिंह कभी भड़का करते लख पिपीलिका का चपल नृत्य। स्वीकार करें अनुनय मेरा मत बनें द्विजोत्तम आक्रामक हो जाएँ सदा के लिये शान्त जिससे विरोध रुज संक्रामक॥ ६-१८६ ॥
प्राणेश आपकी मूक क्षमा शापादपि होगी दुर्निवार्य जिससे होगा स्वयमेव क्रूर गाधेय रोष भी प्रतीकार्य। भगवन् इस तीव्र तितिक्षा को इतिहास कभी न भुलायेगा भवदीय क्षमाशीलता प्रभो भारत भविष्य दुहरायेगा॥ ६-१८७ ॥
आने दें नरपति झंझा को बनकर हिमवान सहेंगे हम प्रत्येक परिस्थिति में प्रभु की इच्छा से सुखी रहेंगे हम। कपियों के धक्कों से मुनीन्द्र सुरपादप नहीं हिला करते सामान्य झकोरों से कदापि भूधरवर नहीं डुला करते॥ ६-१८८ ॥
यह मानव की दुर्बलता ही उसकी अशान्ति का है कारण विज्ञान खड्ग द्वारा उसका हम कर दें क्षण भर में दारण। हो शान्त आप सुस्थिर गँभीर बस शान्त महासागर समान सम्पन्न पूर्ववत् करें क्रिया पर रहें निरन्तर सावधान॥ ६-१८९ ॥
यदि आयेगा नृपकुल कलंक वह सीख यहाँ से पायेगा मुनिकुल क्रोधानल ज्वाला में ज्यों शलभ भस्म हो जायेगा। वर्चस्व देख ब्राह्मण कुल का होगा नर नायक पराभूत बस आप रहें ऋषि निष्प्रमाद साधन होते संयम प्रसूत॥ ६-१९० ॥
शुचि मानवीय शाश्वत मूल्यों की संयम प्राण प्रतिष्ठा है यह लोकोत्तर बहुमूल्य रत्न यत्नों की मंगल निष्ठा है। संयम मनुष्य को देवों के सिंहासन पर बिठलाता है इस नर को भी नारायण से संयम अविलम्ब मिलाता है॥ ६-१९१ ॥
व्यक्तित्व संत का आम्र सरिस अगजग रसमय कर देता है सह कर पत्थर की मार आप सबको मंजुल फल देता है। होते श्रीखंड समान संत निरपेक्ष सुगंध चरित निर्मल नाशक कुठार भी पाता है जिनसे विशुद्ध पावन परिमल॥ ६-१९२ ॥
है आप संतकुल मुकुटरत्न ब्रह्मर्षिवर्य हे प्राणेश्वर लखती है दृष्टि सदा जिसकी कण-कण में व्यापक परमेश्वर। अतएव आप चुपचाप रहें मुनि क्षमा शाप से है भारी अपने ही कर्मों के फल से होगा विनष्ट यह व्यभिचारी॥ ६-१९३ ॥
हो शुभारम्भ आहुति का फिर स्वाध्याय करें बटु आरंभण हो वषट्कार प्रारम्भ पुनः मुनि के मानस का विश्रम्भण। अब आर्यपुत्र विश्राम करें मैं शीतल सलिल पिलाती हूँ आक्रोश जनित श्रम हर पल में अंचल से व्यजन डुलाती हूँ॥ ६-१९४ ॥
यों कह पद टेक प्राणपति का आसन पर मुनि को बिठा दिया निज अनुनय बचन चातुरी से आक्रोश निमिष में मिटा दिया। सलिलार्द्र चैल अंचल से फिर श्रम वारि बिंदु को पोंछ पोंछ पत्नी ने पति को स्वस्थ किया पट से प्रिय का आनन अंगोछ॥ ६-१९५ ॥
बोली अरुन्धती मुसुकाकर अब शान्त चित्त से भजन करें एक बार पुनः वेदध्वनि से वन का समस्त संताप हरें। हा कैसा था मेरा बसन्त यह ग्रीष्म कहाँ से टपक पड़ा किसने कर दूर सुधा घट को ले आ पटका मधुपूर्ण घड़ा॥ ६-१९६ ॥
बोले वशिष्ठ हो समाश्वस्त भर प्रेम वारि युग नैनों में भामिनी का हिला चिबुक किंचित अनुराग भरे मृदु बैनों में। हे प्रिये अधीर न अब होओ मैं नहीं करुँगा प्रतीकार तेरे इन अनुनय बचनों ने दे दिये मुझे प्राणोपहार॥ ६-१९७ ॥
कर दूर पतन मेरा तुमने पत्नी की कर दी परिभाषा था पतित हो रहा पति कैसी है अरुन्धती की मृदुभाषा। हे प्रिये आर्यनारी समुचित तुमने कर्तव्य निभाया है अनिवार्य पतन से तुमने ही निज पति को आज बचाया है॥ ६-१९८ ॥
अनुकरण करेंगी तेरा ही भारत भविष्य की ललनायें कर के होंगी कृतकृत्य तुझे शत शत अभिनन्दन छलनायें। इतिहास पृष्ठ के परिसर में तुम अमर रहोगी अरुन्धती अनुनीत भर्तृका पतिव्रता तुम कहलाओगी सदा सती॥ ६-१९९ ॥
गीत शम्भु बनकर गरल मैं तो पी लूं लोग जो मृत्यु से त्राण पायें। रात दिन दीप जैसे जलूँ मैं लोग जो तम से निर्वाण पायें ॥ मैं तो अपने को रज में मिला दूँ फूल जो खिल सकें इस गगन में। मैं तो पल भर में निज को मिटा दूँ पा सकें लोग जो सुख सपन में ॥ रह के बीरान में मैं तो जी लूँ भृंग उद्यान में गुनगुनायें। चाँद जो कष्ट से बच सके तो राहु से मैं स्वयं को ग्रसा लूँ ॥ नभ में पक्षी मुदित उड़ सकें तो जाल में मैं तो निज को फँसा लूँ। जन्म भर मौन हो मैं तो रो लूँ जो कमल सर्वदा मुस्कुराये ॥ हँस के सह लूँ मैं दारुण पिपासा प्यास चातक जो अपनी बुझाये। माथ पे ले लूँ जग की निराशा शून्य को कोई आशा बँधाए ॥ जा के एकान्त में मैं तो सो लूँ लोग जो नींद से जाग जाएँ॥ ६-२०० ॥
मालिनी अनुनय रसधारा सारसंपृक्तचेता दयित निज प्रिया को तोष संतोष दे के। मुनिवर फिर होके आसनासीन राजे विवुधवृत यथा हों सर्ग कर्ता विधाता॥ ६-२०१ ॥
॥ श्रीराघव: शन्तनोतु ॥