वर्तमान प्राकृत प्रपंच को स्वान्त वसन में मणि ज्यों मेल सलिल मध्य वट पत्र तल्पगत रहा एक श्यामल शिशु खेल। रहा व्याप दिशि-विदिश मध्य प्रालेय समत्र निविडतम तम अन्धकार या कहो ज्योति पर बाल नीलिमा का संभ्रम॥ १-१ ॥
रहा दीख निःसुप्त तिमिंगिल सागर-सा यह नील गगन नहीं प्रकट थे जहाँ इन्दु रवि नहीं भासते थे उडुगन। दुर्विभाव्य छाया समत्र था नीरवता का यह साम्राज्य अहो देवमाया का कैसा सन्नाटे में अद्भुत राज्य॥ १-२ ॥
पंचभूत तन्मात्राओं के सहित प्रकृति थी नीरव मूक मानो उससे आज हो गई कोई एक अतर्कित चूक। सकल सृष्टि निद्रित असीम गत कालात्यय करती चुपचाप फिर भी थे अविराम चल रहे स्थित सत्ता के कार्य कलाप॥ १-३ ॥
वातावरण शान्त था नीरव नहीं चल रहा था पवमान शब्दोपरत नियति करती थी उस अनन्त सत्ता का ध्यान। नहीं आज खगकुल का कलकल वियत विलसता विगत निनाद तदपि खेलता शिशु एकाकी वीचि बीच था विरत विषाद॥ १-४ ॥
एकाकी निरपेक्ष भाव से भवप्रवाह लखता चुपचाप निजानंद निस्यन्द महाह्रद मीन सदृश कृत केलि कलाप। नहीं वहाँ उपकरण खेल के न था वहाँ पर क्रीड़ास्थल फिर भी रहा केलि में तन्मय चंचल-सा बालक निश्चल॥ १-५ ॥
अति अगाध कीलाल मध्य था एक विलसता वर न्यग्रोध भवप्रवाह उपरम भी जिसका कर न सका किंचित् अवरोध। डुबा न पाया जिसको अब तक प्रलय जलधि का वीचि विलास। रहा लहरता लहरों में ज्यों वनरुह का वन मध्य पलाश॥ १-६ ॥
थी प्रलीन सब सृष्टि नहीं था किंचित् दृश्य विराट निकट अरे रहा फिर भी अक्षत शिशु बालकेलि हित अक्षय-वट। निश्चित भक्त भावनामय था यह अपूर्व वट भूतातीत रहा तैरता प्रलय जलधि में हुआ न मन में किंचित् भीत॥ १-७ ॥
उस अनन्त न्यग्रोध विटप का जल में तैर रहा इक पर्ण जिसकी भाग्य विभव गरिमा पर अहो आज भी सेर्ष्य सुपर्ण। निखिल लोक जड जंगम जिसमें चिरनिद्रित थे यथावकाश उसी ब्रह्म शिशु का आश्रय था बना अहो वट विटप पलाश॥ १-८ ॥
नील नीर ऊपर नीरज-सा अविरत पर्ण रहा था तैर मनो नील अंचल माया का जल में केलि रहा कर स्वैर। पूर्व कल्प कौसल्या का क्या दलीभूत यह नीलांचल नहीं मग्न कर पाया जिसको प्रलय वारिनिधि का भी जल॥ १-९ ॥
अकस्मात लख उसे समागत हो उस पर राघव आसीन निज जननी की पूर्व स्मृति वश हुए बालक्रीड़ा में लीन। उसी श्याम अभिराम पत्र पर लेट चरण को कर उत्तान पदांगुष्ठ का मुख सरोज में मेल कर रहे सुख से पान॥ १-१० ॥
निर्भर प्रेम प्रमोद मग्न शिशु पद का रहा अंगूठा चूस पाटल पुष्प पयोज चषक से शशि को सौंप रहे पीयूष। वीतराग मुनि योगिवृन्द सब त्याग गेह ममता मद काम किस रस हित मम चरण कमल का स्मरण कर रहे आठों याम॥ १-११ ॥
निश्चित इस अंगूठे में लसता कोई एक अनूठा स्वाद जिससे प्रकट जाह्नवी भरती सकल विश्व में परमाह्लाद। मैं भी उसी अपूर्व स्वाद का क्रीडा मिस कर लूँ अनुभव अतः लगे पीने पदरुह को कौतूहल वश करुणार्णव॥ १-१२ ॥
मुख-सरोज में कर-सरोज श्रित अधिक विलसता चरण-सरोज इन्द्रनील सम्पुट निलीन ज्यों प्रगुण त्रिगुणमय तीन पयोज। लेटे परम प्रसन्न पत्र पुट मध्य राजते बाल मुकुन्द मरकत सम्पुट कलित कंज कल कोष मध्य मनो ललित मिलिन्द॥ १-१३ ॥
निखिल लोक लावण्य धाम अभिराम जलद-सा श्यामल तन जिस पर दमक रहा दामिनी-सा झिलमिल-झिलमिल पीत वसन। दिव्य योगमाया अम्बर-से कर ऐश्वर्य समावृत आप साक्षि रूप में देख रहे थे चुपके-चुपके प्रकृति कलाप॥ १-१४ ॥
मदन महित मधुकर करम्ब-से रुचिर चिकुर कुंचित मेचक अनायास सोल्लास लटक थे रहे कंज आनन को ढक। अमृत पान का लोभ नीरधर कर न सके किंचित् संवृत तुरत निरीह निशाकर मंडल किया उन्होंने ज्यों आवृत।॥ १-१५ ॥
सकल लोक कर भ्रूविलास था समुल्लसित दृग में अंजन जिसे विलोक लजाते थे मृग मनसिज सरसिज शिशु खंजन। आयत भाल मनोज चाप-सा मुनि मन हरता ललित तिलक श्रुति कुंडल छूते कपोल को जिन्हें चूमते कुटिल अलक॥ १-१६ ॥
जगत सृष्टि कारक अचेष्ट ईश्वर के उद्बोधन के हेतु बंदी बन आये युग महिसुत युगल वृहस्पति बहुशः केतु। निखिल वेद वाङ्मय निधान था कल-कल किलकिल मधुर बचन जिस अपूर्व अव्यक्त निलय-से हुआ समीरित सकल सृजन॥ १-१७ ॥
निराकर साकार सृष्टि का हुआ जहाँ से परिणोदन स्मित सरोज-सा विकस रहा था शिशु मुकुन्द का इन्दु वदन। त्रिशिख तिग्म ज्वाला वलीढ सम्भूत जहाँ से हुआ अनल जिह्वा मंजुल पद्म कोष-सी जहाँ प्रकट जन जीवन जल॥ १-१८ ॥
अरुण अधर सौरभ प्रवाल-सा संकट शमनि मन्द मुस्कान आनन अमल अनल्प कल्प कल्पना तल्प माधुर्य निधान। मांसल अंस कलभ कर सुन्दर लघु-लघु ललित ललित सुकुमार शिरिष मृदुल कररुह सुस्मृति से विगलित होता भव भय भार॥ १-१९ ॥
बाल विभूषण वसन अंग प्रति लसते थे जैसे सौदर्य पाया किन्तु इन्होंने ही उस शिशु के तनु से ही सौन्दर्य। सकल रूप सौभग-निधान में अब सुषमा सरसाता कौन पूर्णकाम अभिराम राम को अब अभिराम बनाता कौन॥ १-२० ॥
श्री राघव के अंग संग हित पट भूषण मिस सुर-मुनि-वृन्द तपः पूत भूषित होते हैं छूकर श्यामल अंग अमन्द। कोटि-कोटि कन्दर्प-दर्प-हर अनुपम यह श्यामल शिशु रूप ध्यान मात्र से सदा भग्न करता भावुक जन का भवकूप॥ १-२१ ॥
इस निरीह लीलारत शिशु ने किया भूरिशः कालात्यय फिर निहाल चकपकी दृष्टि से सुभग सृष्टि का विषम प्रलय। तमस्तोम चतुरस्र व्याप्त था नहीं पक्षिकुल का कलरव नहीं गूंजते थे मिलिन्द-गण शान्त सृष्टि निद्रित नीरव॥ १-२२ ॥
सोचा शिशु ने खेल-खेल में बीत गये बहुशः वासर एकाकी आनन्द मग्न मैंने खोया स्वर्णिम अवसर। वीतराग निष्क्रिय योगी-सा बना रहूँ कब तक नीरस करूँ प्रलय का पटाक्षेप अब विरचूँ नूतन सर्ग सरस॥ १-२३ ॥
अधिष्ठान निष्कल निरीह में लेकर प्राकृत आलम्बन नया बसाऊँ भवन कल्प में करूँ मधुर नूतन सर्जन। गुणातीत स्वीकार गुणों को रचूँ त्रिविध धर्मों से सृष्टि मानव दानव देव जहाँ से पायें निज भावोचित दृष्टि॥ १-२४ ॥
जिसमें मानवता सत्कृत हो दानवता हो नित अभिभूत हो देवत्व तटस्थ जहाँ मैं होऊँ बहुशः आविर्भूत। जिस पावन धरणी प्राची में समुदित हो रवि भारतवर्ष याज्ञिक धूमकेतु से पावित सत्य सनातन धर्मोत्कर्ष॥ १-२५ ॥
भूमि पद्मिनी मृदु पराग-सा जहाँ अवध का आविर्भाव बन मिलिन्द शिशु राम वहाँ मैं रमूँ बढ़ाकर शत गुण चाव। चित्रकूट पावन शिलास्थली निज कर कर सीता शृंगार दलूँ दर्प सुरराज तनय का हरूँ सभी का संकट भार॥ १-२६ ॥
जहाँ पुण्य पुष्कल पुष्कर में हो प्रारंभ द्रुहिण का याग जहाँ त्रिवेणी संगम मण्डित विलसे तीरथराज प्रयाग। जहाँ आर्य ललना प्राणों से प्रियतम हों मानती चरित्र मानस मधुर गान से संतत जहाँ नारि नर रहें पवित्र॥ १-२७ ॥
मीरा के कलकण्ठ गान से जहाँ रसित हो राजस्थान जहाँ सूर का श्याम रमा हो गिरिधर छेड़ें मुरली तान। जहाँ धर्म रक्षण हित रण में करें वीर वर देहोत्सर्ग जहाँ सती हों पतिव्रतायें पायें अमल अचल अपवर्ग॥ १-२८ ॥
वृन्दा विपिन जहाँ हो सुन्दर करूँ जहाँ मैं वंशी नाद गीता कुरुक्षेत्र में गाकर दूँ मैं भक्ति शान्ति संवाद। काशी पुष्कर आदि तीर्थ में जहाँ भक्ति शाश्वत सिद्धान्त जहाँ सारिकायें करती हों प्रस्तुत मीमांसा वेदान्त॥ १-२९ ॥
गंगा-यमुन तरंग समर्चित जहाँ आर्तिहर आर्यावर्त जिसके सेवन से मिट जाये प्राणिमात्र का पुनरावर्त। जहाँ भारती की वीणा से राम नाम का हो झंकार जहाँ रमूँ मैं रोम रोम में बन दशरथ का राजकुमार॥ १-३० ॥
कौशल्या-सी जननि जहाँ हो भ्राता भरत सरिस धृत धर्म लक्ष्मण-सा व्रतनिष्ठ अनुज रिपुसूदन-सा कनिष्ठ कृत कर्म। जहाँ पादुका ही शासक हो मनुज बने उसका परिकर जहाँ भालु कपि ही मन्त्री हों जहाँ स्वयं शिव हो किंकर॥ १-३१ ॥
पिता बचन पालन रत प्रिय सुत जहाँ राज्य का करता त्याग सीमन्तिनी जहाँ पति पद रत लेती उत्कट योग विराग। सीता चरण सरोज रेणु से होवें जहाँ हुताशन शुद्ध अन्योन्याश्रित निर्विकार दृढ़ जहाँ बने दाम्पत्य विशुद्ध॥ १-३२ ॥
जिस वसुन्धरा गत जन-जन के रोम-रोम में रमता राम जहाँ सुनाता सदा त्रिभंगी बंशी कलरव सुन्दर श्याम। सुसंस्कार युत जहाँ नारि-नर हो वैदिक भाषा संस्कृत तुलसी दल-सा जहाँ समर्चित श्रीमन्मानस तुलसी-कृत॥ १-३३ ॥
इस प्रकार कर मधुर कल्पना की प्रभु ने सांकल्पिक सृष्टि किया प्रथम उत्पन्न विष्णु को सत्त्व समन्वित कर निज दृष्टि। शंख गदा चक्राब्ज युक्त करि कर सम सुदृढ़ चतुर्भुज दण्ड श्याम ताम रस देह पीत पट तेज पुंज निन्दित मार्त्तण्ड॥ १-३४ ॥
उस असीम सत्ता में शिशु के प्रणत हुए चरणों में विष्णु पा उससे प्रेरणा बन सके ब्रह्म जनन में वे प्रभविष्णु। शिशु की काल शक्ति से प्रेरित नाभि कंज से रमानिवास प्रकट किये तत्क्षण विरंचि को कर निज माया रजो विलास॥ १-३५ ॥
अरुण वारिधर सदृश रक्त तनु वेद गर्भ अब हुए प्रकट देखा एक भुजंग भोग पर अर्धसुप्त प्रभविष्णु निकट। चकित देखने लगे चतुर्दिक प्रकट हुए तब चतुरानन हो आदिष्ट किये दारुण तप प्रजा सर्ग हित साधक बन॥ १-३६ ॥
उस अज्ञात प्रेरणा से की फिर समस्त संसृत की सृष्टि द्वन्द्व धर्म संसृष्टि विधा की मिली न फिर भी उनको दृष्टि। जगत सूत्रधर ने विरचा मन से सनकादिक चतुर कुमार उन्हें ऊर्ध्वरेतस्क देख फिर किया रुद्र का आविष्कार॥ १-३७ ॥
उनकी पापायसी सृष्टि लख तप हित दे शिव को आदेश किंकर्तव्यविमूढ़ विधाता हरि स्मरण में किये प्रवेश। ब्रह्मा ने निज दिव्य ज्ञान से प्रादुर्भूत किये दश पुत्र जिनसे मिला उन्हें मंगलमय प्रजासर्ग का नूतन सूत्र।॥ १-३८ ॥
भृगु मरीचि अंगिरा पुलह क्रतु श्री नारद पुलस्त्य वर्षिष्ठ अत्रि दक्ष गुण ज्ञान विलक्षण शास्त्र विचक्षण देव वशिष्ठ। महाप्राण उस महापुरुष को द्रुहिण प्राण से किये प्रकट ब्रह्मचर्य मण्डित शरीर दृढ़ तीव्र तेज साहस उत्कट॥ १-३९ ॥
असित केश कुंचित सिर ऊपर तिलक विभूषित आयत भाल नासा कर्ण कपोल कम्र नव कंज विलोचन थे कुछ लाल। अरुणापांग युग्म थे करते पावन स्नेह सुधा की वृष्टि भ्रूविलास सोल्लास कर रहा ब्रह्मचर्य जीवन की सृष्टि॥ १-४० ॥
जातमात्र ऋषिवर्य वदन विधु विजृम्भणा भव सुरभित वात अचरों में भी स्पर्श व्याज से लाता था चेतना प्रभात। आज गिरा ऐन्द्री सुअंक में रहा तरुण वैदिक रवि क्रीड़ आज ज्ञान खग से सनाथ था ब्रह्मदेव हृदयान्तर नीड़॥ १-४१ ॥
आज वसुमती हुई कृतार्था प्रकट देख अद्भुत द्विजरत्न ब्रह्मा का अब सफल हो गया प्रजा सर्ग का कल्पित यत्न। सहज भव्य उपवीत विप्रवर शम-दम संयम बोध वरिष्ठ ब्रह्मचर्य विग्रह कृत निग्रह गुण संग्रह थे वशी वशिष्ठ॥ १-४२ ॥
तरुण तेज तर्पित तमिस्र हर ऋषि सरसिज हित नव दिवसेश सहज सौम्यता महित मंजुतम आनन पार्वण पूर्ण निशेश। दिव्य निकेत अथर्व वेद के शान्ति क्षमा के एक निलय सभी विरुद्ध महद्गुण उनमें रहे मनोकृत सहज प्रणय॥ १-४३ ॥
एक ओर था सदा विलसता ब्राह्मतेज मण्डित ऐश्वर्य थिरक रहा अपरत्र वहीं था अंग अंग में मृदु सौन्दर्य। एक ओर प्रतिभा विराजती पुनः वहीं राजती क्षमा एक ओर थी कठिन तपस्या पुनः वहीं छवि मनोरमा॥ १-४४ ॥
कुशा कमण्डलु समिध मूल फल वल्कल पट भूषण एकत्र यौवन तनु सुषमा सुकान्ति ललनाकर्षक मार्दव अपरत्र। उर्ध्व पुण्ड रेखा मुद्रा थी जहाँ लस रही तुलसी माल वहीं कण्ठ कण्ठी कण्ठीरव सम्मित द्विज वर्चस्व विशाल॥ १-४५ ॥
ब्रह्मदण्ड मण्डित प्रचण्ड तम करिकर सदृश सुभग भुज दण्ड जिससे हुआ पराजित क्षण में कौशिक-सा शासक उद्दण्ड। अक्षमाल तुलसी माला के पड़े उंगलियों में थे किण चलता उनका अजपाजप-सा राम नाम का जप अनुक्षण॥ १-४६ ॥
ब्रह्मचर्य विग्रह घर आया क्या ब्रह्मा के स्वयं समक्ष अथवा कल्पित प्रजा सर्ग का लक्ष हुआ उनको प्रत्यक्ष अथवा प्रस्तुत हुआ पुत्र बन मूर्त रूप मञ्जुल वात्सल्य अथवा था साकार आज विधि का ही स्वर्ण स्वप्न निःशल्य॥ १-४७ ॥
प्रकटा आज ब्रह्म प्राणों से वेद मंत्र का पुण्य प्रयोग हुआ स्पष्ट शतपथ ब्राह्मण का क्रिया विकल्पित विधि विनियोग। जला भद्र भारत संस्कृति का ब्रह्म ज्योति दीधितिमय दीप अष्टम वसु-सा वसुन्धरा पर उदित आठवाँ विप्र महीप॥ १-४८ ॥
अष्ट भोग से उपरत था वह अष्ट प्रकृति का था शासक अष्ट याम श्रुति ब्रह्म निरत अष्टांग योग का अनुशासक। अष्ट चिकित्सा अष्ट शास्रविद् अष्ट मूर्ति का अनुज प्रबल अष्ट सिद्धि दाता महाव्रती अष्ट दोष विरहित महिसुर॥ १-४९ ॥
पूर्णकाम अभिराम गौर तनु सकल वेदविद् विदित विशिष्ट किया योग वाशिष्ट कुतुक में जिसने प्रभु को भी अनुशिष्ट। रौरव नरक यातना नाशक धृत मृगचर्म दिव्य रौरव जिसे प्राप्त होगा सुभाग वश रामभद्र गुरु का गौरव॥ १-५० ॥
दिव्य ब्रह्म वर्चस्व सभाजित द्विजवर का था रूप विशुद्ध जिसकी रूप रश्मि से विलसा अरुन्धती का मन भी रुद्ध। जिस द्विज की अप्रतिम माधुरी माध्वी सुधा का करके पान अरुन्धती भी रोक न पाई मञ्जुल मन मिलिन्द का गान॥ १-५१ ॥
जिस द्विजमणि को किया समावृत ऋषि कन्या का वसनाञ्चल जिसका बना निभालक सन्तत अरुन्धती का नयनाञ्चल। जिसने किया समन्वित युगपद सावधान हो योग-वियोग जिसने सिखलाया भूतल को शुद्ध प्रेम का पुण्य प्रयोग॥ १-५२ ॥
जिसके कर में सदा बिराजी अग्निहोत्र की सुभग स्रुवा नहीं स्वप्न में भी जिसने कुसंग भोग का गरल छुवा। जिसकी कुटिया को अभिरंजित करता था हुतवह का धूम जिसने पिया राम शोभा रस निर्निमेष नयनों से झूम॥ १-५३ ॥
जिसकी सत्ता से कृतार्थ द्विजकुल भूषण सरयूपारीण जो विसंग दुःसंग विरत श्रुति वेद शास्त्र पारावारीण। जिसके पदपद्मों में करता पूर्णब्रह्म भी नित्य प्रणाम किसको नहीं विमल कर देगी उसकी यह गाथा अभिराम।॥ १-५४ ॥
ब्रह्मदेव ने छाया से की ऋषि कर्दम की फिर उत्पत्ति फिर भी नहीं मिटा पाये वे प्रजा सर्ग दारुण आपत्ति। गये सूख झट चतुर्मुखाम्बुज उमड़ा सिन्धु सरिस संकोच अंस चतुष्टय ने सहसा ही पाई असफलता से लोच॥ १-५५ ॥
निष्फल हुआ हाय श्रम सारा नहीं हुए सपने साकार ढहा मञ्जु अभिलाषाओं का निमिष-मात्र में यह प्राकार। नेत्र निमीलित अवनत कन्धर छाया वदनों पर औदास्य मनो निराशा सिन्धु मग्न था आज कलित विग्रह नैराश्य॥ १-५६ ॥
मग्न हो गया पल भर में यह विधि का सृष्टि कर्ण चातुर्य व्यापा सहसा चतुर्मुखों पर मिथुन सर्ग चिन्तन आतुर्य। तत्क्षण उनके दक्ष भाग से हुआ एक नर प्रादुर्भूत वाम भाग से हुई एक विनता वनिता सहसा संभूत॥ १-५७ ॥
मिथुन सृष्टि के आदि प्रवर्तक जिन्हें आज कहते हैं लोग किया जिन्होंने सुर से नर का विमल स्वर्ण सौरभ संयोग। आज आर्य संस्कृति जीवित है पाकर जिनका उद्बोधन मनुष्यता भी श्वास ले रही पढ़कर जिनका सम्बोधन॥ १-५८।
जिनकी सुस्मृति सदा कराती कर्म मार्ग का शुभ-स्मरण जिनके बल पर प्राकृत नर भी करता पावन स्वीय मरण। अहो मनुस्मृति सदा जननि-सी देती सुभग शान्ति-संकेत विमल दीपिका-सी ज्योतिर्मय करती संस्कृत हृदय-निकेत॥ १-५९ ॥
जिसका स्तन्यपान कर शिशु-सा जीवित सत्य सनातन धर्म भारतवर्ष अजेय आज भी जिसका पहन कृपा का वर्म। देख अलौकिक नर दम्पति को विधि मन में उमड़ा उत्साह फूट पड़ा आठों नयनों से प्रेम वारि का विमल प्रवाह॥ १-६० ॥
महि को उद्धृत कर सुयोग से ले प्रचण्ड शूकरावतार दिया वास पृथ्वी पर मनु को हरि ने हिरण्याक्ष को मार। शतरूपा सह गृही हुए मनु स्वायंभुव अब निरत विहार जिनसे हुआ समस्त सृष्टि का मिथुन धर्म सह कृत विस्तार॥ १-६१ ॥
उनकी मध्यम सुता गुणवती देवहूति वर नारि ललाम सह-धर्मिणी हुई कर्दम की तोषित-पतिका सती अकाम। नव निधि-सी नव कन्याओं का हुआ उन्हीं से प्रादुर्भाव जिनसे हुआ सनाथित ऋषिकुल विस्तृत विमल धर्म सद्भाव॥ १-६२ ॥
कला हविर्भू अनसूया गति क्रिया ख्याति श्रद्धा और शान्ति निखिल नारि वन्दित पदाम्बुजा अरुन्धती धृत समता क्षान्ति। वह निसर्ग सुन्दर सुभामिनी चारु चन्द्रमुख कुन्द-दती मूर्ति बनी श्रद्धा सुभक्ति की अरुन्धती-सी अरुन्धती॥ १-६३ ॥
अनासक्ति के साथ अंग प्रति उमड़ रहा था नव-यौवन कहो तपस्या ही आई थी देवहूति ढिग वनिता बन। शशि की अष्टम कला सरी-सी देवहूति दुहिता अष्टम मन्मथ भी लख मोह रहा था छोड़ चाप सायक पंचम॥ १-६४ ॥
आनन पर झलकती सौम्यता भारत संस्कृति की आभा सुषमा का अनन्त कपोल पर मचल रही थी मञ्जु विभा। कुन्तल असित उरंग वृन्द-से पृष्ट पार्श्व पर रहे लटक मनो मत्त मधुकर रस निर्भर कनक बेलि पर रहे भटक॥ १-६५ ॥
आर्य कन्यका का शित अञ्चल झलक रहा झिलमिल-झिलमिल मानो शुक्र केतु से वार्ता करते मित्र भाव से मिल। स्नेहिल नयन युगल भामिनी के अञ्चल श्वेत रहा कुछ ढाँक अर्ध-चन्द्र घन सहित रहा ज्यों शरद पूर्ण पार्वण-विधु झाँक॥ १-६६ ॥
चूम रहे समरुण कपोल को श्रुति गत कर्णिकार के फूल मनो चन्द्र-मण्डल हिलोल पर मनसिज मीन रहे युग झूल। करि-चंचु सम्मित नासा थी भौंहों का अति शान्त विलास मुख शशांक पर थिरक रहा था बाल-सुलभ शुचि मञ्जुल हास॥ १-६७ ॥
चिबुक चारु आयत ललाट पर लसता गैरिक अरुण तिलक बीच-बीच में स्वेद बिन्दु थे श्वेत कुसुम-से रहे झलक। विधि ने अपनी सृष्टि चातुरी कर दी इसमें ही प्रस्तुत इसीलिए वे कलाकार के लिये हुए सन्तत संस्तुत॥ १-६८ ॥
भुजगराज भामिनी भोग से सुभग पाणि पल्लव मृदुतर श्रम से तनिक अरुण दिखते थे करतल उसके सुषमा कर। परम प्रेम पूरित उरोज युग कलश सुदृश्य लसते उर मध्य मनो हेमगिरि की उपत्यका मध्य विलसते हिमगिरि विन्ध्य॥ १-६९ ॥
रूप माधुरी सारभूत तनु पद में मुखर मञ्जु मञ्जीर कम्र-कोकनद-कोष मध्य कलरव करते ज्यों कीर अधीर। विबुध बन्द्य ललना स्वरूप में आया मनो स्वयं सौन्दर्य अथवा लेने ऋषि प्रसाद छाया वन में मञ्जुल माधुर्य॥ १-७० ॥
चेष्ठा वचन नयन से करती मृग पिक खञ्जन को शिक्षित मन्द मन्द चालों से करती द्विरद कामिनी को दीक्षित। हंसिनि की भी हँसी उड़ाती चलकर सहस छबीली चाल अरुन्धती वन विहग वृन्द को रही आर्य-संस्कृति में ढाल॥ १-७१ ॥
वषट्कार ओंकार आदि सुनती ऋषि मुख से वह सानन्द धर्म-शास्त्र चर्चा समर्चिका वनिता का उत्साह अमन्द। मृग शिशुओं को भी सिखलाती वह थी धर्म-शास्त्र सर्वस्व क्रीड़ा में भी स्पष्ट दिखाती आर्य-नारियों का वर्चस्व॥ १-७२ ॥
रवि शिशु ने भी नहीं विलोका विवृत देवी का कोई अंग सौम्य विमल विधु मुख पर लसती ब्रह्मचर्य की तरल तरंग। उद्धत सरि-सी तरुण तरुणता उसके धैर्य-सिन्धु में मग्न सदा कमल पर शैवल दल-सा मुख पर रहता अञ्चल लग्न॥ १-७३ ॥
सीमन्तिनी शिरोमणि सुन्दरी कर्दम कन्या नारि ललाम सुख-से कर व्यतीत शैशव को रूढ़ यौवना हुई अकाम। शिशिर गया लतिका निकुञ्ज में अब आया मधुमय मधु-मास उमग पड़ा कल्लोल लोल-सा देवि अंग सौन्दर्य विलास॥ १-७४ ॥
देवहूति सर में कर्दम से प्रकट हुआ अब कपिल-कमल बिखरी दिग्दिगन्त में जिसकी मंगल परिणति सुभग अमल। नभ में बजते वाद्य विविध विध नन्दन मञ्जु प्रसून बरस जय सिद्धेश कपिल जय जय जय कहते थे सुर हरष हरष॥ १-७५ ॥
कर्दम ने कन्यायें सौंपी ऋषियों को पा विधि आदेश अरुन्धती अर्पी वशिष्ठ को कर दाम्पत्य मधुर उपदेश। जुड़ा मधुर संयोग दिव्यतम परिणति को पहुँचा दाम्पत्य खिला प्रणय रस सरस तामरस लखकर दयित तरुण आदित्य॥ १-७६ ॥
द्वैत हुआ अद्वैत रूप अब फिर अद्वैत हो गया द्वैत दयिता दयित कल्पना भू पर प्रस्तुत हुआ प्रणयमय त्रैत। पूर्णकाम परिपूर्ण अब हुए निखिल वेद वारीश वशिष्ठ पूजित सप्त महर्षि-मध्य अब अरुन्धती गुण विभव गरिष्ठ॥ १-७७ ॥
परम प्रेम परिणति की सेवधि पातिव्रत की वह आदर्श कर्दम कुल की कीर्ति पताका थी वसिष्ठ कुल की उत्कर्ष। मूर्तिमती साधन सहिष्णुता परम तपस्या की वह प्राण भावुकता प्रति मूर्ति सरलता लता तितिक्षा का निर्माण॥ १-७८ ॥
देवहूति की अचल धरोहर आर्ष सभ्यता की वह मूल प्रतिमा थी पावन सतीत्व की उन्मूलित भ्रम संशय शूल। कण्टक गत पाटल कलिका-सी कानन में रहती सानन्द मुनि वसिष्ठ की मोद वाटिका मालिनी-सी आमोद अमन्द॥ १-७९ ॥
साधन गिरिधर गुरु वसिष्ठ की मनो व्योम द्विज राज किरण रही पूजती प्रमुदित मन से पति के सुर-मुनि पूज्य चरण। हुई मान्य सप्तर्षि मध्य वह करवर बोध सुधा सुख वृष्टि अरुन्धती अनिरुद्ध हो गई हुई कृतार्था विधि की सृष्टि॥ १-८० ॥
॥ श्रीराघवः शन्तनोतु ॥