वंशस्थ उपजाति प्रमोद पीयूष रस प्रवाह से थी प्लाविता उत्तर कोसला पुरी। श्रीराम सीता नव दिव्य दम्पती थे राजते मंगल रूप से जहाँ॥ १५-१ ॥
इन्द्रवंशा थी माण्डवी श्री भरतान्विता सती श्री उर्मिला लक्ष्मण भव्य वल्लभा। शत्रुघ्न कान्ता श्रुतिकीर्ति शोभना सीता पदाम्भोज रता सभी हुईं॥ १५-२ ॥
सुयज्ञ पत्नी सिय की सखी बनी पतिव्रता ब्राह्मणदारसम्मता। परस्पराचार विचार साम्य से प्रवर्धिता प्रेम लता मनोहरा॥ १५-३ ॥
अनन्त ऐश्वर्य समस्त सिद्धियाँ माणिक्य मुक्तामय रत्न सम्पदा। यथा त्रिवेणी सब कोशलाब्धि में प्रवेग से जा करके मिलीं मुदा॥ १५-४ ॥
श्री जानकी जीवन चारु चन्द्रमा माध्वी सुधा शीतल रश्मि राशि के। रसज्ञ राजा दशपूर्वस्यन्दन प्रेमैकवारीश बढ़ा तरंग से॥ १५-५ ॥
द्रुतविलम्बित अब महीपति की यह मंत्रणा सचिव पौर वशिष्ठ सुसम्मता। दृढ़ हुई युवराज बने अभी जनकजापति कोसल राज्य के॥ १५-६ ॥
यह उदन्त समाश्रित वेग से सकल कोसल के प्रति गेह में। अति अनूपम आनँद सिन्धु में उमड़ता सुतरङ्ग यथा मुदा॥ १५-७ ॥
यह उपस्थित आनँद आपगा निखिल कोसलवासि प्रमोदिनी। विबुध प्रेरित मन्थर मंथरा समवरुद्ध हुई कुछ मंथरा॥ १५-८ ॥
सह सकी न रघूत्तम हर्ष को कुटिल कैकयराज सुतार्चिनी। कपट बागुर में सहसा फँसा अहह हन्त हती महिषी महा॥ १५-९ ॥
कुटिल के इस दुःसह संग से भरत की जननी अति दूषिता। भवन में गमनी अब कोप के दशरथात्म बिनाशन हेतु थी॥ १५-१० ॥
तिलक वृत्त निवेदन कौतुकी नृप गये जब कैकयिधाम में। निरख कोपगृहावनि में उसे नृप हुए विमना अति खिन्न थे॥ १५-११ ॥
मन्दाक्रान्ता क्रोधाक्रान्ता मलिनवसना भग्नसिन्दूरचर्चा श्वासोच्छवासोच्चलित दशनच्छादना क्षिप्तचिता। क्रूरा शिष्या कुटिलहृदया दीक्षिता मंथरा से कैकेयी भी दशरथगजाभ्यर्दिनी सिंहिनी सी॥ १५-१२ ॥
वंशस्थ निहार के व्याकुल थे महीप यों निहार लेखार्दित चन्द्रबिम्ब ज्यों। पुनः पुनः कारण पूछने लगे स्वरोष के कैकयराजपुत्रि से॥ १५-१३ ॥
न जान पाये नृप साधु चित्त के कुभामिनी कल्पित घोर यन्त्रणा। वरद्वयाभ्यर्थन वज्रपात से गिरा दिया हा नृप ताल वृक्ष को॥ १५-१४ ॥
वंशस्थ उपजाति श्री राम को चौदह वर्ष का दिया महावनों में वनवास भामिनी। स्वराज्य में भी भरताभिषेक की अभ्यर्थना की नृपराज राज से॥ १५-१५ ॥
वंशस्थ बँधे हुए थे नृप सत्य पाश से स्वपुत्र के भी सपथ प्रमाण से। इसीलिए उत्तर दे सके नहीं सदाग्रही भामिनी का महाव्रती॥ १५-१६ ॥
सुमंत्र सम्प्राप्ति राम को सुना स्वराजधानी भरताभिषेक को। द्विसप्तवर्षी वनवास राम का प्रमोद मग्ना अति कैकयी हुयी॥ १५-१७ ॥
लिया अनुज्ञा भरत प्रसूति से किया पिता को शिरसा प्रणाम भी। विसृष्ट साम्राज्य महाव्रती चले रही जहाँ कोसल राज्य कन्यका॥ १५-१८ ॥
मालिनी सकल पुरजनों में ये समाचार फैला जन हृदय विदारी तैल धारा यथा हो। नव नलिन दृगों से अश्रुधारा बहा के सब पुर नर नारी फूट के रो रहे थे॥ १५-१९ ॥
इन्द्रवज्रा ज्येष्ठानियाँ ब्राह्मण पत्नियाँ भी आ कैकेयी को समझा रहीं थीं। हा हा किया क्या नृपभामिनी ने पाथोज पे बज्र निपात घोरा॥ १५-२० ॥
द्रुतविलम्बित नयन नीर सँभाल अरुन्धती पवन कम्पित कन्दलिका यथा। परम बार्धक श्वेत शिरोरुहा करुण गद्गद हो कहने लगी॥ १५-२१ ॥
भरत की जननी गुण मंडिता परम रूपवती रण पंडिता। दशरथोत्सव कारिणी भामिनी तुम रही अब लौं शुचि कैकयी॥ १५-२२ ॥
कलुष मानस मोहित मंथरा अपहरी तव बुद्धि विवेक भी। इसलिए यह आज अनर्थ हा समुपक्रान्त हुआ अवधेश का॥ १५-२३ ॥
अवध राज शनैश्चर की दशा यह बनी अति पापिनि मंथरा। अवधि वर्ष चतुर्दश में अहो विषम है विधि का परिपाक भी॥ १५-२४ ॥
भरत प्रेष्ठ नहीं रघुचन्द्र ज्यों यह सदा कहती तुम भामिनी। अब विपर्यय क्यों यह हो गया कुशल कोसल पै पविपात सा॥ १५-२५ ॥
उपजाति सीता तजेंगी पति संग कैसे सौमित्र कैसे घर में रहेंगे। राजा बनेंगे भरतार्य कैसे बिना प्रभु के नृप क्या जियेंगे ॥ १५-२६ ॥
शिखरिणी बना लो राजा भी अवध नगरी का भरत को जिला लो भर्ता को रघुतिलक को रोक वन से। सँभालो कैकेयी दुख दहन से राजकुल को मिटा लो हे रानी रघुकुल कलंकालि पल में॥ १५-२७ ॥
बनाया राजा भी अवधपुर का जो भरत को निकाला क्यों तूने रघुतिलक को राजगृह से। बताओ कैकेयी कुमति यह कैसी हृदय में बसी तेरे हा हा कठिनहृदया राजमहिषी॥ १५-२८ ॥
द्रुतविलम्बित भरत को युवराज बना सती सफल तू कर ले निज यंत्रणा। पर न राघव को वनवास दे अवध जीवन जीवन राम हैं॥ १५-२९ ॥
यदि निवास नहीं रघुनाथ का भवन में तुमको समभीष्ट है। प्रभु रहें गुरु गेह यथा पुरा वर द्वितीय यही नृप से वरो॥ १५-३० ॥
हम अकिंचन ब्राह्मण वृत्ति से रख रघूत्तम को स्वकुटीर में। तनय ज्यों करके प्रति लालना सुख चतुर्दश वर्ष लहें शुभे॥ १५-३१ ॥
उपजाति लोभी नहीं राघव राज्य के हैं रूखे सदा वे विषया रसों से उन्हें भला क्यों वनवास देती कलंक कालुष्य वृथैव लेती॥ १५-३२ ॥
उठो-उठो आग्रह देवि छोड़ो विषाद धारा कर यत्न मोड़ो। जाते हुए राघव को निबारो जीते हुए भूपति को निहारो॥ १५-३३ ॥
द्रुतविलम्बित पर न एक सुनी कुल पांसनी गुरु वधू कथिता वचनावली। परम क्रोध वशा सिर को झुका रह गयी चिरकाल निरुत्तरा॥ १५-३४ ॥
विफल देख प्रयत्न अरुन्धती नयन नीरज नीर न रुन्धती। अति रुषा शिर पीट चली गयी हृदय में उमड़ी करुणा नयी॥ १५-३५ ॥
शिखरिणी विदा ले कौसल्या चरण रज को शीश धर के विनीता श्री सीता प्रिय सहचरी को सँग लिया। पिता की आज्ञा से अवध सुख साम्राज्य तज के अरण्यानी यात्रा करण हित थे राघव सुखी॥ १५-३६ ॥
वंशस्थ सुयज्ञ के आलय भेज बन्धु को उन्हें बुलाया प्रिय मित्र भाव से। सुरत्न शैय्या धन दान के लिए वियोग संताप निदान के लिए॥ १५-३७ ॥
आके विलोका प्रभु को सुयज्ञ ने देते हुए दान महार्घ्य वस्तु का हा राम हा राघव हा रघूत्तम पुकार यूँ व्याकुल भूमि पे गिरे॥ १५-३८ ॥
उपेन्द्रवज्रा सुयज्ञ को राघव ने उठाया गले लगाया करुणार्द्र होके। दिया उन्हें भूषण रत्न माला महार्घ्य शैय्या जनकात्मजा ने॥ १५-३९ ॥
उपजाति संकेत पाके महिनन्दिनी का सुयज्ञ से सस्मित राम बोले। हे मित्र कर्त्तव्य घड़ी यही है आश्वस्त होओ अब शोक खोओ॥ १५-४० ॥
सीता सखी हैं गृहिणी तुम्हारी पतिव्रता भक्तिरता सुशीला। अतः उन्हें मैथिल राजकन्या महार्घ्य भूषा पट दे रही हैं॥ १५-४१ ॥
पर्यङ्क केयूर सुहार माला माणिक्य मुक्ता वर रत्न शोभा। सीता सखी को सब दे रहीं हैं विदेह से जो इनको मिले थे॥ १५-४२ ॥
द्रुतविलम्बित सुन सुयज्ञ समाकुल हो गये विरह भीम दवानल दग्ध हो। गिर पड़े अविलम्ब अचेत वे लुलित पादप ज्यों खरपात से॥ १५-४३ ॥
फिर उठा द्विज को रघुनाथ ने विविध भाँति दिया परिसान्त्वना सजल नीरज नेत्र विनीतवत् प्रिय सखा कह यों कहने लगे॥ १५-४४ ॥
गीत जाओ जाओ सखे स्वस्थ हो धाम में। स्वप्न में राम को भूल जाना नहीं। वर्ष चौदह बिता आ रहा हूँ अवध। वाक्य अभिराम यह भूल जाना नहीं॥ १५-४५-१ ॥ मेरी माता अरुन्धति विरह में विकल। उनको धीरज बँधाना सदा तात तुम। पूज्य आचार्य को कहना मेरा नमन। मित्र अभिराम यह भूल जाना नहीं॥ १५-४५-२ ॥ मेरे माता पिता बन्धु भरतादि को। सीख देते ही रहना यथा काल तुम। मैं न क्षण भर सखे दूर तुमसे अहो। चित्त विश्राम यह भूल जाना नहीं ॥ १५-४५-३ ॥
समझाया सुयज्ञ को प्रभु ने इस प्रकार धीरज देकर जननि जनक पद वंदन करके चले विपिन आनन्द सुघर। नहीं मलिन प्रभु विधु आनन था नहीं राज्य का किंचित् लोभ राम सच्चिदानन्द ब्रह्म हैं उन्हें सताये कैसे क्षोभ॥ १५-४६ ॥
माँ अरुन्धती और वशिष्ठ पद वन्दन करके चले विपिन कटि निषंग कर कंज धनुष शर संग जानकी और लछिमन। चित्रकूट में किया वास सुन भरत वदन से पिता मरण व्याकुल हुए धीर रघुकुल मणि प्रणत पाल जन शोक हरण॥ १५-४७ ॥
निज पादुका न्यास देकर फिर भेज भरत को कोसलपुर सीय हरण मिष रावण वध कर सुखी किये महि सुर महिसुर। पुष्पकयानारूढ़ संग सिय लक्ष्मण हनुमदादि कपि गण वर्ष चतुर्दश बिता अवध पुर आये फिर रघुकुल भूषण॥ १५-४८ ॥
द्रुतविलम्बित प्रभु वियोग समाकुल चेतना इधर थी दुःख मग्न अरुन्धती। विलपती कुररीव दिवा निशम् नयन नीरज नीर बहा रही॥ १५-४९ ॥
शार्दूलविक्रीडित खिन्ना ध्यानपरायणा हिमहता म्लाना यथा पद्मिनी रोती राघव वास सोच वन में शोकाश्रु धारा बहा। सोती जाग कभी-कभी स्मृति वशात् थी दौड़ती धेनु ज्यों हा हा राम पुकारती विलपती वात्सल्य मंदाकिनी॥ १५-५० ॥
वंशस्थ कभी कभी राघव को दुलारती अपूर्ववत् कानन के कुटीर में। अरण्यवासी प्रभु को विचार के पुनः विचेष्टागत चेतना सती॥ १५-५१ ॥
कभी कभी आ कहती वशिष्ठ से विचारिये ज्योतिष की फला विधा। श्री राम सीतानुज संग हैं सुखी होंगे कभी पर्णकुटीर पाहुने॥ १५-५२ ॥
द्रुतविलम्बित विरह की यह तीव्र व्यथा नहीं सुकवि वर्णन के हित शक्य है। परम सौम्य वशिष्ठ अरुन्धती विकल हो प्रभु पन्थ निहारते॥ १५-५३ ॥
पुष्पक से अवतीर्ण जगत्पती गुरु वशिष्ठ को कर वन्दन प्रथम पुनः सबका स्वीकारा सावधान हो अभिनन्दन। हुआ राज अभिषेक बिराजे सिंहासन पर प्रभु नृप बन प्रथम तिलक वशिष्ठ मुनि ने कर दिया शुभाशीष अनुशासन॥ १५-५४ ॥
किन्तु रहा अवशेष अभी भी वन यात्रा व्रत का पारण प्रथम बनेंगी अरुन्धती ही इस विधान में शुभ कारण। सीता लक्ष्मण सहित अवधपति प्रथम अरुन्धती गेह गये प्रथम पारणा हेतु हृदय में उमड़ रहे अभिलाष नये॥ १५-५५ ॥
सोच रहे मन ही मन राघव आज अतुल सुख पाऊँगा गुरु माता की गोद बैठकर पारण नियम निभाऊँगा। निखिल लोक लक्ष्मी जिसको स्वादों से नहीं रिझा पायी उसकी रसना गुरुतिय विरचित भोजन के हित ललचायी ॥ १५-५६ ॥
अरुन्धती वात्सल्य वस्तुतः भोजन में होता साकार इसीलिए ललचाये उस पे राघव कोशलेन्द्र सरकार। बैठी हुई कुटी में अपने भामिनी को प्रभु ने देखा उमड़ रही जिनके आनन पर मधुर प्रेम रस की लेखा॥ १५-५७ ॥
वार्धक वलित शिरोरुह उज्ज्वल कम्पित कुछ-कुछ तन दुर्बल लख अरुन्धती को अधीर से हुए कृपाल भक्त वत्सल। आतुर दौड़ दण्डवत करके चरण सरोरुह पर लख शीश अंचल में छिप गये सती के प्रेमाविष्ट कोशलाधीश॥ १५-५८ ॥
वत्सल रस का पान करा फिर चूम चन्द्र आनन उनका। प्रभु मुख निरख निरख अरुन्धती मिटा रही आतप मन का॥ १५-५९ ॥
फिर प्रभु को पारणा कराया गुरु पत्नी ने सर्वप्रथम सुन्दर सुधा स्वाद सम भोजन अनुभव सुगम वचन दुर्गम॥ १५-६० ॥
जीम रहे सीता समेत प्रभु भोजन पल्लव दोनों में अरुन्धती भर रही नेह जल नीरज लोचन कोनों में। बार बार देती अरुन्धती ला लाकर मंजुल व्यंजन जीम रहे सीता लक्ष्मण सँग स्वाद सराह भक्त रंजन॥ १५-६१ ॥
नन्दन वन के सुमन बरस सुर आज कर रहे अभिनन्दन जय अरुन्धती जय श्री राघव जय कृपालु जन मन चन्दन। जय अरुन्धती जय वशिष्ठ जय राघव की ध्वनि गूँज रही कवि कलिता कोकिला काकली पी-पी मधुरस कूँज रही॥ १५-६२ ॥
आज वशिष्ठ भाग्य की सीमा अरुन्धती वत्सल परिणति आज काव्य में मूर्त हो रही रघुवर भक्ति प्रेम परिमिति। आज सनाथ हो रहा मंगल महाकाव्य का मंजु महत्त्व जिसके प्रति अक्षर में संभृत राम ब्रह्म का शुभ अस्तित्व॥ १५-६३ ॥
भोजन किया प्रेम से प्रभु ने फिर सुयज्ञ सम्मुख आये मित्र खा रहे बहुत वचन यों कह विनोद में बिलमाये। आज चतुर्दश वर्षों का सब घाटा यहीं चुकालोगे छोड़ोगे अवशेष किमपि या सब कुछ तुम ही खा लोगे॥ १५-६४ ॥
बोले प्रभु सहास अब तक तुमने हे मित्र बहुत खाया आज भाग्यवश गुरु माता के ढिग मेरा अवसर आया। चुप चुप रह सुयज्ञ कह करके प्रभु मुख चूमी अरुन्धती सीता लक्ष्मण सहित राम को दिया वास निज हृदय सती॥ १५-६५ ॥
अमर हुई इतिहास गगन में चमकी अरुन्धती तारा मुनि वशिष्ठ संगिनी सती यह धन्य-धन्य ऋषिवर दारा। रघुपति कृपा प्राप्त कर मैंने चरित यथामति गान किया अरुन्धती शुभ महाकाव्य का प्रभु पद में विश्राम दिया॥ १५-६६ ॥
अरुन्धतीमहाकाव्यमरुन्धत्याः कृपाकृतम्। अरुन्धतीमुदे चेदमरुन्धत्यै समर्प्यते॥ १५-६७ ॥
॥ श्रीराघवः शन्तनोतु ॥