ब्रह्म वचन की ऋषि-दम्पति कर रहे समीक्षा बढ़ी हृदय में वेलि-सदृश प्रभु-दरश प्रतीक्षा। फूटी व्याकुलता अनुराग युगल वर शाखा उदित हुई मन विशद व्योम में ललित विशाखा॥ ५-१ ॥
थी निशीथिनी मौन शान्त सब विहग वृन्द थे पद्मकोश गत चिरनिद्रित नीरव मिलिन्द थे। प्रकृति सुन्दरी करती दम्पति भाग्य प्रशंसा अणु-अणु से कर रही मुदित मंगलानुशंसा॥ ५-२ ॥
झिल्ली की झंकार तनिक श्रवणों में आती दम्पति को प्रभु-मिलन मधुर संदेश सुनाती। स्वच्छ चाँदनी मध्य रात-रानी कुछ खिल खिल मुनि आश्रम कर रही सौरभित भर निज परिमल॥ ५-३ ॥
शरद चन्द्र कर दीधिति से दम्पति पद छूकर होता मुदित विप्र-परिकर सहकर्मी होकर। तरुवर किसलय अन्तराल से छिटक चाँदनी करती नव कंकुम से रंजित मनो मेदिनी॥ ५-४ ॥
रजनी और कुमुदिनी प्रमुदित निरख निशाकर नहीं वहाँ सापत्न्य प्रेम-रस ही था निर्भर। भूमि गनन का भेद चन्द्रमा आज मिटाता बाँध युगल को किरण रश्मि से मधुर मिलाता॥ ५-५ ॥
मन्द मन्द पीयूष किरण मिस बरस रहा था दम्पति का सौभाग्य निरख ही हरष रहा था। वातावरण शान्त था जग में छाया नीरव पर अम्बर अव्यक्त कर रहा था कुछ कलरव॥ ५-६ ॥
नियति नटी ही मुदित आज थी मंगल गाती दम्पति की खुशियों में अपनी खुशी मनाती। शीतल मन्द सुगन्ध समीर समीरण करके दम्पति रोम रोम में पुलकावलि भर भरके॥ ५-७ ॥
बना शकुन था मधुर सफलता करता सूचित वातावरण रम्य अनुकूल दिव्य समयोचित। इधर चन्द्र ज्योत्स्ना से था पूरित यह अम्बर दम्पति उर नभ में समुदित प्रभु प्रेम निशाकर॥ ५-८ ॥
विकस उठी भावना कुमुदिनी अति हर्षाई विरति चकोरी अति प्रसन्न मन मोद बढ़ाई। गया भाग नैराश्य तिमिर छाई नव ज्योती लगी लूटने मति मरालिका सद्गुण मोती॥ ५-९ ॥
मन्द समीरण से हिलता था सिर का अंचल अरुन्धती थी मुदित तोय भर भरित दृगंचल। वाम पाणि से चलित शीर्ष अंचल संभालती दक्षिण कर से नयन पोंछ मन को निभालती॥ ५-१० ॥
सत्य सत्य हमको अवश्य रघुनाथ मिलेंगे सत्य हमारे मन मंदिर में दीप जलेगें। होगी क्या साकार हमारी मृदु अभिलाषा कब होगी रघुचंद्र सनाथित प्राची आशा॥ ५-११ ॥
यह विशाल संकल्प भाग्य पर मेरा खोटा गगन लम्बि फल ग्रहण हेतु ललचे नर छोटा। मन दरिद्र शिर मौर्य तथापि मनोरथ राजा क्यों खद्योत चित्त में शिव शिर लोभ विराजा॥ ५-१२ ॥
साधन हीन अयान एक साधारण नारी कैसे पूर्ण ब्रह्म दर्शन की वह अधिकारी। कहाँ वेद प्रतिपाद्य ब्रह्म सुख अगम निराला कहाँ बोध विक्लव विमूढ़ तापस की बाला॥ ५-१३ ॥
शम दम ब्रत उपवास किये क्या मैंने किंचित दर्शन हेतु प्रयास किये क्या मैंने किंचित। किन्तु सुना है राम दीनवत्सल असुरारी होता उनको मान्य निरन्तर प्रेम पुजारी॥ ५-१४ ॥
पत्र पुष्प फल जल भक्तों के रुचि से पाते भावहीन सुर राज अमृत को भी ठुकराते। नहीं भेद प्रतिबंध पुरुष नारी क्लीवों का है समान अधिकार वहाँ पर सब जीवों का॥ ५-१५ ॥
नहीं वहाँ है द्वैत ब्रह्म अद्वैत राम हैं निर्विकार निस्सीम निखिल निर्गुण अकाम हैं। निराकर साकार इन्हीं के नाम अपरिमित भक्त प्रेम-वश वह असीम भी होते सीमित॥ ५-१६ ॥
वे स्वतंत्र पर भक्त प्रेम परतंत्र खरारी लेकर भी अवतार सदा रहते अविकारी। शुद्ध प्रेम निःस्रोत उन्हें है सपदि रिझाता कैतव दम्भ प्रपंच नहीं है उनको भाता॥ ५-१७ ॥
जन दुर्गुण का स्मरण राम करते न कभी भी दूषण रिपुजन दोष ध्यान धरते न कभी भी। सदा हृदयगत शुद्ध भावना को वे लखते निष्कलंक जन की वे प्रीति प्रतीति परखते॥ ५-१८ ॥
क्षमा सुता के साथ क्षमा भी उनमें लसती कादम्बिनी समान कृपाकर कृपा बरसती। उन प्रभु को कब देख विलोचन सफल करूँगी कब ले उनको गोद चित्त में मोद भरूँगी॥ ५-१९ ॥
एक भरोसा मुझे स्वभाव सरल है उनका कोमल चित रघुराव सुचाव तरल है उनका। जड़ भी जिनको देख छोड़ता मौलिक जड़ता होता ऋजु है निगड़ छोड़कर निविड़ निगड़ता॥ ५-२० ॥
दुराराध्य भगवान किन्तु भावों के भूखे धर्म धुरीण प्रवीण विषय भोगों से रूखे। जैसे जो भजता उसको वे वैसे भजते भक्त-भाव अनुरूप रूप मंगलमय सजते॥ ५-२१ ॥
जिनका चरण सरोज ध्यान कर मुनि बड़भागी काल चक्र को जीत मुदित फिरते अनुरागी। विधि निषेध से दूर भजन रस मत्त विचरते विहग-वृन्द की भाँति नील-अम्बर में चरते॥ ५-२२ ॥
उन्हें न पाता डिगा प्रकृति का भीषण विकल्व उन्हें न करता व्यथित विश्व का किंचित विप्लव। शीतलता का दान उन्हें करता है रौरव राघव कृपा कटाक्ष उन्हें देता नित गौरव॥ ५-२३ ॥
भौतिकता वश मूढ़ राम को भले भूलते दुर्विपाक वश भोग वासना मध्य फूलते। किन्तु अन्ततोगत्वा सब का ध्येय यही है राजा रंक सभी का अन्तिम श्रेय यही है॥ ५-२४ ॥
आस्तिक विधिवत शुद्धभाव से हरि को भजता नास्तिक भी निषेध कर के क्या प्रभु को तजता। न पद के ही साथ वहाँ भी अस्ति जुड़ा है नास्ति नास्ति कह अस्ति साध्य हित नित्य अड़ा है॥ ५-२५ ॥
नहीं नहीं के साथ सदा वह है है कहता सत्ता से निरपेक्ष कहो वह कभी निबहता। हो अभाव या भाव सदा ही अस्ति सनातन करता सिद्ध समत्र ब्रह्म सद्भाव पुरातन॥ ५-२६ ॥
उपादान सुनिमित्त रूप में ब्रह्म सभी का कारण एक अनीह सदाश्रय ब्रह्म सभी का। उस सत्ता के बिना कहो कब किसकी सत्ता महत् ब्रह्म के बिना किसी की कहाँ महत्ता॥ ५-२७ ॥
वैज्ञानिक ने सिद्ध किया वास्तव संश्लेषण वस्तु विकृति को स्पष्ट किया करके विश्लेषण। उसने भी अन्ततः प्रकृति सत्ता स्वीकारी ऐसा ही यह क्यों यह सुन उसकी मति हारी॥ ५-२८ ॥
उस अतीत सत्ता का भी जो परम नियामक ईश्वर वही ब्रह्म व्यापक दोषों का शामक। कुम्भकार के बिना कहो घट सम्भव कैसे स्वर्णकार निरपेक्ष विभूषण उद्भव कैसे॥ ५-२९ ॥
विविध जीव संकुल विचित्र यह सृष्टि निराली किस अनन्त सत्ता ने इसको सहज बना ली। रूप रंग के बिना रचे बहु रंग चितेरे ईश्वर की यह कला देख विस्मय मन मेरे॥ ५-३० ॥
बिना किसी कर्त्ता के जब कृमि का न समुद्भव कहो ईश निरपेक्ष सृष्टि कैसे है सम्भव। बिना यत्न के जब पत्ता भी डोल न पाता बिना ईश के कहो जगत कैसे बन जाता॥ ५-३१ ॥
निर्विवाद यह सिद्ध सृष्टि का ईश्वर कारण उसके बिना न क्षणभर सम्भव इसका धारण। कण कण में वह व्याप्त भूतमय जगन्नियन्ता रोम रोम रम रहा राम जग का अधियन्ता॥ ५-३२ ॥
दुर्विभाव्य दुर्लक्ष्य किए ऐश्वर्य तिरोहित समदर्शी अन्तर्यामी सब में सबका हित। राम द्वेष से रहित सर्व सुखकर समदर्शी घट घट में रम रहा राम करुणा रस बर्षी॥ ५-३३ ॥
सलिल मध्य प्रतिबिन्दु अलक्षित विद्युत जैसे विश्ववास अविलक्ष्य ब्रह्म परमेश्वर वैसे। जब तक संघर्षण से नहीं प्रकट वह होती तब तक नहीं लाभप्रद जल की विद्युत ज्योति॥ ५-३४ ॥
वैसे भक्त भावना से जग इसे बुलाता तब यह राम रूप में आकर शोक मिटाता। राम श्याम यह दोनों प्रभु के रूप निरापद कोटि कोटि कन्दर्प दर्प हर सेवक सुखप्रद॥ ५-३५ ॥
राम रूप में वही चंड शर चाप चढ़ाता श्याम सलोना बनकर वंशी मधुर बजाता। दोनों ही हैं एक युगल को सेवक प्यारे भक्त-भाव वश उभय वेश लगते हैं न्यारे॥ ५-३६ ॥
किन्तु हमें निष्काम पूर्णतम राम इष्ट हैं ब्रह्म सकल भुवनाभिराम घनश्याम इष्ट हैं। एक नारि व्रत पालक मर्यादा पुरुषोत्तम निखिल लोक लावण्यधाम मैथिली मनोरम॥ ५-३७ ॥
सजल नील नीरद समान मृदु श्याम मूर्ति है ध्यान मात्र से करती जन अभिलाष पूर्ति है। सिर पर जिनके कंचन रत्न किरीट चमकता गंडस्थल मंडित कुंडल भी अधिक दमकता॥ ५-३८ ॥
अलिकुल निन्दनशील लटकती कुटिल अलक है सुरप चाप मदहरणि भाल पर ललित तिलक है। सरसिज नवल नयन खंजन के चित्त चुराते करुणारस निर्भर अमृताकर कोटि लजाते॥ ५-३९ ॥
उन्नत मसृण कपोल चिबुक की अनुपम शोभा नासा ललित विलोक भक्त भावुक मन लोभा। लसती चारु चरित्र विभा विधु आनन ऊपर मन्द मन्द मृदु हास सुधाकर निकर मनोहर॥ ५-४० ॥
अरुण अधर के बीच दशन शित लगते कैसे किसलय कोरक मध्य कुन्द कुड्मल हों जैसे। मीनकेतु कार्मुक सम भृकटि विलास मनोहर भावुक जन प्रणयंकर निखिल सृष्टि प्रलयंकर॥ ५-४१ ॥
लसित तुलसिका माल कंठ कंठीरव कंधर काम कलभ कर सुदृढ़ चंड भुजदंड मंजुतर। उर विशाल श्रीवत्स मंजु वनमाल सजाए रुचिर नाभि आवर्त तरणिजा नीर लजाए॥ ५-४२ ॥
जनक राज तनया शिरोज शृंगार चतुरतर अरुण मंजु करतल मनोज्ञ शरकिण सुषमाकर। करज मृदुल नखचन्द्र चारु चन्द्रिका मनोहर मुग्ध नयन भर देख कोटि शत कोटि विषमशर॥ ५-४३ ॥
कटि किंकिणी पट पीत निरख उत्प्रेक्षा ऐसी मरकत गिरि पर बाल दिवाकर शोभा जैसी। कंज कुन्त जलजात लक्ष्म लालित्य कमल-पद गौतम पत्नी शाप शमन शुचि भक्त सुख प्रद॥ ५-४४ ॥
सीता हृदय सरोज मध्य लालित मृदु मधुकर निटिल नयन मानस मराल जन त्रिविध तापहर। तरुण तामरस अरुण शिरिष पाटल सम सौभगं जिनको सकृत विलोक विमल होता जन दुर्भग॥ ५-४५ ॥
नील नील पंजे उज्ज्वल मंजुल नख-श्रेणी तलवे लाल विराज रहे ज्यों युगल त्रिवेणी। इस प्रयाग में भाव सहित मैं कब नहाऊँगी दारुण मन का ताप कदापि बुझा पाऊँगी॥ ५-४६ ॥
कृपा करेंगे मुझ पर कब राघव जन-वत्सल विकसेगा मम हिय तड़ाग में कब सुख शतदल। क्या अयान इस महिला पर प्रभु कृपा करेंगे सिर पर परस सरोज पाणि क्या व्यथा हरेंगे॥ ५-४७ ॥
मुझमें उनके दर्शन की कुछ नहीं योग्यता नहीं हृदय में भक्ति विशुद्ध अनन्य भोग्यता। नहीं जानती जप तप पूजा आरति अर्चन कर पाती हा नहीं किमपि मैं अश्रु समर्चन॥ ५-४८ ॥
नहीं हो सका हाय आज तक शुद्ध समर्पण कैसे होगा उस अपूर्व सत्ता का तर्पण। किन्तु राम की शुद्ध प्रीति की रीति निराली साहस कर ले आई हूँ उसकी ही थाली॥ ५-४९ ॥
बलि पूजा कुछ नहीं चाहते रघुकुल नन्दन एक प्रेम निःस्रोत ब्रह्म का बनता चन्दन। मुझ असहाय दीन अबला का यही एक बल राघव प्रेम मार्ग में शुद्ध भक्ति ही सम्बल॥ ५-५० ॥
श्रुति साधन से हीन अधीन अशरणा अबला होऊँगी कब राम कृपा सम्बल से सबला। कब रघुचन्द्र मुखेन्दु विलोक दुलार करुँगी घर ही में वात्सल्य सुधारस प्यार करुँगी॥ ५-५१ ॥
वे सर्वज्ञ हृदय गत भाव जानते होंगे गुरु पत्नी का नाता मधुर मानते होंगे। आकर मेरे पास कहेंगे मुझको माता दीनबंधु सुखसिंधु निभाएँगे यह नाता॥ ५-५२ ॥
मैं भी कहकर लाल चूम लूँगी आनन विधु पी लूँगी भर पेट योग दुर्लभ आनन्द मधु। मुनि वशिष्ठ से उचित पिता ने मुझे विवाहा इसी लोभ से मैंने भी दाम्पत्य निबाहा॥ ५-५३ ॥
ऋषि के ही नाते से मुझको रघुकुल भूषण देगें माँ का प्रेम राम पूषण कुल पूषण। क्या होगा वह दिवस स्वर्ण मंजुल मंगलमय जब अरुन्धती गोद लसेंगे शिशु बन चिन्मय॥ ५-५४ ॥
मैं क्या उस क्षण अपने को संभाल पाऊँगी प्रभु से यह सम्बन्ध मधुर निभाल पाऊँगी। देगें मुझको शक्ति वही सत्ता संचालक निभवा लेंगे स्वयं नाथ सेवक रुचि पालक॥ ५-५५ ॥
सदा राम ने सेवक की लघु भी रुचि पाली शबरी घर जा स्वयं बेर भी मंजुल खा ली। नहीं भेद कुछ ऊँच नीच का उनके मन में रमते नित्य अखंड भाव से भावुक जन में॥ ५-५६ ॥
मेरे भाव तरंग सिंधु तुहिनाकर आओ अरुन्धती की सुख कैरव कलिका सरसाओ। जन्म जन्म से मृदुल पलक पावड़े सजाये मन तंत्री पर सरस करुण रागिनी बजाये॥ ५-५७ ॥
शतियों से कर रही तुम्हारी तात प्रतीक्षा तुम करते किस हेतु हमारी प्रीति परीक्षा। नहीं परीक्षा योग्य क्षीण साधन मैं नारी कौसल्या के सदृश सरल तेरी महतारी॥ ५-५८ ॥
दिवा रैन राजीव नयन विरहानल ज्वाला करती है सन्तप्त शिशिर लोचन का प्याला। आओ आओ राम तनिक मत देर लगाओ माँ कह कर अविलम्ब मुझे कृत कृत्य बनाओ॥ ५-५९ ॥
धर्म शास्त्र सद्ग्रन्थ मृदुल हैं तुमको कहते मेरे बार विलोक निठुरता तुम क्यों गहते। चन्द्र कठिन किस हेतु सूर्य कैसे हो शीतल क्यों हिम बरसे अग्नि उड़े क्यों नभ में भूतल॥ ५-६० ॥
पलक पाँवड़े स्पर्शन को तेरे अकुलाते श्याम रूप के दर्शन हित लोचन ललचाते। खंजन कमल कोष में अब विश्राम चाहता सागर में उपरति अभिमुख सरिता प्रवाहता॥ ५-६१ ॥
विकल मीन तनु क्षीण मृत्यु की घड़ी गिन रहा अब भुजंग के लिये मरण का एक क्षण रहा। देह त्याग हित बद्ध कल्प व्याकुल यह कोकी दिनकर कुल दिनमणे इसे अब करो विशोकी॥ ५-६२ ॥
पीने को अंगार समुत्सुक चतुर चकोरी रघुकुल कैरव कुमुद सुधा से करो विभोरी। गगन चाहता आज क्षितिज से शुभ आलिंगन वल्ली को है ईप्सित सुरभूरुह आलम्बन॥ ५-६३ ॥
आओ आओ अरे देर करते क्यों प्यारे जगमग कर दो हृदय गगन को समुदित तारे। तेरे बिना न होगी करुणा गाथा पूरी तेरे बिना न होगी कुछ भी कम यह दूरी॥ ५-६४ ॥
रहे अधूरा क्यों यह मेरा सुमधुर सपना करो शीघ्र साकार लाल मम मधुर कल्पना। मन मानस मरुथल में नवरस कंज खिला दो उर अन्तर में विमल भक्ति का दीप जला दो॥ ५-६५ ॥
नहीं तुम्हें मैं कभी राजसुत रुष्ट करुँगी निज वात्सल्य सुधारस से संतुष्ट करुँगी। शास्त्रजन्य संताप परिश्रम सकल हरुँगी कौसल्या के सदृश पुत्रवत् प्यार करुँगी॥ ५-६६ ॥
विमल ज्ञान आगार विशुद्ध प्रकाश प्रकाशक मुनि आनन्द पंकरुह कानन मधुर विकाशक। शुष्क वनस्पति वृन्द देख कुछ तो तरसाओ शीत रश्मि रेखा सी निज करुणा सरसाओ॥ ५-६७ ॥
मोह निबिड़ अज्ञान नीरधर पटल प्रभंजन आओ अब अविलम्ब राम सेवक मन रंजन। रिक्त सरोरुह कोष मधुप को झटित छिपा लूँ यामिनी भर आनन्द मोद आमोद मना लूँ॥ ५-६८ ॥
दशम दशा आसन्न करो मत किंचित देरी आओ आओ लऊँ बलैया लालन तेरी। लोचन चातक की जलधर अब प्यास बुझाओ अरुन्धती प्राणावरोध को सफल बनाओ॥ ५-६९ ॥
सकल लोक नयनाभिराम नव नलिन विलोचन दर्शन दो हे राम कोटि मन्मथ मद-मोचन। गिरिधर प्रभु पद-पद्म प्रेम रस निर्भर भामिनि प्रणय प्रतीक्षा निरत बिता दी क्षण में यामिनी॥ ५-७० ॥
॥ श्रीराघवः शन्तनोतु ॥