नारी तुम शाश्वत शक्ति सनातन नर की तुम आदि कल्पना पावन परमेश्वर की। तुम दिव्य जीवनी मंगलमय जीवन की तुम मधुर भावना मही सुभावुक जनकी॥ ९-१ ॥
तुमने निर्मित की मानव की परिभाषा पर समझ न पाया कोई तेरी भाषा। आशा की किरण तुम्हीं से समुदित होती तुमसे पाता है अग-जग अद्भुत ज्योति॥ ९-२ ॥
तुम सर्ग सर्जना शक्ति प्रकृति की सर्वस तुम पृथ्वी की हो सुरभि और जल का रस। पावक की दाहक शक्ति वायु का बल तुम अविकार्य शब्द गुण नभ का हो निर्मल तुम॥ ९-३ ॥
तुम हो शशांक की ज्योत्सना रवि की आभा तुम सन्ध्या की अरुणिमा उषा की शोभा। सुषमा तुम व्रततिवृन्द की खग कुल कूजन मादकता तुम मधुरस की मधुकर गुंजन॥ ९-४ ॥
तुम रस का स्थायी भाव रसेश्वर की रति तुम भावों का सुस्फुरण साधकों की गति। तुम साधन की हो मूल मुमुक्षु मुमुक्षा उद्दीपन की उद्दीप्ति विचित्र बुभुक्षा॥ ९-५ ॥
तुम शुभे शक्ति साकार प्राणदायिनी हो तुम भद्र भक्ति अवतार समनुपायिनी हो। तुम इतिहासों के पृष्ठ तुम्हीं हो अक्षर तुम हो प्रबन्ध तुम वाक्य शब्द अविनश्वर॥ ९-६ ॥
तुम कलाकार की कला गीत का सरगम तुम हो तन्त्री का तार रागिनी उद्गम। तुम जीवन का संगीत कल्पना तुम हो तुम चित्रकार का चित्र अल्पना तुम हो॥ ९-७ ॥
तुम हो कवि की प्रेरणा तुम्हीं मृदु कविता है समुदित तुमसे ज्योति प्राप्त कर सविता। नर नौका की पतवार चालिका तुम हो व्रत निरत यती की नियम पालिका तुम हो॥ ९-८ ॥
नर जीवन का आपत्ति निवारण तुमसे केन्द्रित होता है मानस वारण तुमसे। संकल्प शुद्धि का केन्द्र तुम्हीं हो नर की वर्णिनी तुम्हीं हो भद्रे अभिनव वर की॥ ९-९ ॥
तुम एक अलौकिक तृप्ति प्रीति वसुधा हो तुम हरती विषय क्षुधा मनोज्ञ सुधा हो। मानो पवित्रता हेतु तुम्हीं हो गंगा चारित्र्यमूर्ति तुम प्रतिभा अमल असंगा॥ ९-१० ॥
तुम ऊर्जा ऊर्जस्वला दिव्य विद्युत हो जग मंगल के ही हेतु शक्ति प्रस्तुत हो। अणु-अणु में अनुप्राणित हो सृष्टि चलाती तुम प्रकृति सुन्दरी सन्तत मोद मनाती॥ ९-११ ॥
तेरी अवलम्बन बिना ब्रह्म भी निर्गुण किस भाँति प्रकट कर सके सुमंगल सद्गुण। निष्क्रियता परमात्मा की तुम्हीं मिटाती आविष्ट उन्हीं में हो लीला करवाती॥ ९-१२ ॥
हरि अवतारों का प्रमुख तुम्हीं हो कारण हे शक्ति तुम्हीं करती आसक्ति विदारण। सचमुच यदि शक्ति विशिष्ट न होते ईश्वर कैसे मिलते भक्तों को विविध देह धर॥ ९-१३ ॥
सम्बन्ध निबन्धन ऐक्य शक्ति से प्रभु का अद्वैत अनिर्वचनीय शक्ति और विभु का। जो सर्वतन्त्र निजतन्त्र शक्ति के बस हैं वितरण करते अतएव जगत को रस हैं॥ ९-१४ ॥
अनुभूति ब्रह्म की तुम्हीं सृष्टि निर्मात्री तुम भूमा की भूमता प्रपञ्च विधात्री। मात्रा स्पर्शों की मूल प्रभा तुम रवि की तुम साम स्वर संगीत कल्पना कवि की॥ ९-१५ ॥
माया तुम हरि की शिव की हो शर्वाणी तुम दिव्य विधित्सा ब्रह्मा की ब्रह्माणी। अग-जग यह यावन्मात्र भासता भास्वर सब में हो व्याप्त शक्तिरूपिणि अविनश्वर॥ ९-१६ ॥
तुम मूर्त-शक्ति साकार रूप हो नारी परमेश्वर करते नमन मान महतारी। इस परुष पुरुष ने तुझे नहीं पहचाना नारी को एक बुभुक्षा साधन माना॥ ९-१७ ॥
सचमुच यह निर्दय पुरुष प्रधान जगत है उन्नत नारी भी जहाँ बनी अवनत है। पति बनकर करता रहा पुरुष ही धर्षण पत्नी ने उसको दिया दिव्य उत्कर्षण॥ ९-१८ ॥
बन क्षमा अहो आधार जगत का बनती परमेश्वर को भी समय-समय पर जनती। फिर भी क्यों नरक खान कहते नारी को हा क्यों अवमानित करते बेचारी को॥ ९-१९ ॥
वस्तुतः नहीं कोई अरि जग में इसका नारी है नाम प्रसिद्ध इसी से इसका। यह नहीं नरक की खान सदा अविकारी नारी है नारायण की भी महतारी॥ ९-२० ॥
सन्ततं नास्त्यरिर्यस्याः सैषा नारी वैयाकरणों ने यह सुनिरुक्ति विचारी। अक्षरशः है यह सत्य निरुक्ति विचारो निर्दोष नयन से नारी अंग निहारो॥ ९-२१ ॥
देखो युग जलज पत्र पर गज क्रीड़ा रत करता न प्रधर्षण कभी सदा व्रीड़ा नत। कदली का करता है केहरि परिरम्भण करि से न उसे सपने में भी संरम्भण॥ ९-२२ ॥
सर ढिग उपत्यका युगल लसित दो गिरिवर असिताग्र श्वेत सरसीरुह विकसित जिन पर। जाह्नवी धार के बीच कपोत बिराजे कोकिल बिम्बफल साथ दाडिमी भ्राजे॥ ९-२३ ॥
राकेश चारु चपला का जिसमें संगम सचमुच नारी की सृष्टि अपूर्व अनूपम। समरुण रसाल फल जहाँ कीर से अक्षत खञ्जन शावक को धनुष नहीं करता क्षत॥ ९-२४ ॥
शशि और वारिधर का साहचर्य जहाँ है रवि तिमिर सर्पशिखि का सौन्दर्य जहाँ है। चातक चकोर की जहाँ बनी है जोड़ी बक हंसों ने भी नहीं प्रीति को छोड़ी॥ ९-२५ ॥
कैसी अनुपम नारी की सृष्टि मनोहर विधि भी न कभी जिसकी पाया तुलना कर। निर्वैर सृष्टि का यही भव्य है चित्रण मानव की मनोबुद्धि का यह सम्मिश्रण॥ ९-२६ ॥
तुम स्वयं शक्ति होकर अबला कहलाती क्यों हो अपना अद्भुत ऐश्वर्य छिपाती। होकर कठोर दिखती तुम क्यों हो कोमल निश्चल होकर भी लक्षित क्यों हो चंचल॥ ९-२७ ॥
बाहर से तेरा रूप विलासित दिखता वस्तुतः योग योगी भी तुमसे सिखता। भारत में तुम हो शक्ति स्वरूप प्रतिष्ठा है अनिर्वाच्य अद्वैत तुम्हारी निष्ठा॥ ९-२८ ॥
तुम एक चार रूपों से जग में आकर माँ बहन सुता पत्नी का धर्म निभाकर। तुम दीपशिखा सम दिवारैन जल-जल कर जग में भरती आनन्द स्वयं ढल-ढल कर॥ ९-२९ ॥
तुम अरुन्धती ही नहीं देवता मेरी सुर ललनायें भी बनी तुम्हारी चेरी। तुमने वशिष्ठ को भी सौभाग्य दिया है विनिमय में उसके त्याग विराग लिया है॥ ९-३० ॥
इन गहन विचारों में मन ही मन खोये मुनि बैठे उटज मध्य थे मानो सोये। निस्तब्ध जलधि सा शान्त दान्त तेजस था उन्नत कपोल पर उमड़ रहा ओजस था॥ ९-३१ ॥
तब तक अरुन्धती मुनिवर के ढिग आई धीरे-धीरे कुछ-कुछ मन में शरमाई। प्रेमाश्रुपूर्ण थे उसके कञ्ज दृगञ्चल जिसे ढाँक रहा था किञ्चित् सिर का अञ्चल॥ ९-३२ ॥
आकर देवी ने मुनि को तनिक हिलाया अन्तर तारों से मन के तार मिलाया। चकपका उठे ऋषि तुरत खुली दृग पलकें लटकी कपोल पर सहज हठीली अलकें॥ ९-३३ ॥
देखा वशिष्ठ ने सम्मुख अरुन्धती को वरिवश्यारत धृत शक्ति शरीर सती को। तन तपः पूत मस्तक पर सिन्दूर रेखा ज्यों खेल रही सौभाग्य चन्द्र वसु लेखा॥ ९-३४ ॥
बोली वनिता क्या सोच रहे मुनिनायक विश्रब्ध रहें अब तजें शोक भयदायक। संसार सार से हीन जन्म मरणों का आगार यही दुष्पार प्रिय स्मरणों का॥ ९-३५ ॥
दुःखालय कह स्मृतियों ने इसे पुकारा सर्वत्र दीखती यहाँ भयंकर कारा। सुख-दुःख का मिश्रण विधि ने इसे बनाया विष अमिय घोलकर अग-जग को भटकाया॥ ९-३६ ॥
निज कर्म विवश सुख-दुःख भोगकर प्राणी तरते भवाब्धि पा विमल बुद्धि कल्याणी। बन राज-हंस चुनते मौक्तिक ज्यों श्रेयस तज देते भोग असार सींक सम प्रेयस॥ ९-३७ ॥
संयोग वियोग न रहें निरन्तर सुस्थिर रह जाता है उनका संस्मरण यहाँ चिर। सुस्थिर है केवल परमेश्वर की सत्ता उसका चिन्तन ही नर की एक महत्ता॥ ९-३८ ॥
यह आवागमन बुदबुदा सम है जग का यह खेल अतर्कित अहो विधाता ठग का। सबको करता यह ग्रास किसी न किसी दिन सोचते नहीं अतएव तदर्थ सुधी जन॥ ९-३९ ॥
यह मोह विटप वैराग्य खड्ग से काँटे निज ज्ञान भानु से ममताघन को छाँटे। तज भूत निरख कर वर्तमान संचित का निर्माण करें तज ध्यान आप अनुचित का॥ ९-४० ॥
क्या मुझको ममता नहीं नाथ पुत्रों की क्या लता उपेक्षा करती निज पत्रों की। पर अब यह अवसर नहीं हमें रोने का आया है अब यह समय सजग होने का॥ ९-४१ ॥
अब बीत गई वह ग्रीष्म निशा अति काली आयी पावस ऋतु छिटक रही हरियाली। हो वसुधा पुनः उर्वरा पा वारिधि जल हो शक्तिपूर्ण बीजारोपण अति निर्मल॥ ९-४२ ॥
जिसकी शाखायें फैल प्रसन्न चतुर्दिक अब करें समुन्नत दैव सर्ग आरम्भिक। इतिहास वाटिका जिस प्रसून को पाकर होवें कृतकृत्य जिसे आत्मीय बनाकर॥ ९-४३ ॥
गीत बसायें आर्य नया संसार। जहाँ न आँसू की झड़ियाँ हो अखिल अमंगल सार॥ ९-४४-१ ॥ जहाँ न हो सुख दुःख की खाई जहाँ न हो भय की परछायीं। जहाँ जलधि चूमता क्षितिज को तजकर भेद अपार॥ ९-४४-२ ॥ जहाँ न कोई रहे पराया जहाँ किसी को ठगे न माया। जहाँ प्रकृति हो शस्य श्यामला सदा बसन्त बहार॥ ९-४४-३ ॥ जहाँ कोकिला का कूजन हो जहाँ मधुप का मृदु गुंजन हो। जहाँ निराशा की तोड़े मानव ऊँची दीवार॥ ९-४४-४ ॥ जहाँ वेद प्रतिपाद्य धर्म हो जहाँ मनुज का चरित वर्म हो। हम सौंपे भावी समाज को अब ऐसा उपहार॥ ९-४४-५ ॥
हे देव आपको धर्म नहीं समझाती केवल भवदीय वचन का स्मरण कराती। करना है प्रकट हमें निज वंश प्रवर्तक सम्पूर्ण शक्तिमय पुत्र शास्त्र अनुवर्तक॥ ९-४५ ॥
सुन प्रिया वचन आश्वस्त हुए विधिनन्दन बोले सस्मित मुख मुदित ब्रह्मकुल चन्दन। भद्रे तुमने सन्मार्ग मुझे दिखलाया जीवन का मधुर रहस्य मुझे सिखलाया॥ ९-४६ ॥
वस्तुतः अरुन्धती अद्वितीय तुम नारी तेरा होगा संतत इतिहास पुजारी। अनुरक्ति भक्ति से शक्ति पूर्ण विग्रहणी भारत ललना आदर्श सनातन गृहिणी॥ ९-४७ ॥
गीत देवता तुम दिव्यता की प्रणत की परिणति तुम्हीं हो। शिष्टता तुम सौम्यता की विरति की अनुरति तुम्हीं हो। वाटिका मंजुल सुखों की सुमति की परिमिति तुम्हीं हो। साधना श्रीराम की घनश्याम की अनुमिति तुम्हीं हो। दयित की तुम सफल गृहिणी भाग्य की तुम रम्य रेखा। वस्तुतः सत्संग मृदु पीयूष की तुम इन्दु लेखा। तुम मिलन की रागिनी हो सुरभि हो तुम वाटिका की। मधुप की हो रसिक कलिका हंसिनी हो वापिका की। तुम लड़ी हो मोतियों की मैं सरसतम ताग बांका। मैं नभस्तल का निशाकर तुम शरद की मधुर राका॥ ९-४८ ॥
आश्वस्त हुई अतिशय परितोषित पतिका सुर तरु आलिंगित हुई सुमन हित लतिका। आया बसन्त फिर दम्पति के जीवन में घोली मधुरस कोकिला मधुर कूजन में॥ ९-४९ ॥
चाँदनी चन्द्र की छिटक-छिटक अम्बर में भर रही शुद्ध मधुरस प्रफुल्ल मुनिवर में। बोले तिरछे अवलोक शान्त क्यों भामिनी बेरुखी चन्द्र से करती हैं क्यों यामिनी॥ ९-५० ॥
गीत बेरुखी इस भाँति है क्यों॥ परम मृदु पाटल पटल पर यह अंधेरी रात है क्यों। शान्त इस नीरव गगन में ध्यान में तल्लीन हो क्यों। किस अभूत प्रतीक्ष के गुणगान में लयलीन हो यों। हा अरुण नलिनी सुदल पर यह विषम हिमपात है क्यों। बेरुखी इस भाँति है क्यों॥ ९-५१-१ ॥ आज लख दिन मणि विभा को क्यों न छाया गुनगुनाती। देख पूर्ण शशांक को भी क्यों न राका मुस्कुराती। इस सुनहरी शर्वरी में यह विचित्र प्रभात है क्यों। बेरुखी इस भाँति है क्यों॥ ९-५१-२ ॥ मूक इस चिन्तन परिधि में वेदना अतिरिक्त कैसी। स्निग्ध सुस्मृति आ पगा हो वीचि कुल से रिक्त जैसी। सच कहो मुखड़ा छिपाता मधुप से जलजात है क्यों। बेरुखी इस भाँति है क्यों॥ ९-५१-३ ॥
आलम्बन उद्दीपन विभाव रस सम्भव हो गया प्रकट रसराज लसित सुमनोभव। तब अरुन्धती ने जना सुभग गुण मंदिर सम्पूर्ण शक्तियुत शक्ति नाम शुचि सुन्दर॥ ९-५२ ॥
सुरगन ने नन्दन पुष्प मुदित बरसाये सुर ललनाओं ने गीत सुमंगल गाये। बाजी नभ आश्रम में फिर सुघर बधाई ऋषिकुल में फिर से सुखद शरद ऋतु आई॥ ९-५३ ॥
मुख चूम पुत्र का अरुन्धती सुख फूली ले गोद तनय आनन्द हिड़ोल में झूली। सुन सुत का जन्म वशिष्ठ अधिक हरषाये चिरकाल वियोजित शक्ति मनो फिर पाये॥ ९-५४ ॥
शैशव रसकेलि सुधा से शिशु का पालन दम्पति करते अविराम तनय का लालन। माता अंचल से ढाँक वत्स का आनन पय पान कराती परम प्रेम पुलकित तन॥ ९-५५ ॥
शैशव अतीत कर शक्ति कुमार हुआ जब अवलोक रूप अति मोहित मार हुआ तब। उपनीत पुत्र ने पा गायत्री दीक्षा ली पूज्य पिता से ही सब वैदिक शिक्षा॥ ९-५६ ॥
गृहमेधी शक्ति हुए फिर वंश प्रवर्तक गोत्रों का कर उद्धार वेद अनुवर्तक। उनसे प्रकटे ऋषि रत्न पुत्र पाराशर जिनसे वशिष्ठ कुल ने पाई सुषमावर॥ ९-५७ ॥
जिसने पुराण मुनि व्यास पुत्र उपजाया कलि कामधेनु स्मृति रत्न विचित्र बनाया। कलियुगी जीव के लिए धर्म का निर्णय पाराशर की स्मृति ख्यात हुई मंगलमय॥ ९-५८ ॥
कौशिक मन का प्रतिशोध अभी भी सक्रिय जिससे हो चुके अनेक बार वे निष्क्रिय। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ न कहते मुझे अभी भी मैं रहने दूँगा सुखी न उन्हें कभी भी॥ ९-५९ ॥
यह सोच मंत्र से प्रेरित किया निशाचर खा गया शक्ति को उटज मध्य वह आकर। उजड़ा ऋषिकुल सर्वस्व हो गया स्वाहा हाहाकारों का स्वर बन में था हा हा॥ ९-६० ॥
कौशिक क्रोधानल में हुत शेष हुआ सुत फिर भी न हुए दण्डार्थ ब्रह्म सुत प्रस्तुत। साकार शक्ति अब निराकर तनु पाया यह जान न दम्पति मन में व्यापी माया॥ ९-६१ ॥
पाराशर हुये सरोष नयन अरुणारे राक्षस विनाश हित मख के हेतु पधारे। अवलोक बाल हठ ऋषि पुलस्त्य तब आये अपने संग ऋषि सत्तम वशिष्ठ को लाये॥ ९-६२ ॥
बोले वशिष्ठ सुत तजो शिशूचित आग्रह तुमको न उचित ब्रह्मर्षि पौत्र रिपु निग्रह। क्या व्यष्टि दोष से दुष्ट समष्टि सुनी है मिर्ची के कण से कड़वी सृष्टि सुनी है॥ ९-६३ ॥
निज कर्मों का परिणाम जीव पाता है उसको न सताता जगती का नाता है। तेरे भी पूज्य पिता निज कृत के फल से हो गये भस्म कौशिक के क्रोधानल से॥ ९-६४ ॥
यह कर्म बन्ध अनिवार्य विचार विचक्षण इसकी गति अकथ अनन्त विचित्र विलक्षण। अतएव मान विधि की विडम्बना बालक तज शोक बनो वाशिष्ठ वंश प्रतिपालक॥ ९-६५ ॥
कह एवमस्तु पाराशर ने फिर तत्क्षण कर दिया रक्षनाशक शुभ यज्ञ विसर्जन। नभ हुआ शान्त चल रहा समीरण शीतल हँस पड़ी नियति अभिराम हुआ जगतीतल॥ ९-६६ ॥
बोले वशिष्ठवर वचन पौत्र मुख को छू हे वत्स वंशधर धन्य-धन्य मेरा तू। रच विष्णु पुराण संहिता यश पाओगे निज धवल कीर्ति से अगजग सरसाओगे॥ ९-६७ ॥
हे पौत्र शक्ति के पुंज पिता थे तेरे आज्ञाकारी सुत रत्न प्राण प्रिय मेरे। देवी अरुन्धती के लघु ललन दुलारे स्मृति शेष रह गये मुनि कुल के उजियारे॥ ९-६८ ॥
तुम पर निर्भर है आशा किरण हमारी अब तजो रोष आक्रोश बाल हठ भारी। हिंसा का उत्तर पौत्र नहीं प्रतिहिंसा उसकी शामक है एक असीम अहिंसा॥ ९-६९ ॥
अब पिता तुम्हारे सूक्ष्म रूप कण-कण में हो गये समाहित शक्ति रूप त्रिभुवन में। वे नहीं शोच्य अब तुमसा पुत्र प्रकट कर स्मरणीय हो गये वेद कर्म उत्कट कर॥ ९-७० ॥
देखो अग-जग यह एक शक्ति से चलता अज्ञात शक्ति द्वारा ही क्षण-क्षण पलता। यह क्षमा शक्ति हम विप्रों का भूषण है आसक्ति हमारे लिए महादूषण है॥ ९-७१ ॥
निष्काम कर्म योगी बन प्रभु गुण गायें अपने सत्कर्मों से हम उन्हें रिझायें। वस्तुतः विहित निज कर्म ईश पूजन है निष्ठा परिमल श्रद्धा ही सरस सुमन है॥ ९-७२ ॥
हम ब्राह्मण अब संयम की शक्ति बढ़ायें उससे ही शक्तिमान को झटिति रिझायें। कौशिक जिससे स्वयमेव झुके चरणों में बिखरे यह शक्ति विश्व के धूल कणों में॥ ९-७३ ॥
सुन पितामहामृत वचन बहुत सुख पाये पाराशर मुनि चरणों में शीश झुकाये। दादी अरुन्धती का करके अभिनन्दन पुलकित प्रसन्न हो गये शक्ति कुल नन्दन॥ ९-७४ ॥
अवलोक तितिक्षा मुनि वशिष्ठ की भारी व्रीडित कौशिक हो गये ब्रह्म व्रतधारी। बोले महर्षि साश्चर्य धन्य विधिनन्दन हैं धन्य-धन्य द्विज दम्पति निज कुल चन्दन॥ ९-७५ ॥
अगणित पुत्रों का निधन विलोक नयन से किंचित न वशिष्ठ हुए विचलित निज मन से। कर उग्र तपस्या तुष्ट करुँ अब उनको साधना शक्ति सन्तुष्ट करुँ अब उनको॥ ९-७६ ॥
तदनन्तर की आरम्भ सुतीव्र तपस्या सुर चकित हुए अवलोक महर्षि नमस्या। निर्धूम हुताशन सरित तेज आनन पर फटने सा लगा सभीत वितत यह अम्बर॥ ९-७७ ॥
हो गयीं दिशायें धूम्र विधाता आये ब्रह्मर्षि उठो कह मुनि को तुरत जगाये। बोले सुत माँगो क्षमा वशिष्ठ व्रती से प्रतिशोध न तेरा उचित मुनीन्द्र यती से॥ ९-७८ ॥
सुन विश्वामित्र वशिष्ठ भवन तब आये कह पाहि-पाहि चरणों में शीश नवाये। दे क्षमा दान कौशिक को गले लगाये कहकर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ उन्हें समझाये॥ ९-७९ ॥
जब तक सक्रिय था मुनि प्रतिशोध तुम्हारा तब तक मैंने न तुम्हें ब्रह्मर्षि पुकारा। यह संयम शक्ति झुकायी मुनिवर तुझको है इसी शक्ति पर कौशिक गौरव मुझको॥ ९-८० ॥
द्रुतविलम्बित जगत की भवभीत विडम्बना दलित हो इस संयम शक्ति से। विमल भारत अम्बर में खिले सरस मंगल शक्ति सरोज ही॥ ९-८१ ॥
॥ श्रीराघवः शन्तनोतु ॥