द्वादश सर्ग – भक्ति


अंबर क्षिति की दूरी ज्यों जीवन विभक्ति की रेखा। जो झुठलाने आयी हो शारदी पर्व विधु लेखा॥ १२-१ ॥

ईश्वर से जीवों का जो मंगल मधु मिलन कराती। परमात्म प्रेम की प्रतिमा है भक्ति वही कहलाती॥ १२-२ ॥

सद्गुण सुरतरु बीजों की यह एक अलौकिक धरती। जन-जन के हृदय कमल में मकरन्द प्रेम रस भरती॥ १२-३ ॥

जो कादम्बिनी सरी-सी चातक की प्यास बुझाती। यह कौन अलौकिक नलिनी जो कभी नहीं मुरझाती॥ १२-४ ॥

मृग ज्यों मरुमरीचिका में आसन्न मरण जो भटका। वह मन जिसकी आशा में निज प्राण रोक कर अटका॥ १२-५ ॥

उसकी जिजीविषा की जो है केन्द्र सुधा भूली सी। यह कौन मौन उपवन में फिर रही मस्त फूली सी॥ १२-६ ॥

सर्वांग सुसज्जित सुन्दर दिखती अपूर्व यह ललता। पर नहीं छू गयी जिसको कुत्सित कुरूपता छलना॥ १२-७ ॥

चंचल क्या चितवन इसकी क्यों दिखती नहीं तिरीछी। जिसकी चेतना सुधा से हुई शान्त वासना बीछी॥ १२-८ ॥

लोचन नवनील नलिन से पर नहीं कर रहे घायल। हाँ वैदिक ऋचा सुनाती जिसके चरणों की पायल॥ १२-९ ॥

ये नहीं बाण से वेधक देवी के कंज विलोचन। निर्वाण सार सर्वस ये भीषण भव भय के मोचन॥ १२-१० ॥

समरुण कपोल पर इसके किंचित न काम की रेखा। आनन अवलोक लजाती अकलंक पूर्ण विधु लेखा॥ १२-११ ॥

पाटल रसाल पल्लव से अधरों पर लसती लाली। पर जिस पर थिरक रही है वात्सल्य अमृत की प्याली॥ १२-१२ ॥

कुछ लटक रहे भटके से झष मकर केतु के कुण्डल। जिससे अब अधिक सलोना बन गया अनघ मुख मंडल॥ १२-१३ ॥

अति मधुर मंद सुस्मित है किसका करुणारस निर्भर। जो सोख रहा द्रुतगति से जन शोक अश्रु का सागर॥ १२-१४ ॥

दाडिमी बीज राजी सी रद पंक्ति पवित्र बतीसी। प्रिय वशीकरण मूलीमय जिस पर लसती है मीसी॥ १२-१५ ॥

मुक्तामय मंगल बेसर नासा में लटक रही है। मुक्तों की अवली इस मिष श्रद्धा नत अटक रही है॥ १२-१६ ॥

घन गगन भानुजा जल सा सीमन्त लस रहा नीला। जिससे संचालित होती अव्यक्त पुरुष रस लीला॥ १२-१७ ॥

परमेश्वर विविध वपुष में मृदु कुसुम गुच्छ मय लसते। अनुराग समीर समीरित पद तल में अवनत खसते॥ १२-१८ ॥

यह हार हृदय पर कैसा प्रिय लोचन चित्त चुराता। हारा परमेश्वर ही ज्यों हिय हार बना छवि पाता॥ १२-१९ ॥

अष्टांग योग मय मानो लसे अष्ट कमल दल माला। जनु मनोभृंग मँड़राते जिनको न उड़ाती बाला॥ १२-२० ॥

आकारिक प्रश्न उपनिषद समकर में कंकण सोहें। किंकिणि-किं किं कह उत्तर मीमांसा सी मन मोहें॥ १२-२१ ॥

मंजीर धीर धुन करते चरणों में अधिक सुहाये। मनो मदन जलज पर मुनिवर हंसों ने नीड़ बनाये॥ १२-२२ ॥

यह राजहंस सी चलती फिर भी न किमपि इठलाती। अर्भक वत्सल जननी सी चुपके से सम्मुख आती॥ १२-२३ ॥

युग कनक कलश से सुन्दर उर में राजते पयोधर। जिनसे छर-छर छरता है वात्सल्य क्षीर रस सुमधुर॥ १२-२४ ॥

यह प्रकृति सुन्दरी भामिनि पर कामिनी नहीं कभी भी। मधुराका शरद निशा है अमायामिनी नहीं कभी भी॥ १२-२५ ॥

यहाँ नहीं भूलकर मन्मथ छोड़ता पंच वाणों को। इनके चरणों की रज से पावन करता प्राणों को॥ १२-२६ ॥

शत उमा रमा ब्रह्माणी इसके स्वरूप पर वारी। बलिहारी जाती इसपे शत कोटि-कोटि रति नारी॥ १२-२७ ॥

लक्ष्मी जिसकी सुषमा का परमाणु कथंचित पाके। कृत कृत्य हुयीं निज पति को शोभा से प्रथम रिझाके॥ १२-२८ ॥

यह रूपवती होकर भी मन में कुछ गर्व न करती। निज विनय वचन रचना से अभिराम राम मन हरती॥ १२-२९ ॥

प्रति अंग अनंग विवर्जित मल से सर्वथा अछूती। कूटस्थ जगत पति के भी मन को चुपके से छूती॥ १२-३० ॥

किस कलाकार का ऐसा निर्दोष सर्ग अति सुन्दर। जिसमें न भासते अवगुण जो है कल्याण गुणाकर॥ १२-३१ ॥

निर्गुण रस रूप सनातन निज दिव्य गुणों से खिंचकर। होता गुण रसिक स्वयं भी इस सरोजिनी का मधुकर॥ १२-३२ ॥

अग जग के जादूगर पर इसने क्या जादू डाली। जो इसके हुआ वशंवद कर लीला रसिक निराली॥ १२-३३ ॥

देख न गया त्रिभुवन में ऐसा पत्नी प्रिय स्वामी। अनुगम्य सुरों का होकर इसका जो बना अनुगामी॥ १२-३४ ॥

बोलो-बोलो हे भद्रे क्या वशीकरण यह तेरा। अग जग का नायक जिससे तेरे चरणों का चेरा॥ १२-३५ ॥

ठहरो मत दूर न जाओ खोलो रहस्य यह भोरी। अग-जग के ठग पर तुमने डारी यह कौन ठगौरी॥ १२-३६ ॥

यह मर्म प्रिया प्रियतम का इससे तुम यहाँ छिपाती। कोई न यहाँ अधिकारी इससे तुम नहीं बताती॥ १२-३७ ॥

यदि भद्रे शुद्ध हृदय से मैं तुम्हें मान लूँ माता। तो भी क्या हो जायेगी मेरी गरिमा आख्याता॥ १२-३८ ॥

माता भी नहीं तनय को पति मधुर मर्म बतलाती। केवल शिशु पालन करती प्रस्नुत पय पान कराती॥ १२-३९ ॥

सुत है अधिकृत उसमें ही अतिरिक्त न गेय उसे है। पितृ-मात पदाब्ज युगल से अतिरिक्त न ध्येय उसे है॥ १२-४० ॥

इस माँ ने सपने में भी सुत से न कभी कुछ चाहा। बिन पूछे गुण अवगुण के नाता निरपेक्ष निबाहा॥ १२-४१ ॥

हा हन्त कभी न निहारा शिशु के शत अपचारों को। शत बार कहा वल्लभ से स्वाभाविक उपचारों को॥ १२-४२ ॥

स्थिति में भी किसी विकल हो बालक जब उसे बुलाता। पात्रता बिना ही परखे आती तत्क्षण ही माता॥ १२-४३ ॥

कर दूषण दूर उसी क्षण पहना शुचि सद्गुण भूषण। पति निकट तुरत ले जाकर कर देती विश्व विभूषण॥ १२-४४ ॥

वर बोध सुशीतल जल से माँ उसे प्रथम नहलाती। फिर भजन सुधा रस मिश्रित भोजन से क्षुधा मिटाती॥ १२-४५ ॥

आसक्ति धूम्र धूली कण उपरति तड़ाग में धोती। फिर पहनाती सुत उर में प्रियतम भावों के मोती॥ १२-४६ ॥

चिढ़ती न कभी दोषों से यह पुत्र वत्सला कैसी। नव जात वत्स मन हरती है स्वयं कामधुक जैसी॥ १२-४७ ॥

यह शनैः शनैः पावक को पति के समीप पहुँचाती। ज्यों ब्रह्म जीव बिच माया निश्छल साहचर्य निभाती॥ १२-४८ ॥

अति दारुण अपराधों पर निज पति से क्षमा दिलाती। शतियों से बिछुड़े सुत को जननी पितु अंक बिठाती॥ १२-४९ ॥

कुलिषादपि कठिन दयित को विद्रुम समान पिघलाती। पति विमुख पुत्र को भी वह साधना मन्त्र सिखलाती॥ १२-५० ॥

उडुगण पार्वण शशि कलिता तुम मधुराका रजनी हो। वात्सल्यमयी लोकोत्तर तुम ममतामय जननी हो॥ १२-५१ ॥

पालित सुत से भी तुमने की कुछ भी नहीं अपेक्षा। सपने में भी न तनय की तुमने की दोष समीक्षा॥ १२-५२ ॥

सौन्दर्य शील की सीमा कर स्ववश दयित को लसती। प्राणेश दिवाकर को लख नलिनी सी सतत विकसती॥ १२-५३ ॥

तेरे पराग के ऊपर गूँजे न कभी भी मधुकर। यह दिव्यशील पातिव्रत अनुकार्य नहीं भूतल पर॥ १२-५४ ॥

प्राणाधिक प्रिय बल्लभ की तुम परम प्रेम रूपा हो। अमृत स्वरूपिणी सुख दे पद नत सुर नर भूपा हो॥ १२-५५ ॥

सुस्पर्श कंज कर का भी जिस पर हो गया तुम्हारा। लोकोत्तर होकर जग में वह फिरा न मारा-मारा॥ १२-५६ ॥

उन्मत्त मूक जड़ जैसा फिरता प्रपंच से न्यारा। वह बना भुवन का भूषण होता अग-जग को प्यारा॥ १२-५७ ॥

किस कलाकार ने तुमको आर्ये इस भाँति बनाया। जिसको न कभी ठग पायी यह विषम वैष्णवी माया॥ १२-५८ ॥

नारी-नारी के छवि पर आकृष्ट न होती जग में। इस कारण ही सम्भव है तुम रंगी न इसके रंग में॥ १२-५९ ॥

यह प्रकृति चंचला कुलटा जग में स्वच्छन्द विचरती। पल मध्य धीर मुनियों के मानस को मोहित करती॥ १२-६० ॥

पर तुम हो सती शिरोमणि शाश्वत पति मती अनन्या। अनुकूल भर्तृका दिव्या नायिका मानिनी धन्या॥ १२-६१ ॥

मानव की मानवता की तुमने की निर्मित काया। यह सच है भक्ति तुम्हीं ने भूतल को स्वर्ग बनाया॥ १२-६२ ॥

तुम परितोषिक पतिका हो ललना ललाम निष्कामा। आनन्द सुधाकर ज्योत्सना भगवत प्रिय भामा रामा॥ १२-६३ ॥

भगवान तुम्हारे वश हो नीचातिनीच घर जाते। संकल्प पूर्ण उसका कर अति पावन प्रेम निभाते॥ १२-६४ ॥

बन गये कनौड़े जन-के भगवान तुम्हारे कारण। अतएव ग्राह से छूटा गर्वित पशु पामर वारण॥ १२-६५ ॥

ये भुक्ति मुक्ति भी तेरे चरणारबिन्द की दासी। तेरे हैं ऋणी निरंतर ईश्वर समर्थ अविनाशी॥ १२-६६ ॥

अन्याभिलाषिता शून्या निरपेक्ष ज्ञान साधन से। प्रिय पति को सदा नचाती तुम परम प्रेममय धन से॥ १२-६७ ॥

निर्ग्रन्थ ब्रह्म का कैसा मैथिली ग्रन्थि में बंधन। यह धान कूटना कैसा परमेश्वर का आराधन॥ १२-६८ ॥

यह क्या निषाद का आग्रह पद प्रच्छालन हित प्रभु से। कोलों का मधुर उलाहना कैसा विचित्र यह विभु से॥ १२-६९ ॥

खगपति जटायु अंत्येष्टि शबरी गृह फल का भक्षण। यह सागर सेतु निबंधन कैसा यह कपिकुल रक्षण॥ १२-७० ॥

तेरे कारण ही यह सब भावी सुवृत्त भी सम्भव। ईश्वर ने सब स्वीकारा तेरे हित प्रकृति पराभव॥ १२-७१ ॥

रहकर भी पति अनुकूला तुमने न कभी कुछ चाहा। निष्काम भाव से प्रभु का पावन दाम्पत्य निबाहा॥ १२-७२ ॥

अनुराग राग रंजित हो परमेश्वर मधुकर जैसे। वह भाव कंज कोसों में रुँध गये पराजित कैसे॥ १२-७३ ॥

अन्याश्रय त्याग तुम्हारा है परम मर्म जीवन का। लौकिक वैदिक विधियों से उपराम धर्म साधन का॥ १२-७४ ॥

सब कुछ तज शुभे जगत में तुमने न परम पद छोड़ा। तोड़ा जगती का नाता प्रभु से न कभी मुख मोड़ा॥ १२-७५ ॥

तुम परम प्रकाश प्रसन्ना हो दीप शिखा मणिगण की। अम्बर की पुण्य विभा तुम हो शोभा तुम उडुगण की॥ १२-७६ ॥

हे दिव्य दीपिके तुमको क्या बात बुझा पायेगा। क्या क्रूर वरूथ खलों का तेरा नाम मिटा पायेगा॥ १२-७७ ॥

तुम दिव्य ज्योति दीपक की बनकर अशेष तम हरती। बन रश्मि रश्मिमाली की अग जग को रसमय करती॥ १२-७८ ॥

तुम स्वयं महा रस रूपा रसिकेश्वर रस प्रदा हो। तुम दिव्य बोध श्रुतियों का आगम रहस्य सुखदा हो॥ १२-७९ ॥

उपनिषदों की गुरु गाथा मुनियों की करुण कहानी। इतिहास हास शुचि शाश्वत कवियों की कथा पुरानी॥ १२-८० ॥

प्रति रोम-रोम में तेरे परमात्म स्मृति झंकृति है। तुम विश्व भारती मंदिर तुममें अपूर्व उपकृति है॥ १२-८१ ॥

तुमको न जान पायेगा भूतात्मा भौतिक वादी। वस्तुतः तुम्हीं ने जग की झंझा पल मध्य मिटा दी॥ १२-८२ ॥

यह अर्थवाद मानव की तृष्णा को अधिक बढ़ाता। कर दानवता का सर्जन जीवन रस हीन बनाता॥ १२-८३ ॥

दिन रात प्रतिस्पर्धा की यह भाग दौड़ है चलती। विश्राम न क्षण भर मिलता मन में अशांति ही पलती॥ १२-८४ ॥

नर स्वयं यन्त्र बन करके यन्त्री को भूल गया है। अतएव मोह मदिरा से पागल हो फूल गया है॥ १२-८५ ॥

यह चकाचैंध हा कब तक कब तक भौतिक सुविधायें। क्षण भंगुर कभी न होंगी पूरी मन की आशायें॥ १२-८६ ॥

ज्यों ज्यों तनाव बढ़ता है दिन-दिन इस मानव मन पर। त्यों त्यों होता यह निर्बल अपना विवेक बल खोकर॥ १२-८७ ॥

कोल्हू में तेल सरीसा यह मानव पेरा जाता। क्षण भर न कभी इस जग में विश्राम शांति वह पाता॥ १२-८८ ॥

अंततः भूल वह सब कुछ भव मूल धूल में मिलता। होकर पतंग इन झूठी दीपक लपटों में जलता॥ १२-८९ ॥

इन जटिल समस्याओं का है समाधान एक अनुपम। आरूढ़ भक्ति नौका पर नर तर सकता भव दुर्गम॥ १२-९० ॥

भजनीय भक्ति भेदों की खाई पटती है इससे। दारुण विषयों की तत्क्षण काई कटती है इससे॥ १२-९१ ॥

यह कर्मयोग ज्ञानों से श्रेयसी प्रेयसी प्रभु की। सर्वस्व समर्पण रूपा वरदा वरीयसी विभु की॥ १२-९२ ॥

यह धृति विषय बुभुक्षा गति का सोपान मनोहर। आराम भुक्ति मुक्ति का अभिराम प्रेम रस निर्भर॥ १२-९३ ॥

यह कौन मौन माता सी चुपके-चुपके से आकर। घुस जाती मन मन्दिर में स्मृति का वर दीप जलाकर॥ १२-९४ ॥

साधना साध्य की बनकर फिर स्वयं साध्य बन जाती। पुरुषार्थ रूप हो पहले फिर तो परमार्थ कहाती॥ १२-९५ ॥

यह विमल व्योम गंगा सी अपनी रसधार बहाकर। कर रही हृदय को शीतल भीषण भव त्रिशिख बुझाकर॥ १२-९६ ॥

चपला सी चम-चम चमकी उर गगन हुआ आभामय। यह कौन सुधा औषधि सी अन्तर कर रही निरामय॥ १२-९७ ॥

यह कौन विपंची वंशी डर के उपवन में बजती। धीरे-धीरे अणु अणु में यह कौन आरती सजती॥ १२-९८ ॥

यह कौन कठिन घावों पर कर लेप सलोने कर से। कर रही वैद्य कन्या सी मुझको विमुक्त इस जवर से॥ १२-९९ ॥

किसका मंजीर सुहावन ध्वनि मिष श्रवणों में आकर। मन को बेचैन बनाता अपने हित कुछ ललचाकर॥ १२-१०० ॥

यह कौन इन्दु ज्योत्सना सी मन सिन्धु तरंगित करती। जीवन में मधुर पिपासा निज कर वितरण से भरती॥ १२-१०१ ॥

यह कौन पूर्व परिचित सी मन मंदिर में आ बैठी। अपनी कर स्वयं व्यवस्था अनुराग तल्प पर बैठी॥ १२-१०२ ॥

यह कौन पंच कोशों को दोषों के साथ जलाती। अभिराम अग्नि ज्वाला सी ज्योतिर्मय हृदय बनाती॥ १२-१०३ ॥

यह कौन मुक्ति मुक्ता का उपहार समर्पित करती। परमेश्वर प्रीति सुधा से यह कौन क्षुधा को हरती॥ १२-१०४ ॥

वस्तुतः भक्ति देवी तुम मैंने तुमको पहचाना। करके वैचारिक मंथन निज इष्ट तुम्हीं को माना॥ १२-१०५ ॥

है कुसुम श्रुति विहित साधन उनका विज्ञान सुफल है। उसकी भी तू रस रूपा अति निर्विकार निर्मल है॥ १२-१०६ ॥

तुम निःसपत्न प्रभु की हो वल्लभा प्राण से प्यारी। श्रुतियों ने गायी सादर तेरी ही महिमा न्यारी॥ १२-१०७ ॥

तुमको मानते नहीं हैं रस हीन वासना पोषक। जो बुद्धिवाद से प्रेरित उच्छृंखल मन के शोषक॥ १२-१०८ ॥

पर उनके कहने से क्या तेरा उत्कर्ष मिटा है। कतिपय उलूक निन्दा से क्या रवि का सत्त्व घटा है॥ १२-१०९ ॥

यदि उज्जवल रस है राजा तुम उसकी भी माता हो। तुम कहीं न अन्तर्भूता श्रुतियों में भी ख्याता हो॥ १२-११० ॥

शृंगारिक रति में सम्भव क्या अन्तर्भाव तुम्हारा। क्या पल्लव जल में छिपती अविरल सुरसरि की धारा॥ १२-१११ ॥

देवाधि विषयिणि रति भी तुम कभी नहीं हो सकती। पुत्री की सत्ता में क्या माँ की सत्ता खो सकती॥ १२-११२ ॥

हैं जीव कोटि में सुरगण तुम परमेश्वरान्तरंगा। अतएव विलक्षण सबसे शाश्वती भक्ति रस गंगा॥ १२-११३ ॥

तुम नवों रसों से ऊपर उत्कृष्ट भक्तिमय रस हो। श्रुति में रस शब्द समर्चित वैदिक वाङ्मय सर्वस हो॥ १२-११४ ॥

पुरुषोत्तम तुमको पाकर होते रस अनुभव कर्त्ता। तेरे बल पर ही मानव होता दानव संस्कर्ता॥ १२-११५ ॥

अनुभूति नहीं अपरोक्षा प्रत्यक्ष तुम्हारा दर्शन। सचमुच तुम करवा देती उस परमपिता का स्पर्शन॥ १२-११६ ॥

तुम स्वाद सुधा रस का हो आह्लाद विश्व सर्जन का। तुम मूल मन्त्र प्राणी के अति मंगलमय अर्जन का॥ १२-११७ ॥

तेरे अभाव में मानव रहता असहाय अधूरा। तेरे बिन नारायण का होता न स्वप्न भी पूरा॥ १२-११८ ॥

जब तक तेरी करुणा की अनुभूति नहीं हो जाती। तब तक ज्ञानी जन को भी माया भुजंगिनी खाती॥ १२-११९ ॥

होते हैं पतित स्वपथ से तब तक योगी ज्ञानी जन। जब तक न उन्हें मिलता है जननी तेरा अवलम्बन॥ १२-१२० ॥

जब श्री हरि गुण कीर्तन से लाक्षा ज्यों मन द्रुत होता। वासना कठिनता को वह तत्क्षण समग्रतः खोता॥ १२-१२१ ॥

तब मनोवृत्ति गंगा सी आतुर प्रभु सन्मुख जाती। भगवदाकार सी रञ्जित वह तभी भक्ति कहलाती॥ १२-१२२ ॥

अविराम तैल धारावत् वह मनोवृत्ति अति निर्मल। भगवत्स्वरूप को पाकर अब बनी भक्ति अति अविरल॥ १२-१२३ ॥

कामादि महा दोषों का करके अशेषतः भंजन। मेरे अन्तर्यामी का कर रही मधुरतम रंजन॥ १२-१२४ ॥

तुम नवों रसों का उद्गम है पृथक तुम्हारी सत्ता। क्या जान सके नर पामर तेरी अपूर्व गुणवत्ता॥ १२-१२५ ॥

इन्द्रियातीत सत्ता का तुमने प्रत्यक्ष कराया। तुमने सुसाधकों का भी मुझको अध्यक्ष बनाया॥ १२-१२६ ॥

अब आज श्रेष्ठ वनिता बन दर्शन देने आयी हो। जीवन आयामों के भी उपहार नये लायी हो॥ १२-१२७ ॥

मुझ निश्किंचन ब्राह्मण की कुटिया सनाथ कर दी है। अपनी वात्सल्य सुधा से भव क्षुधा देवि हर ली है॥ १२-१२८ ॥

जाने न कहीं भी दूँगा तुमको अब मन से बाहर। बन अधिदेवता हृदय की जननी प्रसन्न मुझको कर॥ १२-१२९ ॥

हे भक्ति मिला दो प्रभु से मैं मन का ताप मिटाऊँ। उनके चरणों में रहकर भव से विमुक्त हो जाऊँ॥ १२-१३० ॥

पर क्षण भर अलग न होगी मेरी अरुन्धती मुझसे। अतएव युगल की सेवा स्वीकार विनय यह तुझसे॥ १२-१३१ ॥

देखो अरुन्धती देखो यह एक सुन्दरी आयी। नूपुर की झनकारों से चेतना नई सी लाई॥ १२-१३२ ॥

आओ भद्रे ढिग आवो इनका सौन्दर्य निहारो। इनकी इस रूप सुधा पर रति कोटि-कोटि शत वारो॥ १२-१३३ ॥

थी कुसुम चयन में तत्पर सुन आतुर प्रियतम का स्वर। आई अरुन्धती दौड़ी विस्मय से किमपि मुखरतर॥ १२-१३४ ॥

हा हन्त आर्यसुत सपना क्या देख रहे इस क्षण हैं। है नहीं नींद भी इनको उन्मिषित युगल लोचन हैं॥ १२-१३५ ॥

क्यों असम्बद्ध वचनों को इस भाँति उचार रहे ये। किसके वार्ता के क्रम में अब मुझे पुकार रहे ये॥ १२-१३६ ॥

जाकर देखा ऋषि सम्मुख थी खड़ी एक वर नारी। जिसकी सौन्दर्य विभा पर रति कोटि-कोटि बलिहारी॥ १२-१३७ ॥

चंपक समान तन आशा दामिनि सी दमक रही थी। कौशेय शाटिका उस पर चपला सी चमक रही थी॥ १२-१३८ ॥

नंदन प्रसून गुच्छों से गुम्फित सीमंत सुहावन। जिसको कुछ ढाँक रहा था सिर का अंचल अति पावन॥ १२-१३९ ॥

मुक्ता लड़ियों से मण्डित वर माँग सुहाग भरी थी। चूड़ामणि की शोभा से मानो सौभाग्य जड़ी थी॥ १२-१४० ॥

पार्वण शशांक रेखा सी टीका की शोभा न्यारी। आयत ललाट पर लसती कुंकुम रेखा अति प्यारी॥ १२-१४१ ॥

झष केतु-केतु से कुंडल श्रवणों में शोभा पाते। चिक्कन कपोल समरुण थे सरसीरुह कोष लजाते॥ १२-१४२ ॥

निर्वाण कोटि सम सुखप्रद मुस्कान मान मद हरती। अकलंक शरद शशि आनन शोभा सबको वश करती॥ १२-१४३ ॥

खंजन मृग मीन सरोरुह नयनों से शोभा पाते। मुक्तात्मा ज्यों मुक्तागण नासा में अधिक सुहाते॥ १२-१४४ ॥

अरुणाधर विम्बाफल से चितवन चेतना बरसती। कोकिला काकली वाणी मुनि का भी हृदय करसती॥ १२-१४५ ॥

थे अंग अंग पर शोभित मणिमय महार्घ्य पट भूषण। मंगलमय विग्रह उनका जिसमें न मनागपि दूषण॥ १२-१४६ ॥

हीरक मणि माणिक मुक्ता मय रुचिर हार उर थल में। वात्सल्य पंकरुह जैसे उर भव युग वक्षस्थल में॥ १२-१४७ ॥

नाभी गँभीर त्रिवली युत किंकिणी की धुनि अति प्यारी। पद पद्मों में नूपुर थे अति सान्द्र मधुर लयकारी॥ १२-१४८ ॥

अवलोक चाल देवी की गजराज हंस शरमाते। इंगित वचनों से कोकिल शुक की सुशिक्षा पाते॥ १२-१४९ ॥

कुंचित मेचक वर कुन्तल एड़ी पर्यन्त लटकते। ज्यों श्वेत कमलिनी ऊपर मधुकर अतिमत्त भटकते॥ १२-१५० ॥

सम्मुख विलोकि देवी को ऋषि पत्नी ने सकुचाकर। सानन्द किया अभिनन्दन चरणों में शीश झुकाकर॥ १२-१५१ ॥

सोचने लगी मन में फिर क्या ही अपूर्व सुषमा है। क्या त्रिभुवन में यह शोभा इसकी कोई उपमा है॥ १२-१५२ ॥

निर्माण किया होगा क्या विधि ने इस रूप सुधा का। अनुमान किया होगा क्या विधि ने इस छवि वसुधा का॥ १२-१५३ ॥

देवियाँ सभी नित मेरे ढिग आशिष लेने आतीं। वे भी ऐसी शोभा से सम्पन्न न देखी जातीं॥ १२-१५४ ॥

मुनिवधू कृतांजलि बोली शत कोटि नमन आर्या को। सुस्वागत पद वन्दन है शत कोटि नारि वर्या को॥ १२-१५५ ॥

पंकज कंटक का अदभुत संयोग हुआ किस कारण। अभिराम सुधा वसुधा का विधि योग हुआ किस कारण॥ १२-१५६ ॥

समझें यदि उचित कृपा कर मुझको तो मर्म बतायें। सहसा निज शुभागमन के कारण भी मुझे जतायें॥ १२-१५७ ॥

हे शुभे बतायें सच-सच हैं आप कहाँ से आयीं। है कौन मौन व्रत साधे क्या नूतन वाचिक लायीं॥ १२-१५८ ॥

वस्तुतः भवादृक् महिला निष्कारण कहीं न जाती। पर अपने गुप्त मर्म को सबको है नहीं बताती॥ १२-१५९ ॥

सुन अरुन्धती की वाणी हँस भक्ति वचन मृदु बोली। अंचल आवृत कर आनन मानस में मधुरस घोली॥ १२-१६० ॥

गीत इस परम एकान्त वन में ईश की वरभक्ति हूँ मैं। विगत कल्मष शान्त मन में मनुजता की शक्ति हूँ मैं॥ १२-१६१-१ ॥ चतुर विधि की चातुरी का एक मात्र रहस्य सर्जन। पूजकों की मैं समर्चा और आवाहन विसर्जन। क्षितिज सी अम्बर पुहुमि की ईश जन अविभक्ति हूँ मैं॥ १२-१६१-२ ॥ नित्य निष्कल जीव की अनिवार्यता मैं सहज सत्ता। ब्रह्म की आह्लादिनी मैं हूँ महानर की महत्ता। गीत की हूँ रागिनी मैं मीत की अनुरक्ति हूँ मैं॥ १२-१६१-३ ॥

भगवान व्यूह सुत बनकर हो शिष्य यहाँ आयेंगे। दम्पति की इस कुटिया को निज छवि से सरसायेंगे॥ १२-१६२ ॥

अतएव प्रथम आई हूँ उनकी अनन्य मैं दासी। इच्छा सब पूर्ण करूँगी हे ऋषि दम्पति वनवासी॥ १२-१६३ ॥

तुम भूरि भाग भाजन हो अनुपम सौभाग्य तुम्हारा। अब शिष्य बनेगा जिनका प्रभु कोसल राज दुलारा॥ १२-१६४ ॥

पहले सुयज्ञ को पाकर प्रभु व्यूह रूप निर्धारो। फिर पूर्ण ब्रह्म रघुवर की शोभा भर नयन निहारो॥ १२-१६५ ॥

शार्दूलविक्रीडित आई सन्मुख ईश शक्ति विमला योषामयी विप्र के गाई पुत्र सुयज्ञ संभव कथा श्रीराम की शिष्यता। अन्तर्धान हुई परेश महिषी आश्वस्ति देके पुनः खोई शोक अरुन्धती वन बसी ब्रह्मर्षि के संग में॥ १२-१६६ ॥

॥ श्रीराघवः शन्तनोतु ॥