दशम सर्ग – उपराम


नियति ने उपराम अब प्रस्तुत किया विप्र दम्पति के सरस इतिहास में। प्रहर अब आगन्तुकाम तृतीय था दिवस के अभिराम इस अध्याय में॥ १०-१ ॥

क्या यही उपराम राम समीप की रच रहा मंजुल मनोहर भूमिका। शक्ति सुत अथवा निराकृति हो स्वयं दे रहा उपहार यह स्मृति रूप में॥ १०-२ ॥

श्रवण गत कुछ कुन्तलों की श्वेतिमा दे रही मुनि को मनो यह प्रेरणा। सजग हो रच लो त्रिदिव सोपान को वयस के इस चरम चारु विभाग में॥ १०-३ ॥

यदपि थी तिल मात्र भी मन में नहीं तपन त्रासन मृत्यु भीम विभीषिका। तदपि राम पदारविन्द मरन्द की बढ़ रही उर में तृषा मुनिराज के॥ १०-४ ॥

तुरग सी त्वरितासमातुर इन्द्रियाँ वितर थीं अब हो रहीं भव भोग से। पथिक ज्यों निज लक्ष के सुसमीप जा गमन का करता मनोज्ञ विराम है॥ १०-५ ॥

बित गयी मधुमास मञ्जु विभावरी क्षितिज में प्रकटा प्रफुल्ल प्रभात था। अरुण की बिखरी चतुर्दिक लालिमा उदित थी जिसमें चमत्कृत चेतना॥ १०-६ ॥

मलय मारुत मन्द-मन्द समीरणा चलित चारु रसाल पल्लव लोलता। जगत के क्षणभंगुरस्थितिबोध से रच रही उपराम की रमणीयता॥ १०-७ ॥

तज स्वनिर्मित नीड़ की ममता मुधा वियत में उड़ते विहंग वरूथ थे। विरत हो गृह के प्रपञ्च कलाप से चतुर साधन साधना रत हों मनो॥ १०-८ ॥

विकच पंकजिनी पराग प्रवाह को मलय मारुत हो प्रसन्न परोसता। श्रुति शिखामणि भक्ति की रस राशि ज्यों परम वैष्णव हो उदार लुटा रहे॥ १०-९ ॥

रश्मि माली रश्मि-रश्मि समूह से हिम कणाम्बु समेटता तृण पे पड़े। पूर्व संस्मृति शेष को उपराम जो वह विचारों में तिरोहित कर रहा॥ १०-१० ॥

खिल गयी सर में कमन कमलावली मधुप मँड़राते उसी पर जा सभी। वर विराग प्रबुद्ध मेधा में मनो सकल सद्गुण सहजता से आ बसे॥ १०-११ ॥

प्रकृति में अवलोक इस उपराम को परम उपरत हो रहें द्विज दम्पती। पौत्र पाराशर परिष्कृति कारिणी प्रीति उनको थी उटज में रोकती॥ १०-१२ ॥

निज विचारों में स्वयं खोयी हुई पद्मिनी सर मध्य ज्यों अपराह्न की। या मनोहर मूर्ति उपरति की बनी थी उटज में लीन आज अरुन्धती॥ १०-१३ ॥

शान्त था आकार आनन पद्म पर था न सुस्मिति का तनिक आभास भी। अधर पल्लव सम्पुटित दशनावली दृष्टिगोचर आज थी होती नहीं॥ १०-१४ ॥

था नहीं उन्मेष पलकों का तनिक पक्ष्म भी निष्पक्ष हो पद चूमते। पुतलियाँ निशि में मनो अलिनी जुगल नयन नील सरोज कोश निलीन थी॥ १०-१५ ॥

कुछ गये मुरझा मनो मुनि नारि के श्रवण भूषण युगल फूल कनैल के। अंचलावृत मुख अधःकृत भामिनी शून्य मन से शान्त चित्त निषण्ण थी॥ १०-१६ ॥

ढह गये थे काल्पनिक प्राकार भी थे बने निष्क्रिय समस्त विचार भी। स्वप्न के उजड़े हुए निज नीड़ में विहगिनी सी निस्पृहा बैठी हुई॥ १०-१७ ॥

परम नीरव विपिन का वातावरण अधिक उसको कर रहा अन्तरमुखी। पूर्व स्मृतियों का अनघ अवशेष यह शेष रक्षण हेतु कुछ उतला रहा॥ १०-१८ ॥

क्षितिज था कुछ शून्य सिन्धु गँभीर था पर न थी कल्लोल लोलायित वहाँ। थी अमा की रात ज्यों उसके लिए दूर थी अब ज्वार की सम्भावना॥ १०-१९ ॥

द्रुहिण की यह दुर्निवार विडम्बना यदपि दम्पति को न विचलित कर सकी। तदपि जीवन के मधुर मधुमास में ग्रीष्म ऋतु की भूमिका यह बन गयी॥ १०-२० ॥

आ गये सहसा महामुनिवर वहाँ निज विचारों में सती खोई रही। कर न पायी प्रणति अभिनन्दन क्रिया नैन से ढिग बैठने को कह दिया॥ १०-२१ ॥

इंगितज्ञ महर्षि प्रिय समीप ही जा कुशासन पर विराजे शान्ति से। दक्षता सह दक्ष दक्ष विभाग में मग्न उपरति के अनुप तडाग में॥ १०-२२ ॥

कुछ क्षणों में जब कथंचित देवि की वृत्ति चिन्तन सिन्धु से बाहर कढ़ी। तब सहजता से महर्षि वशिष्ठ ने प्रश्न प्रश्रय पूर्ण पत्नी ने किया॥ १०-२३ ॥

देवि क्यों इस भाँति आज गँभीर तुम उठ रहे सुविचार मन में कौन ये। उचित समझो तो कहो मुझसे शुभे अमल मानस के नमस्य रहस्य को॥ १०-२४ ॥

उन्मिषित किंचित नयन नत कंधरा पति परायण सद्गुणाति वसुन्धरा। तब कृतांजलि वचन यों कहने लगी रुद्ध स्वर से रोक अश्रु अरुन्धती॥ १०-२५ ॥

गीत कहूँ मैं किससे मन की बात। विधि विडम्बना नलिनी दल पर अहो विषम पबि पात॥ १०-२६-१ ॥ दूर चन्द्र कोशों सागर से केवल खन-खन ध्वनि गागर से। बिन्दु मात्र भी नहीं वहाँ जल कैसा विषम विघात॥ १०-२६-२ ॥ मलय मरुत के मर्मर स्वर से सरित सरोवर औ निर्झर से। लै उच्छवास सिसकियाँ भरकर रोता आज प्रभात॥ १०-२६-३ ॥ उजड़ा नीड़ व्यथित पक्षी कुल जलद दरस हित केकि समाकुल। अहो चंडकर की किरणों से सूख रहा जलजात॥ १०-२६-४ ॥

दयित मेरे पास अब क्या रह गया सरस स्वप्निल सदन भी तो ढह गया। हाथ खंडहर ही अभागिन के लगा धधकती जिसमें अभी तक आग है॥ १०-२७ ॥

शक्ति की साकारता कतिपय दिवस नयन गोचर रह सकी विधि योग से। योग्य थे पर हम न उस आनन्द के छिन गया वह भी हमारे हाथ से॥ १०-२८ ॥

वस्तुतः संसार यह निःसार है सरकता अविराम गति से नित्य जो। जनन मरण प्रवाह सिन्धु प्रवाह सा ईश माया वश सदा चलता यहाँ॥ १०-२९ ॥

जगत में सम्बन्धियों के नेह से हम बंधे ज्यों कीर मरकट खो चुके। अर्ध जीवन का समय मदमत्त हो वयस का अब भाग आया तीसरा॥ १०-३० ॥

कर्णगत कच धवलिमा के व्याज से कान में कहते यही संदेश हैं। छोड़कर आसक्ति उपरत हो भजो प्रेम से परमेश के पद पद्म को॥ १०-३१ ॥

हम गृहस्थों के विविध आयाम भी। देख सुनकर अधिक उपरत हो चुके। कष्ट ही तो है यहाँ सुख का प्रभो। लेशमात्र हमें कहीं दिखता नहीं॥ १०-३२ ॥

लोग जिस सुख के लिए बेचैन हैं वह परम सुख का किमपि आभास है। मान जिसको सुख सभी होते सुखी वह हरिण तृष्णा समान असत्य है॥ १०-३३ ॥

बहुत दिन सोकर बिताये हम अहो अब न सोयेंगे कभी निश्चेष्ट हो। जग जगतपति के सुभग पद पद्म में भ्रमर बनकर गुनगुनायेंगे सदा॥ १०-३४ ॥

देखिये खग घोंसलों को छोड़कर उड़ रहे नभ में यही संकेत दे। छोड़ ममता शृंखला को जा करें। अब भजन भगवान का एकान्त में॥ १०-३५ ॥

जो कमल के कोश में निशिभर मुदे अब वही अलिवृन्द उड़कर जा रहे। पा विमल उपराम ज्यों गृह को गृही छोड़कर वन में चला बनने यती॥ १०-३६ ॥

सब अनर्थों का यही आसक्ति ही मूल है जननी यही भव सूल की। इस महाविष वल्लिका को शीघ्र ही ज्ञान असि से काट देना चाहिए॥ १०-३७ ॥

अब नहीं पतिदेव भव की वासना है अपेक्षित एक ईश उपासना। तोड़कर तृण ज्यों जगत जंजाल को मुक्त हो अब हम भजें भगवान को॥ १०-३८ ॥

भोग भोगी योग सम अति क्रूर हो जीव को करते सदा भयभीत हैं। भोगता न उन्हें मनुज प्रत्युत वही मनुजता को भोग लेते हैं स्वयं॥ १०-३९ ॥

कामनाएँ काम के उपभोग से मिट सकेंगी क्या कभी भी हे मुने। कृष्ण वर्त्मा सर्पिधारा से कभी क्या बुझाया जा सके त्रयकाल में॥ १०-४० ॥

वस्तुतः झूठे जगत के ये सभी नेह नाते सर्वदा भय हेतु हैं। पड़ इन्हीं में भूल सहज स्वरूप को जीव कारागार में आकर पड़ा॥ १०-४१ ॥

अब हमें करणीय है सुख साधना साधना आराधना आराध्य की। लक्ष्य मानव देह का भी है यही व्यर्थ हम इसको गँवाते हैं अहो॥ १०-४२ ॥

बन्धु बान्धव सुहृद जन आसक्ति से मलिन हमने चित्त दर्पण को किया। दिख नहीं पाता अतः रघुनाथ का रूप इसमें कोटि काम मनोग्य जो॥ १०-४३ ॥

हम करें न विलम्ब अब इस कार्य में पूर्ण कर लें शीघ्र निज दायित्व को। पौत्र को अब सौंप कुलपति भार को आप हों उन्मुक्त गेह प्रपंच से॥ १०-४४ ॥

कर्म से सम्भव नहीं है कर्म का ध्वंस ज्यों मल से मलों की क्षालना। प्रेम भक्ति सुवारि से रघुचन्द्र की छूटता यह मल मनुज के चित्त से॥ १०-४५ ॥

अदृढ़ प्लव की भाँति कर्म भवाब्धि से पार साधक को न कर सकता कभी। ज्ञान नौका से हमें भव सिन्धु यह नाथ है तर्तव्य अति अविलम्ब ही॥ १०-४६ ॥

जीव का निज धर्म है भगवद्भजन और सब दायित्व तो भ्रम मात्र हैं। प्राणपति अतएव इनको छोड़ के हम चलें अन्यत्र निज सुख के लिए॥ १०-४७ ॥

गेह में भी भजन करना शक्य है किन्तु यह दुष्कर कठिनतम कार्य है। इस कठिन असिधार व्रत के मार्ग में है सुगम चलना नहीं सबके लिए॥ १०-४८ ॥

पूर्व भोगों की मधुर स्मृतियाँ प्रभो नित यहाँ बाधक बनेंगी भक्ति की। छोड़ यह आश्रम अतः अन्यत्र ही हम करें परमार्थ पथ की साधना॥ १०-४९ ॥

सुन अरुन्धती के वचन उपरति भरे पुलक पूर्ण वशिष्ठ का तन हो गया। खिल गया उपराम पंकज चित्त में नाचने तत्क्षण लगा मन मोर ज्यों॥ १०-५० ॥

वंशस्थ अरुन्धती के उपराम वाक्य से वशिष्ठ का चित्त प्रसन्न हो गया। स्वपौत्र को सौंप समस्त भार वे प्रबोध के निश्चय से हुए सुखी॥ १०-५१ ॥

॥ श्रीराघवः शन्तनोतु ॥