त्रयोदश सर्ग – उपलब्धि


अरुन्धती अनुराग उदधि में उमग बैठ निज आश्रम में करती थी उपलब्धि समीक्षा पुलक पूर्ण मन संभ्रम में। नाच रहा था मन मयूर कर मधुर कल्पना नव घन की अनिर्वाच्य थी दशा वस्तुतः अरुन्धती के उस क्षण की॥ १३-१ ॥

चंद्रकान्त चन्दन चकोर चंचल चख चारण चन्द्र किरण छन छन कर चाँदनी व्याज से करते मधुर अमिय वितरण। तरणि ताप से त्रस्त व्यस्त पक्षी गण दिन भर थके हुए निज-निज नीड़ निषण्ण सो रहे शशिकर रस से छके हुए॥ १३-२ ॥

मन्द-मन्द मारुत झकोर से ललित लतायें झुक-झुककर करतीं सुमन वृष्टि देवी पर चरण चूम कुछ रुक-रुक कर। नीरवता के इस परिसर में अन्तर रव थी अरुन्धती किसी मधुर कल्पना तल्प पर हो आसीन निलीन सती॥ १३-३ ॥

अहो विधाता स्वयं भरेंगे परब्रह्म क्या मेरी गोद क्या मेरे ढिग बैठ करेंगे पूर्णकाम प्रभु बाल विनोद। कहाँ असीम कृपा ईश्वर की कहाँ क्षुद्रतम मेरा भाग सागर जल कैसे सँजो सके अहो एक लघु तोय तड़ाग॥ १३-४ ॥

यद्यपि प्रथम भक्ति देवी ने आकर किया हमें आश्वस्त फिर भी समझ योग्यता अपनी अभी न मैं मन में विश्वस्त। अरी महत्त्वाकांक्षा मेरी तू कितनी भोली भाली रोपित करना भला चाहती नभ में सुरतरु की डाली॥ १३-५ ॥

बौने कर से नन्दन वन के कुसुमों को चुनने की चाह यह हास्यास्पद उद्यम लखकर कौन करेगा मुझ पर वाह। यह मेरी कामना विधाता बोलो कब पूरी होगी अम्बर और अवधि की बोलो कब समाप्त दूरी होगी॥ १३-६ ॥

सचमुच ब्रह्म नराकृति बनकर पर्ण सदन में आयेगा अपनी बाल सुलभ क्रीड़ा से मेरा मन हरषायेगा। दशरथ कौशल्या सम हमने नहीं किया है दुष्कर तप ब्रह्म प्राप्ति के लिए कभी भी नहीं किया है निश्चित जप॥ १३-७ ॥

स्वायंभुव मन्वन्तर में प्रभु ने मनु को वरदान दिया दम्पति का पितु मातु हेतु श्री हरि ने ही आह्वान किया। बने यहाँ दशरथ कौशल्या स्वायंभुव मनु शतरूपा प्रभु की यह प्राकट्य परिस्थिति मनु दम्पति तप अनुरूपा॥ १३-८ ॥

राजभवन को छोड़ भला वे परण सदन क्यों आयेंगे नृप दम्पति वात्सल्य सुधा को कैसे प्रभु ठुकरायेंगे। तदपि भक्ति देवी की वाणी कभी असत्य नहीं होगी। कृपा अहैतुक कृपा सिन्धु की कभी अनित्य नहीं होगी॥ १३-९ ॥

यज्ञाधीश सुयज्ञ रूप में मेरे यहाँ जन्म लेंगे वही सखा बन पूर्ण ब्रह्म के दर्शन का भी सुख देंगे। किन्तु मुझे फिर नये सिरे से पूर्व पाठ पढ़ना होगा वय तृतीय में भी द्वितीय का भवन तन्त्र गढ़ना होगा॥ १३-१० ॥

कौशिक के क्रोधानल में शत पुत्र हुए मेरे स्वाहा फिर भी कभी न निज आनन से मैंने कहा अरे आहा। माँ होकर भी उन पुत्रों के लिए नहीं मैंने रोया इन्हीं करों से दैव योग वश शक्ति रत्न को भी खोया॥ १३-११ ॥

घूँट-घूँट कर पिये हमी ने अमित आँसुओं के प्याले पड़े हाय उर सरसिज दल में बड़े-बड़े दुःख के छाले। यह लोकोक्ति यथार्थ हुई सन्तोष डाल फलती मेवा आज सफल होती दिखती है मेरी प्रथम क्षमा सेवा॥ १३-१२ ॥

कर विश्वास भक्ति वाणी पर कुलपति सहित करूँ साधन निष्ठापूर्वक रह कुटीर में करूँ ब्रह्म का आराधन। यह निश्चय कर अरुन्धती अब पति सेवा में निरत हुई करने लगी प्रतीक्षा प्रभु की जगती सुख से विरत हुई॥ १३-१३ ॥

विधि नियोग से इधर अवध में एक नया अध्याय जुड़ा प्रभु पद रज लेने हित कवि का किंचित कथा प्रवाह मुड़ा। बनी अयोध्या सूर्यवंशधर दशरथ नृपति राजधानी कौसल्या कैकेयी सुमित्रा तीन मुख्य थी पटरानी॥ १३-१४ ॥

श्रीसाकेत लोक भूतल पर अवध रूप में अब आया सरजू जहाँ सुधा जल बहती जहाँ नहीं मत्सर माया। कोसल देश सुहावन पावन भारत का जो हृदय स्थल जन्म भूमि कहकर रघुनन्दन जिसे स्मरण करते पल-पल॥ १३-१५ ॥

जिसे स्वर्ग से अधिक कहा श्रीमुख से ब्रह्म नरोत्तम ने बारंबार प्रणाम किया जिसको शिरसा पुरुषोत्तम ने। अपराजिता तथा सत्या साकेत अयोध्या पुरी ललाम प्रथम मोक्षदायिका जहाँ प्रकटे शिशु रूप परात्पर राम॥ १३-१६ ॥

सुरपति सखा चक्रवर्ती नृप दशरथ कोसलपुर भूपाल प्रजा पालते हुए बिताये सुत हित जीवन के चिरकाल। पुत्र प्रतीक्षा निरत भूप के षष्टि सहस्र वर्ष बीते फिर भी रहे मनोरथ के घट अरे अहो रीते-रीते॥ १३-१७ ॥

एक बार नृप के मन में सुत हेतु सुदुःसह ग्लानि हुई चिन्ता-चिता जीर्ण नरपति की बनी चेतना छुई मुई। उस अभाव चिन्तन से नृप ने धैर्य राशि तत्क्षण खोई निरख भूप चिन्ता कौसल्या फूट-फूट करके रोई॥ १३-१८ ॥

जटिल समस्या समाधान हित अब वशिष्ठ आश्रम आये कर प्रणाम प्रश्रय विनीत हो करुण कथा सब समझाये। देव हमारे साथ बुझ रहा आज भानुकुल का दीपक यही हो रहा मेरी चिन्ता चिता वह्नि का उद्दीपक॥ १३-१९ ॥

तीन-तीन रानियाँ देव सन्मुख होकर सूनी-सूनी बढ़ा रही अविराम वेदना मेरी चिन्ता दिन दूनी। चक्रवर्ति साम्राज्य अवध का क्या अनाथ हो जायेगा क्या कुछ दिन में राजमुकुट निरुपाय नाथ हो जायेगा॥ १३-२० ॥

मदनन्तर दिलीप आदिक पितरों को देगा कौन सलिल इस चिन्ता से मन कुंजर को मग्न कर रहा खेद कलिल। पितरों का तर्पक कुल वर्धक एक पुत्र चाहिए मुझे भारत की भविष्णु संस्कृति का दिव्य सूत्र चाहिये मुझे॥ १३-२१ ॥

वन्ध्य देख आश्रम विटपों को क्यों चुपचाप रहा माली राहुग्रस्त लख चन्द्र सिन्धु क्यों शान्त रहा करुणाशाली। सप्त द्वीप वसुमती रत्न भू मेरा क्लेश नहीं हरती मुझे पुत्र दे वंश प्रवर्तक कृपा करें मुनिवर्य व्रती॥ १३-२२ ॥

यों कह पग पर राजमुकुट धर महाराज चुप खड़े रहे लोचन युगल पंक्तिस्यन्दन के शोक वारि निस्यन्द बहे। तब वशिष्ठ ने महाराज को सब प्रकार से समझाया ब्रह्म भक्ति द्वारा संकेतित कथावृत्त सब बतलाया॥ १३-२३ ॥

चिन्तामणि के लिए उचित है राजन यह चिन्ता तेरी इस प्रकार प्रभु उत्कण्ठा में पूर्णतया सम्मति मेरी। व्याकुलता के बिना जीव को ईश्वर कभी नहीं मिलते सूर्य रश्मियों से ही देखो सरसी में सरोज खिलते॥ १३-२४ ॥

व्याकुलता की हुई पराकाष्ठा धीरज अब मत खोओ फल प्राप्ति के समय वीर इस भाँति अधीर न अब होओ। एक पुत्र के लिए झँखते चार-चार शुचि सुत होंगे त्रिभुवन विदित भक्त भयहर्ता परमवीर अद्भुत होंगे॥ १३-२५ ॥

चौथे पन में तुमने तपकर प्रभु से सुतहित वर पाया इसीलिए इस चौथे पन में पुत्र प्राप्ति का क्षण आया। राम रूप पर्जन्य प्राप्ति हित नृप पुत्रेष्टी यज्ञ करो परब्रह्म सुत के प्रताप से जग का दारुण ताप हरो॥ १३-२६ ॥

ऋष्यशृंग आचार्य बनें रहकर तटस्थ मैं कार्य सभी सावधान सम्पन्न करुँगा यही विधा अनिवार्य अभी। कुछ कारण वश इस मख का नृप होता नहीं बनूँगा मैं अभी न पूछो यज्ञानन्तर सकल रहस्य कहूँगा मैं॥ १३-२७ ॥

नृप सम्मति से ऋष्यशृंग को मुनि वशिष्ठ ने बुलवाया पुत्र जन्म हित पुत्रेष्टी शुभ यज्ञ शास्त्रतः करवाया। भक्ति सहित शृंगी आहुति से अति प्रसन्न हो वैश्वानर प्रकटे चारु चरू कर लेकर दिव्य वेश पट भूषण धर॥ १३-२८ ॥

दिया भूप को हवि पावक ने औ विभाग विधि बतलाया नृपति बाँटने में न भूल हो सावधान कर समझाया। कौसल्या को अर्ध कैकेयी हैं तुरीय चरू में अधिकृत। चतुर्थांश के दो भागों से करो सुमित्रा को सत्कृत॥ १३-२९ ॥

यथादिष्ट नृप ने तीनों को सादर हवि का दान किया इस प्रकार हवि द्वारा प्रभु का तीनों में आधान किया। कौसल्या कैकेयी सुमित्रा गर्भ ब्रह्ममय धारण कर हुईं सुशोभित राजभवन में शोभा शील तेज निर्भर॥ १३-३० ॥

उधर अग्नि ने मुनि वशिष्ठ को नयन सयन से पास बुला परस शीश पर निजकर पंकज द्विज को अधिक निकट बिठला। बोले विप्र वशिष्ठ तुम्हारी क्षमा आज ही सफल हुई यह भविष्णु भूमिका तुम्हारे लिए आज ही विमल हुई॥ १३-३१ ॥

हव्य शेष देता हूँ तुमको पाकर इसको अरुन्धती प्रभु के व्यूह सुयज्ञ गर्भ से होगी मंगल गर्भवती। यह निर्दोष व्यूह ईश्वर का रघुपति सख्य निभायेगा मुनि दुर्लभ भगवदानन्द भी तुमको यही दिलायेगा॥ १३-३२ ॥

प्रभु के साथ सभी परिकर भी लेते हैं अवतार यहाँ उनकी लीला में सहभागी बनते हैं शृंगार यहाँ। प्रभु के साथ प्रकट होकर वे साथ उन्हीं के भाव महित होते हैं परिकर पुनीत ये प्रभु पद पंकज भक्ति सहित॥ १३-३३ ॥

अतः आपका यह पुनीत शिशु बन राघव का पावन मित्र भावुक जन के लिए बनेगा भव सागर का विषद वहित्र। यज्ञ प्रसाद हव्य से इसका होगा जन्म अमल अभिराम इस कारण हे विधि सुत रखना शिशु का नाम सुयज्ञ ललाम॥ १३-३४ ॥

इस प्रकार समझाकर पावक हुए वहीं पर अन्तर्धान मुनि ने किया हव्य द्वारा तब अरुन्धती में गर्भाधान। प्रभु लीला हित अरुन्धती अब हुई दिव्य अन्तर्वत्नी हुई अलौकिक आभा मण्डित ब्रह्ममयी वशिष्ठपत्नी॥ १३-३५ ॥

नहीं उसे दोहद विडम्बना नहीं उसे किंचित पीड़ा करता व्यूह ब्रह्म ही जिसके गर्भाशय में कल क्रीड़ा। नहीं वदन पाण्डुर देवि का नहीं गर्भ का कुछ गौरव क्योंकि खेलता ब्रह्म उदर में जो हरता जन का रौरव॥ १३-३६ ॥

चतुष्पाद सम्पन्न ब्रह्म अब खेल रहा गर्भाशय में जिसकी सत्ता सदा विलसती अमित कोटि भुवनाशय में। कौसल्या कैकयी सुमित्रा त्रिभुवन पति की जननी बन अरुन्धती के साथ कर रहीं दरस प्रतीक्षा प्रमुदित मन॥ १३-३७ ॥

तेजोमय पत्नी मुख पंकज निर्निमेष दृग से अवलोक वशी वशिष्ठ उमड़ता आनँद रख न सके निज मन में रोक। बोले जाकर निकट प्रफुल्लित वचन-वचन रचना नागर देवि लग रहा आज मुझे अतिशय सुन्दर यह भवसागर॥ १३-३८ ॥

इसके बिना कहाँ है सम्भव रामरत्न का आविर्भाव इसीलिए है उपादेयता इसमें विमल मनुज सद्भाव। युग-युग का अभिलाष हमारा प्रिये शीघ्र होता साकार तेरी विमल कोख से लेगा व्यूह ब्रह्म भी निज अवतार॥ १३-३९ ॥

तेरा शिशु परमेश्वर के ही संग-संग में खेलेगा निज सद्गुण से कृपा सिन्धु की कृपा पात्रता ले लेगा। इस बालक के मात पिता बन हम भी होंगे बड़भागी इस नाते से ईश प्रेम के हम भी होंगे सहभागी॥ १३-४० ॥

कौन गृहस्थाश्रम को कहता घोर नरकप्रद जटिल जघन्य परब्रह्म भी इसके कारण हो जाते हैं अतिशय धन्य। यही ब्रह्म को पुत्र बनाकर अपने अङ्क खिलाता है पलक पालने पर ईश्वर को यही सदैव झुलाता है॥ १३-४१ ॥

तीनों अन्य आश्रमों का भी यही सदैव पिता माता इसके बिना न कोई आश्रम कभी सफलता को पाता। नरक रूप होता परन्तु यह जब इसमें आती आसक्ति यही स्वर्ग अपवर्ग अनूठा जब इसमें आती हरिभक्ति॥ १३-४२ ॥

मैं कहता आसक्ति मृत्यु है अनासक्ति ही है जीवन अतः गृही जन सावधान हों अनासक्त मन करें भजन। इस प्रकार चर्चा में बीते गर्भ काल के द्वादश मास। चैत्र शुक्ल नौमी दिन मंगल ऋतु वसन्त का विमल विलास॥ १३-४३ ॥

अति पुनीत अभिजित मुहूर्त है प्रकृति सुन्दरी मुसुकाती हरि-हरि कर सरजू की लहरें लहर-लहर में लहराती। मध्य दिवस में भानु विलसते सम शीतोष्ण पवित्र दिवस सुरगण विविध विमान मध्य से सुमन बरसते हरष-हरष॥ १३-४४ ॥

अग्निहोत्र की अर्चि कर रही रघुनन्दन का अभ्यर्चन नन्दन वन के कुसुमों से सुरगण प्रसन्न करते अर्चन। शीतल मंद सुगन्ध समीरण दिव्य प्रेरणा रहा बिखेर पावन परिमलयुत पराग रज राशि बरसता कर बहु ढेर॥ १३-४५ ॥

सरयू सलिल निमज्जन करके रहे प्रतीक्षा में रत सन्त पुनः पुनः जयकार लगाते जय अनन्त जय-जय भगवन्त। विवुध वृन्द समवेत हुए सब नभ में दुन्दुभियाँ बजतीं सुर बधूटियाँ कनक थाल में मङ्गल नीराजन सजतीं॥ १३-४६ ॥

सहसा कौसल्या मन्दिर में प्रकट हुआ अति दिव्य प्रकाश प्रकट हुए प्राची शशांक सम परब्रह्म प्रभु विश्व निवास। नील तामरस नील नीलधर नील रत्न सा श्यामल तन जिस पर बाल दिवाकर जैसा बिलस रहा था पीत बसन॥ १३-४७ ॥

घनीभूत तमराशि मनोहर मेचक कुञ्चित थे कुन्तल मकर केतु केतन समान युग गण्डस्थल लम्बित कुण्डल। सारस शरद शशांक विभा हर आनन सुषमा अति न्यारी। दमक रही जिसमें दामिनि-सी दशन पंक्ति अतिशय प्यारी॥ १३-४८ ॥

हस्ति शुण्ड भुजदण्ड सुमांसल भूषण वर केयूर सुभग कङ्कण रुचिर हार उर आयत भ्राज रहे श्रीवत्स सुनग। ब्रह्म जन्म महि नाभि सरोवर उरु जानुवर चरण कमल जिसकी नखमणि चन्द्रकान्त भव द्रवीभूत जाह्नवी विमल॥ १३-४९ ॥

धनुर्बाण प्रभु कर पंकज में अतिशय मन को भाते थे मनो इन्द्रधनु सहित सान्द्र वारिद उडुगण छबि छाते थे। कौसल्या अनुरोध मानकर हुए बालबपु लीला धर कहाँ कहाँ कर रोदन कौतुक केलि हेतु शिशु हुआ मुखर॥ १३-५० ॥

इसी भाँति कैकयी सुअन का हुआ मनोरम आविर्भाव युगल पुत्र रत्नों को प्रकटा देवि सुमित्रा अति चित चाव। अरुन्धती ने भी उपजाया व्यूह ब्रह्म वर तनय सुयज्ञ जिसकी मैत्री हित लालायित पूर्ण ब्रह्म राघव सर्वज्ञ॥ १३-५१ ॥

प्रमुदित बिबुध बधाई बाजी नाचें कोसल नर नारी जय-जय गान करें सुर किन्नर जयति राम जय असुरारी। आज अवध आनन्द उदधि सा मर्यादा तज लहर रहा सबके मन में ब्रह्म दरश का हर्ष अनूपम हहर रहा॥ १३-५२ ॥

गीत बधाई अनुपम बाज रही। आज अवध रघुनन्दन प्रकटे सुरतिय मंगल साज रही॥ १३-५३-१ ॥ नाचहिं गावहिं अवध लुगाई चहु दिसि अगर अबीर उड़ाई। दशरथ उर आनँद न समाये मुदित कौसिला राज रही॥ १३-५३-२ ॥ मणि मुक्ता वर रत्न लुटावें गज रथ धेनु देत सुख पावें। अवध नारी सब मंगल गावें चहुँ दिशि सुषमा छाज रही॥ १३-५३-३ ॥ बधाई अनुपम बाज रही॥ १३-५३ ॥

गीत आज मंगल गीत गाओ आज शुभ बाजे बजाओ॥ १३-५४-१ ॥ मनुजता का त्राण करने अवध में अवतार लेकर। पूर्ण व्यापक ब्रह्म आया आज सब खुशियाँ मनाओ॥ १३-५४-२ ॥ थिरकता रितुराज सुन्दर हैं सभी हँसती दिशायें। अब सभी होंगी हमारी मंजु मधु राका निशायें। आज पुर तोरण सजाओ आज मंगल गीत गाओ॥ १३-५४-३ ॥ बिबुध गण लंकेश कारागार से अब मुक्त होंगे। संत चातक हरि कृपा कादम्बिनी संयुक्त होंगे। आज नव माला बनाओ आज मंगल गीत गाओ॥ १३-५४-४ ॥ सुकृत दशरथ कौसिला का आज ही साकार होगा। थिरकता नृप के अजिर में राम शिशु सुकुमार होगा। आज शहनाई बजाओ आज मंगल गीत गाओ॥ १३-५४-५ ॥ भर रही दिशि विदिश को यह सोहिलों की धुन मनोहर। अगर अबीर गुलाल अर्गज पंक से गलियाँ सुखद तर। आज जीवन लाभ पाओ आज मंगल गीत गाओ॥ १३-५४-६ ॥ पालना पर लसित ललना नृपति ललनायें झुलातीं। कौसिला कैकयी सुमित्रा बाल केलि प्रबन्ध गातीं। आज मन मुक्ता लुटाओ आज मंगल गीत गाओ॥ १३-५४-७ ॥ राम लक्ष्मण भरत रिपुहन कनक मर्कत मधुर जोरी। संग मीत सुयज्ञ खेलैं छवी अनुपम निरख लोरी। अब इन्हें मन में बसाओ आज मंगल गीत गाओ॥ १३-५४-८ ॥

अरुन्धती के भाग्य गगन में नव प्रभाव अनुपम आया फिर सूखते सरोरुह वन में अनिर्वाच्य रस लहराया। फिर से नव पल्लव रसाल पर बैठ कोकिला ने गाया फिर प्रसून मकरन्द लोभ वश मधुप मंजुतर मँड़राया॥ १३-५५ ॥

फिर से शुष्क पयोदों ने की वत्सल रस पय की वर्षा फिर से बाल सुलभ किलकन ने जननी का मन आकर्षा। फिर कौशेय विमल अंचल में लिपटी बाल तनय तन धूल फिर उजड़े आराम मध्य खिल गये मनोहर मंजुल फूल॥ १३-५६ ॥

फिर वशिष्ठ की बाँहों ने शिशु सुत स्पर्श का सुख पाया फिर मुखचन्द चूमने हित मुनि मनःसिन्धु अति अकुलाया। फिर अरुन्धती के आँगन में बाल केलि सम्भ्रम आया ऋषि दम्पति ने फिर अतीत को प्रमुदित मन में दुहराया॥ १३-५७ ॥

अरुन्धती आनन्द उदधि में निश दिन मग्न रहा करती कौसल्या सी मन मन्दिर में सुस्मित दीप धरा करती सुत सुयज्ञ का लालन पालन प्रेंखण प्रोक्षण मुख चुम्बन ऋषि दम्पति के जीवन के बन गये हर्ष के आलम्बन॥ १३-५८ ॥

जान ब्रह्म अवतार सुवन को ले उछंग में हलरावें लता ललित पालना मध्य बालक मराल को झुलरावें। कभी चूम पयपान कराती कभी अंक में बिठलाती कभी सुला पल्लव शय्या पर शयन गीत सुन्दर गाती॥ १३-५९ ॥

गीत सो जा सो जा सलोने ललना तोहे नींद बुलावे। सो जा सो जा पलक पलना तोहे नींद बुलावे॥ १३-६०-१ ॥ आयी रजनी चमके तारे तुम वशिष्ठ के कुल उजियारे। सो जा निदरिया तोहे पुकारे सोजा-सोजा आँगन खेलना॥ १३-६०-२ ॥ तुम राघव के मीत सलोने कोई न तुम्हें लगा दे टोने। हृदय कमल में मधुकर छोने सोजा-सोजा भुवन मोहना॥ १३-६०-३ ॥

इस प्रकार शिशु के पालन में पल सम दिवस बीत जाता पुनः रात फिर से प्रभात फिर निशा पुनः शुभ दिन आता। अरुन्धती को नहीं समय का ज्ञान कथंचित भी रहता उसका मन मतंग शिशुवर के प्रणय धार में नित बहता॥ १३-६१ ॥

राज महल से दूर बना था कानन में ऋषि का आश्रम। फिर भी नृप का चलता रहता ऋषि समीप आगम निर्गम। अरुन्धती नित आशीष देने कौसिल्या समीप जाती निरख राम शिशु रूप मनोहर धन्य स्वयं को ठहराती॥ १३-६२ ॥

मन में कहती अहो भाग्य मेरा कैसा है पुण्य प्रवर ब्रह्म सनातन बाल रूप धर जिसको हुआ नयन गोचर। पुंजीभूत तत्त्व श्रुति का यह साध्य समस्त साधनों का मूर्तीभूत नयन का फल यह धन है यही निर्धनों का॥ १३-६३ ॥

कौसल्या के आज अंक में वही पुत्र बन आया है जिसको श्रुतियों ने अनेक विधि नेति-नेति कह गाया है। ब्रह्म सनातन जो निर्गुण था सगुण ब्रह्म वह है नूतन पुरा पुरातन अधुनानूतन निर्विकार यह सच्चिदघन॥ १३-६४ ॥

देख अलौकिक रूप राशि यह निश्चित मैंने यही किया यही बनेगा आगे चलकर दिनकर कुल का दीप्त दिया। यह अपूर्व आनन्द सुधारस किस प्रकार मुनिवर पायें कैसे इसे निहार महामुनि ब्रह्म बोध भी विसरायें॥ १३-६५ ॥

अथवा मैं निरुपाय इस समय है स्वतन्त्र यह परमेश्वर मुनि दर्शन हित अवश करेंगे कोई लीला लीलाधर। जाकर केवल ब्रह्मपुत्र को राम दरश हित ललचाऊँ सुना-सुनाकर रूप माधुरी उनमें उत्कण्ठा लाऊँ॥ १३-६६ ॥

पत्नी का कर्त्तव्य यही पति को रघुवर से मिला सके पति के मानस में रघुपति की भक्ति कमलिनी खिला सके। मेरे पति का एक महातप श्रुतियों का स्वाध्याय विमल सदा व्यस्त रहते उसमें अवकाश न पाते कतिपय पल॥ १३-६७ ॥

अतः आज मैं अग्निहोत्र में कुछ विलम्ब कर जाऊँगी हेतु पूछने पर प्रभु की शिशु झाँकी मधुर सुनाऊँगी। निश्चित प्रभु शिशु रूप श्रवण कर मुनिवर मन ललचायेगा वही आकुली भाव उन्हें राघव समीप ले आयेगा॥ १३-६८ ॥

एक बार यदि ऋषि नयनों से निरख सकेंगे राघव को फिर तो स्वयं भूल जायेंगे पल में शास्त्र महार्णव को। फिर उनकी सम्मति से मैं सुयज्ञ को भी ले आऊँगी जोड़ राम चरणों से जननी का दायित्व निभाऊँगी॥ १३-६९ ॥

माता वही पुत्र को जो रघुपति चरणों में ले आती जननी वही भक्त जो जनती पुत्र वत्सला कहलाती। जो केवल निज क्षुद्र स्वार्थवश सुत को जग में ही रखती। माता नहीं मृत्यु वह तो है साँपिन ज्यों सुत को भखती॥ १३-७० ॥

इस प्रकार खोई अरुन्धती कौसिल्या समीप आयी स्वस्ति-स्वस्ति कह शिशु राघव को ले उछंग अति हरषायी। सभी रानियों ने सादर कर गुरु पत्नी का पद वंदन चरणोदक ले भक्ति भाव से किया सती का अभिनन्दन॥ १३-७१ ॥

प्रणति पूर्ण कर नमित अंश फिर बोली बचन बड़ी रानी बहुत दिनों के बाद कृपा कर हुई उपस्थित महरानी। हम किंकरियों से क्या कोई ऐसी भीषण भूल हुई जिससे अन्तःपुर को दुर्लभ सती चरण की धूल हुई॥ १३-७२ ॥

यद्यपि यह अवरोध तथापि सती के लिए विरोध नहीं अरुन्धती के लिए समावृत हुआ कभी अवरोध नहीं। बोली अरुन्धती कौसल्ये क्षण भर भी न मुझे अवकाश शिशु पालन पति की शुश्रूषा कहो कहाँ है समय निकाश॥ १३-७३ ॥

कौसिलया ने कहा बीच में देवि नहीं मानें अनुचित लायें यहीं सुयज्ञ सुवन को मुनिवर को यदि लगे उचित। सोचूँगी कह के गुरु पत्नी सपदि उटज को चली गयी मन में करती रामभद्र की मधुर कल्पना नई-नई॥ १३-७४ ॥

इधर उषा के शित अंचल में निज कर पीत पराग लिए उदित हो रहे पूषा पोषित प्रभु पद प्रेम पियूष पिये। मुनि वशिष्ठ के अग्निहोत्र की बेला का कुछ अतिक्रमण आज हो रहा इस चिन्ता में करता मुनि का चित्त भ्रमण॥ १३-७५ ॥

बटुओं से साश्चर्य पूछते नहीं तुम्हारी माँ आयी आज अहो क्यों अग्निहोत्र में सती कर रहीं अलसायी। बार-बार पूछते शिष्य से कहाँ गयी तेरी माता किसे ज्ञात था कौन आज इनका उत्तर भी दे पाता॥ १३-७६ ॥

इधर जागकर चौंक रो रहा शिशु सुयज्ञ कह माँ- माँ- माँ जिसको कुटिया के बाहर वन कन्यायें थी रहीं घुमा। तब तक राजमहल से देवी मन्द-मन्द चलती आयीं सिमटी हुई मनोभावों में बाहर से कुछ शरमायीं॥ १३-७७ ॥

वातावरण विलोक उटज का अस्त व्यस्त कुछ प्रथम हँसी फिर कर व्याकुल भाव प्रदर्शन पर्ण सदन में वे प्रविसीं। रोते सुत को ले उछंग में आनन चूम दुलार किया राम-राम कह थपकी देकर अंचल में निज छिपा लिया॥ १३-७८ ॥

कहा वत्स अब क्यों रोता है तेरे हित कर दिया उपाय इसीलिए हो गया व्यतिक्रम कुपित हुए होंगे मुनिराय। तुमको अब रघुचन्द्र-चन्द्र मुख छवि पीयूष पिलाऊँगी कल ही सुत सुयज्ञ को मैं तो राजभवन ले जाऊँगी॥ १३-७९ ॥

उस अनन्त सत्ता को पाकर सुत सुयज्ञ होगा कृत कृत्य कभी न रोयेगा प्रभु के ढिग हरि समीप विहँसेगा नित्य। सपदि व्यवस्थित होकर पति के पास सती सकुची आयी हृदय उमड़ता हर्ष जलधि प्रभु दर्शन से अति हरषायी॥ १३-८० ॥

बोले वशी वशिष्ठ प्रिये किस कारण आज विलम्ब हुआ तेरे बिना समाकुल सहसा स्तम्भित शिष्य कदम्ब हुआ। बोली सती कृतांजलि मुनिवर मुझको आर्य क्षमा कर दें जान किंकरी अग्निहोत्र अपराध जनित पातक हर लें॥ १३-८१ ॥

कौशिल्या के भवन प्रात ही आज आशिषा देन गयी निरख सुवन सुकुमार सलोना हृदय हरष की लहर ठई। निकल रहे थे भूप गोद ले उस आभामय बालक को श्याम तामरस सरल सान्द्र जलधर समान जन पालक को॥ १३-८२ ॥

चिक्कन चिकुर निकर घुँघराले भाल तिलक युग वर रेखा समरुन तरुन कंज द्युति आनन पार्वण शरद चन्द्र लेखा। कुडमल कुन्द दाडिमी रद रुचि अरुण अधर पर राज रही नासा रुचिर सकज्जल लोचन खंजन अलि लख लाज रही॥ १३-८३ ॥

पीत झिंगुलिया श्यामल तन पर झिलमिल-झिलमिल झलक रही नील जलद पर मनो दामिनी दमक-दमक छवि छलक रही। मदन बाल सरसिज स्वरूप रस पीने लगा मनो मधुकर कर कंकण वघनहा हार वर कटि तट किंकण मधुर मुखर॥ १३-८४ ॥

शिरिष सुमन सुकुमार मनोहर चतुश्चिह्नयुत कमल चरण नूपुर राजहंस मुनि मंडित प्रणत शोक संताप हरण। निखिल लोक लावण्य सिमिट कर दशरथ के गृह ज्यों आया कौसल्या का सुकृत बाल वपु मुनिधन अथवा सरसाया॥ १३-८५ ॥

अथवा सृष्टि चातुरी विधि ने शिशु राघव तन से पायी छवि ललना ने मनोमाधवी सुछवि सलिल से नहलायी। नामकरण के समय आपने साधारणतः है देखा अब तो और अधिक उमड़ी है रूप चन्द्र षोडश लेखा॥ १३-८६ ॥

यूँ कह हुई निमग्न राम अनुराग उदधि में अरुन्धती श्याम सरोज विलोचन युग से नीर ढराने लगी सती। मुनिवर ने फिर अग्नि होत्र का श्रद्धापूर्ण विधान किया सुत सुयज्ञ को ले उछंग निज शिशु राघव का ध्यान किया॥ १३-८७ ॥

वेद वेद्य परतत्त्व ब्रह्म जो श्रुतियों का है निहित निधान बालक बन दशरथ घर आया वही परात्पर श्री भगवान। उस अनन्त सौन्दर्य राशि को करने हेतु नयन गोचर किया पूर्व मनु शतरूपा ने दारुण तप मुनिजन दुष्कर॥ १३-८८ ॥

मैने किया न तप कोई भी किया न किंचित आराधन शब्दाटवी मध्य हा भटका जीवन भर अक्षत व्रत बन। किन्तु भाव मेरा है निर्मल यही एक मेरी आशा पूर्ण करेंगे अतः हमारी श्री राघव यह अभिलाषा॥ १३-८९ ॥

आवो-आओ कृपा जलद अब अँखिया मेरी प्यासी हैं हो निराश निर्गमन चाहते सहचर घट के वासी हैं। नामकरण के समय तुम्हें सामान्य दृष्टि से था देखा गुरु गौरव के कारण ही मैंने न सूक्ष्मता से देखा॥ १३-९० ॥

गीत ओ नन्हें मुन्ने राघव जरा सामने तो आ। ओ मेरे प्यारे लाला जरा मन्द मुसुका॥ १३-९१-१ ॥ तब दर्शन हित व्याकुल नैना। भूख न बासर नींद न रैना। करुणा निधान मुझे यों न तरसा॥ ओ नन्हें … ॥ १३-९१-२ ॥ तुम मेरे नैनों के तारे। जन मानस के एक सहारे। कौसिला कुमार यों बहाना न बना॥ ओ नन्हें … ॥ १३-९१-३ ॥ तुम मेरे मन वन में खेलो। लालन मेरा सब कुछ ले लो। लाडिले लजीले जरा नाच तो दिखा॥ ओ नन्हें … ॥ १३-९१-४ ॥ रामलला मेरे सन्मुख आजा। अपना हिमकर बदन दिखा जा। गिरिधर के दुलारे मुझे शीघ्र अपना॥ ओ नन्हें … ॥ १३-९१-५ ॥

बना पुरोहित विधि निदेश से एक आप के लिए प्रभो रघुकुल का दायित्व निभाया एक आपके लिए विभो। दर्शन दो हे राम कृपा कर अब न मुझे तरसाओ तुम दारुण विरह व्यथा पावक से अब न अधिक झुलसाओ तुम॥ १३-९२ ॥

यों चिन्तन में मग्न विप्र ने सरजू तट पर जा करके अनशनव्रत प्रारम्भ किया अति दारुण नेम निभा करके। जब तक नहीं निहारुँगा वह श्याम रूप हे करुणार्णव तब तक नहीं अन्न जल लूँगा सत्य-सत्य कहता राघव॥ १३-९३ ॥

इस प्रकार बित गये तीन दिन बढ़ा ब्रह्म ऋषि के मन ताप इधर दरश योजना बनाये लीला कर लीलाधर आप। अजर अमर विशोक प्रभु ने भी किया नजर का आडम्बर लगे अकारण आप ठुनकने कर रुह से दृग मल-मल कर॥ १३-९४ ॥

नीरज नयन नीर ने धोया खंजन नयन महित अञ्जन हुए अनरसे आज आप रस रूप स्वयं सेवक रञ्जन। नहीं आज पय पान कर रहे आनन अति रूखा-रूखा रोते रुक-रुक कर निष्कारण अरुणाधर पल्लव सूखा॥ १३-९५ ॥

कौसल्या पयपान कराती मुख में नहीं पयद धरते बाल केलि वश चिहुक-चिहुक कर बार-बार सिसकी भरते। माता निज उछंग में लेकर बार-बार हलराती थीं देवि सुमित्रा सुभग खिलौने राघव के हित लाती थीं॥ १३-९६ ॥

किन्तु हुए सब यत्न निरर्थक बढ़ा अनरसापन अतिशय व्याकुल हुईं राजमहिषी सब व्यापा मन में भय विस्मय। जिसकी कृपा कोर में होता सकल अनिष्टों का उपराम उस पर यह आशंका यह है माँ की ममता का विभ्रम॥ १३-९७ ॥

इधर बाल राघव को लेकर सभी रानियाँ अधिक उदास तब तक अरुन्धती आई आशीष देने मन अति उल्लास। देख व्यथित रनिवास सती ने मन में अति विस्मय पाया पूछा सखियों से विस्मित हो किस पर क्या संकट आया॥ १३-९८ ॥

कौसल्या ने स्वयं कहा शिशु राघव पर आया संकट आज अनरसे देवि भोर से कर न सके निज क्लेश प्रकट। ठुनक-ठुनक मेरे राम रो रहे होकर के अतिशय बेचैन नीरज नैन नीर से पूरित नहीं आज सोये भर रैन॥ १३-९९ ॥

रहते नहीं खड़े बैठे ये सुनते नहीं तनिक चुचकार बार-बार पय पान कराकर हारी करके बहुत दुलार। देव पितर पूजे अनेक विधि इनका किया तुलाघृत दान मृत्युंजय का जाप यथा विधि किया सुमन्त्रों का आह्वान॥ १३-१०० ॥

किसी दुष्ट नारी ने इन पर दुष्ट दृष्टि का किया प्रयोग इसीलिये मेरे होते हैं निष्फल देवि सभी उद्योग। लख अरुन्धती ने राघव को समझ दिव्य मुनिवर का भाव बोली कौसल्या से सादर देवि न किंचित करुँ दुराव॥ १३-१०१ ॥

चौथेपन में देवि तुम्हें हैं प्राप्त हुए शिशुवर राघव नहीं वस्तुतः तुमको रानी सुत पालन का कुछ अनुभव। सबको तुम सामान्य भाव से राघव को दे देती गोद उसका ही परिणाम आज अवरुद्ध हुआ यह किमपि विनोद॥ १३-१०२ ॥

पर चिन्ता की बात नहीं इसका भी एक उपाय सरल ईश्वर की करुणा से होगा निश्चित यह उद्योग सफल। मैंने सुना तुम्हारे गुरुवर नजर झाड़ने का शुचि मंत्र पूर्ण प्रयोग विधा से हरते कुटिल तन्त्रियों के भी तन्त्र॥ १३-१०३ ॥

उन्हें बुलाकर शीघ्र यथाविधि झाड़ फूँक करवा लो तुम चिर निरोग हित शिशु माथे पर ऋषि का हाथ धरा लो तुम। सरयू के अति पावन तट पर अभी कर रहे कोई व्रत बुलवा लो द्वारा सुमन्त्र के झाड़-फूँक हित उन्हें तुरन्त॥ १३-१०४ ॥

भेजा तत्क्षण कौसल्या ने सचिव साथ गुरु को संदेश सुनी नजर की बात हर्ष से खुले नेत्र अब विगतोन्मेष। अहो दिव्य लीला लीलाधर जिसे जानते केवल आप मेरे लिए आपने प्रस्तुत किया ललित शिशु केलि कलाप॥ १३-१०५ ॥

कौन लगाये नजर आपको जिसके पास नहीं है ज्वर शंकर की भी नजर न ठहरे कैसी उस पर लगे नजर। निश्चित दर्शन देने के हित प्रभु ने पास बुलाया है आज हमारे जीवन में सबसे पुनीत दिन आया है॥ १३-१०६ ॥

यों विचार ले हरे-हरे कुश कह जय राघव हरे हरे आये अन्तःपुर तुरन्त मुनि मन में मोद प्रमोद भरे। निर्निमेष नयनों से मुनि ने रूप निहारा जी भरके झाड़ फूँक आरम्भ किया सुन्दर नरसिंह मंत्र पढ़ के॥ १३-१०७ ॥

नमो नृसिंह महाबल व्यापक जय जय कनककशिपु के काल दूर करो टोने जादू सब शिशु राघव के तुम तत्काल। छू-छू करके फूँक लगाई प्रभु मस्तक पर कर परसे लगे राम किलकने प्रफुल्लित लख रानी महीप हरषे॥ १३-१०८ ॥

धाय गोद से गोद लिए मुनि मन से अतिशय अनुरागे सजल नयन तन पुलक प्रेममय सुख से रोम-रोम जागे। कहा तजो चिन्ता नृप दम्पति यह सामान्य नहीं बालक निर्गुण निराकर निरुपद्रव निखिल लोक का यह पालक॥ १३-१०९ ॥

मेष सूर्य कुज मकर तुला शनि कर्क वृहस्पति झष के कवि परम उच्चग्रह पाँच पड़े हैं होगा बालक रघुकुल रवि। निर्मल कीर्ति दिगन्त व्यापिनी शिशु सब वैभव पायेगा विजय वैजयन्ती रघुकुल की सुरपुर में फहरायेगा॥ १३-११० ॥

इसके चरित उदात्त विश्व के लिए सिद्ध होंगे आदर्श इसकी धवल कीर्ति से भासित होगा भास्वर भारतवर्ष। राम नाम अभिराम कामतरु सकल मंगलों का मंगल सच पूछो तो राम शब्द का अर्थ अनूप राष्ट्र मंगल॥ १३-१११ ॥

राका रजनी भक्ति राम की राम नाम है पूर्ण निशेश अपर नाम नक्षत्र निवासी भक्त व्योम उर मध्य अशेष। इससे पराभूत हो रावण दुर्मद दनुज लोक रावण दल बल सहित प्रेत पति पुर का वासी होगा विद्रावण॥ १३-११२ ॥

राम लखन रिपुदमन भरत सँग मेरा अति प्रिय तनय सुयज्ञ मित्र भाव से सदा रहेगा वेद पुराण शास्त्र सर्वज्ञ। दे आशीष गये गृह गुरुवर विपुल दक्षिणा भी पायी तब सुयज्ञ सुत को अरुन्धती राजभवन में ले आयी॥ १३-११३ ॥

किलका बाल मराल निरखकर अपना नित्य चिरंतन मीत प्रभु भी बिछुड़ा व्यूह प्राप्त कर हुए निरतिशय भाव परीत। अब अरुन्धती राजभवन में अधिक समय तक रहती है केवल प्रहर एक में मुनि का अग्निहोत्र निरबहती है॥ १३-११४ ॥

पाँचों कुँवर मनो ईश्वर के पाँच रूप ही आये हैं पाँचों भूतों से अतीत वो पंचवाण मन भाये हैं। राजसुतों के साथ हुआ गुरु सुत सुयज्ञ का भी पालन अरुन्धती की देख-रेख में करें सुमित्रा संचालन॥ १३-११५ ॥

क्षण भर के भी लिए राम से नहीं सुयज्ञ पृथक होते मणि विहीन फणि ज्यों रघुपति बिन सकल चेतना ही खोते। राघव भी भूलकर मित्र को निज उच्छिष्ट नहीं देते गुरु सुत का ही जूठन फिर-फिर अनुनय करके ले लेते॥ १३-११६ ॥

बाल्यकाल में भी मर्यादा मर्यादा पुरुषोत्तम की सपने में भी डिगा न पायी लीला ललित नरोत्तम की। कभी न चरण स्पर्श कर सके राघव का गुरु पुत्र सुयज्ञ देते रहे उन्हें अति आदर क्रीड़ाओं में भी सर्वज्ञ॥ १३-११७ ॥

बाल सखा सब संग खेलते सरयू तट पर रघुवर के अविच्छिन्न अनुराग प्राण प्रिय परिकर धर्म धुरन्धर के। बार-बार हँस खेल खेलाना स्वयं जीतकर जाना हार यही नीति थी शिशु क्रीड़ा में मित्र वर्ग मन का शृंगार॥ १३-११८ ॥

प्रभु के संग सुयज्ञ को दी मुनिवर ने धनुर्वेद शिक्षा पाँचों की सम्पन्न हुई एक साथ रहस्य मन्त्र दीक्षा। एक बार एकान्त प्राप्त कर राघव विधु आनन अवलोक कहने लगे सुयज्ञ जोड़ कर युगल नीर नयनों में रोक॥ १३-११९ ॥

जान गया मैं तुम्हें तत्त्वतः प्राणि मात्र के तुम स्वामी अनिर्वाच्य अद्वैत रूप तुम घट-घट के अन्तर्यामी। रावण वध कर भूमि भार अपहरण हेतु मानव अवतार लिए आपने दशरथ के गृह रूप शील गुण पारावार॥ १३-१२० ॥

गीत नहीं बोलते क्यों नहीं बोलते क्यों॥ १३-१२१-१ ॥ अरे स्थाणु बन आप बैठे निठुर हो। सुथल वेदना पर नहीं डोलते क्यों॥ १३-१२१-२ ॥ तुम्हारे लिए थाल मैंने सजाये। रही मात्र कोमल करों की अपेक्षा। तुम्हारे लिए गीत मंगल बनाये। रही मात्र मंजुल स्वरों की समीक्षा। बसन्ती बहारों में झुरमुट से आकर। सरस कोकिला रास नहीं घोलते क्यों॥ १३-१२१-३ ॥ शरद इन्दु मण्डल में घूँघट छिपाये। तनिक मुड़के तिरीछे मधुर मुसकुराये। निठुर हो परीक्षा की इस तूलिका पर। हमारे प्रणय का वजन तौलते क्यों॥ १३-१२१-४ ॥ नहीं बोलते क्यों॥ १३-१२१ ॥

जन्म-जन्म की प्रीति पुरानी मेरे तुम्हीं पुरातन मीत इसीलिए नित नव बनते हैं मधुर भाव के मंगल गीत। जीव मात्र के एक सुहृद तुम इस प्रकार कहती स्मृतियाँ द्वा सुपर्णा तुमको कह-कहकर नेति-नेति कहती श्रुतियाँ॥ १३-१२२ ॥

पर एक बात बताओ राघव मुझे तो नहीं भुलाओगे बार-बार कहकर सुयज्ञ मुझको तुम गले लगाओगे। मैं अल्पज्ञ जीव माया वश माया मुक्त तुम्हीं सर्वज्ञ भले भुला दूँ तुम्हें नाथ पर भूल न जायें तुम्हें सुयज्ञ॥ १३-१२३ ॥

आगे का इतिहास तुम्हारा बहुशः आयामी होगा सखा सनातन का निश्चित व्यक्तित्व दूरगामी होगा। कौणप कोल किरात भालु कपि मित्र भाव में आयेंगे सखा मान सबको रघुनन्दन आप मुदित अपनायेंगे॥ १३-१२४ ॥

किन्तु मित्र लम्बी कतार में मेरा स्थान कहाँ होगा कपियों की निःस्वार्थ प्रीति में मेरा मान कहाँ होगा। पर मुझको विश्वास यही है नाता तुम्हीं निभाते हो जीव मात्र के जीवन जन की भूल भूल भी जाते हो॥ १३-१२५ ॥

अरुन्धती के यहाँ जन्म ले मैंने यही लाभ पाया तुम जैसे अविकार्य ब्रह्म ने मुझे मित्र कह अपनाया। क्या अपनाने योग्य नाथ मैं किन्तु आपका यही स्वभाव शरणागति की दोषोपेक्षा और निरखना मन का भाव॥ १३-१२६ ॥

नहीं मुझे पुरुषार्थ चतुष्टय कभी अभीप्सित है राघव पर तुमसे है एक अपेक्षा पूरी कर दो करुणार्णव। जो-जो योनि मिले मुझको प्राक्तन शरीर कृत फलानुसार वहाँ वहाँ वश एक भाव हो अविच्छिन्न कौसिला कुमार॥ १३-१२७ ॥

हम सेवक हों आप हमारे बनें नाथ हे जगदाधार मित्र भाव का रहे आवरण यही हमारा हो उपहार। इसे मान लो भीख उताहो गुरु सुत का ईप्सित वरदान अथवा विप्र दक्षिणा राघव दो करुणा कर कृपा निधान॥ १३-१२८ ॥

जब जब हो रामावतार तब तब मैं तेरा मीत बनूँ अरुन्धती वर गर्भ जन्म से सात्त्विक भाव विनीत बनूँ। बहुत दिनों तक साथ तुम्हारे राजभवन में मित्र रहा बाल केलि कौतुक अनुपम सुख परमानन्द अखण्ड लहा॥ १३-१२९ ॥

चलो हमारे साथ आज तुम पर्ण कुटी में मंगल धाम कुछ दिन तक मेरी माता भी तेरा सुख लूटे हे राम। हम ब्राह्मण सामान्य व्यवस्था तृण पर्णों का घर मेरा राजकुँवर तुम चक्रवर्ति के कैसे हो स्वागत तेरा॥ १३-१३० ॥

पर तुम बाह्य वस्तु की राघव नहीं अपेक्षा हो करते प्रेम कनौड़े भक्त वशंवद शुद्ध भाव मन में धरते। सुन सुयज्ञ के बचन राम के नीरज नयन नीर छलके श्याम शरीर कंटकित अगणित सात्त्विक भाव मधुर झलके॥ १३-१३१ ॥

अरुण पद्म दल अधर फड़क कर कुछ कहने को थे प्रस्तुत किन्तु भाव रस सागर में अब मग्न हुए कौसल्या सुत। गुरु सुत को आजान बाहु से प्रभु ने उर में लिपटाया दृग जल से नहला कर उनको पीताम्बर में सिमटाया॥ १३-१३२ ॥

अनिर्वाच्य आनन्द सनातन मित्रों का यह मधुर मिलन बना सख्य रस के कवियों हित मधुर भाव का उन्मीलन। बँधी सिसकियाँ अब राघव की दिया मौन ही प्रश्नोत्तर फिर सानुज सुयज्ञ को सँग ले आये मुनि वशिष्ठ के घर॥ १३-१३३ ॥

अरुन्धती ने अब गवाक्ष से देखी बाल मंडली दूर हास विलास प्रमोद प्रेम में चली आ रही जो भरपूर। गोली भौंरा चकडोरी के खेल खेलते बाल सखा अरुन्धती ने नयन चषक से यह स्वरूप पीयूष चखा॥ १३-१३४ ॥

बाल मंडल मध्य विलसते बाल रूप में बाल मुकुन्द उडुगन मध्य पूर्ण विधु जैसे सहज लुटाते परमानन्द। ऊर्ध्व पुण्ड्र आयत ललाट पर लसता वाम अंस उपवीत अतिस कुसुम पर पीत कमल ने रेखा मनो बनाई पीत॥ १३-१३५ ॥

दक्षिण कररुह गत प्रत्यंचा वाम हस्तगत दिव्य धनुष इन्द्र धनुष से मनो समर्चित नील जलद अति सान्द्र बपुष। सुभग विषम शर शरसा शरथा कटि तट पर था पीताम्बर कसा निषंग ठवन केशरि सी नख शिख सुन्दर रूप मधुर॥ १३-१३६ ॥

कौन आ रहा इस आश्रम में यह अपूर्व सुन्दर बालक किंबा रवि सुत अथवा हरि सुत अथवा जग का प्रतिपालक। इस निसर्ग आनन्द सिन्धु में क्या पवित्र उमड़ा सौन्दर्य पाटल दल पर मनो विखरते कोटि कोटि लक्ष्मी सोदर्य॥ १३-१३७ ॥

परमानन्द पयोद स्वयं क्या मेरी कुटिया में आया अथवा परब्रह्म नर तन धर मेरे मन को अतिभाया। सुनिये सुनिये कह वशिष्ठ को अरुन्धती ने निकट बुला करने लगी प्रशंसा प्रभु की बार-बार वह रूप दिखा॥ १३-१३८ ॥

कौसिल्या की कोख धन्य है दशरथ का है तपबल धन्य जिनके घर प्रकटे परमेश्वर गुण मन्दिर शुचि शील वदान्य। चारों भ्राताओं ने जाकर मुनि वशिष्ठ को किया प्रणाम अरुन्धती पद वन्दन करके मुदित हुए नर लोक ललाम॥ १३-१३९ ॥

पा आज्ञा भूतल पर बैठे जोड़ कंज कर राजकुमार किन्तु राम मुख छवि अरुन्धती एक टक दृग से रही निहार। परम तृषित सारंग नयन की आज युगों की प्यास मिटी आज हमारे सुकृति फलों की रुचिर राशि भी है सिमटी॥ १३-१४० ॥

श्रीराघव मुखचन्द्र सुधा का दृग चकोर को पान करा नहीं अघाती अरुन्धती थीं उर में प्रेम प्रमोद भरा। बोले गुरु वशिष्ठ फिर हँसकर नजर लगाओगी इनपे एकटक निर्निमेष पलकों से डाल ठगोरी क्या इनपे॥ १३-१४१ ॥

अरुन्धती ने कहा विहँस के दूँगी राई लोन उतार मुदित कोटि मन्मथ समान बपु भर लोचन लूँ नेक निहार। फिर सुयज्ञ चारों मित्रों को पर्ण सदन में ले आये कन्द मूल फल सरयू जल से स्वागत कर कुछ सकुचाये॥ १३-१४२ ॥

बोले राम सकोच मित्र क्यों अपनों से ऐसा उपचार नहीं मुझे वश कर सकता है जगती का कोई उपहार। शुद्ध प्रेम का मैं भूखा हूँ मुझे चाहिए भाव विमल मुझ विमुक्त को सदा बाँधता भक्त हृदय का प्रेम प्रबल॥ १३-१४३ ॥

अब मैं शास्त्राध्ययन करुँगा लेकर ब्रह्मचर्य दीक्षा भूमि शयन मुनि के पट भूषण गुरु शुश्रूषा श्रुति शिक्षा। यों कह राम सुयज्ञ मित्र से किये नींद वश नीरज नयन प्रहर चतुर्थ यामिनी के ही उठे छोड़कर कुश का शयन॥ १३-१४४ ॥

सरयू जल मज्जन सन्ध्या कर पहन मेखला औ मृग चर्म मुनि वशिष्ठ से शिष्य पढ़ रहे गोपनीय श्रुतियों के मर्म। अष्ट विकृति और तीन प्रकृतियाँ सस्वर वेद संहिता पाठ किया अल्प दिन में ही अवगत शिष्य भाव से ब्रह्म विराट॥ १३-१४५ ॥

धनुर्वेद संगीत शिल्प उपवेदों की भी सब शिक्षा स्मृति पुराण इतिहास शास्त्र की और मन्त्र तान्त्रिक दीक्षा। अनायास सब विद्याओं में हुए राम अब पारंगत निरख शिष्य अद्भुत मेधा को हुए मुदित विधि सुत दृढ़ ब्रत॥ १३-१४६ ॥

कभी-कभी नर लीला में जब प्रभु करते श्रम का अभिनय अरुन्धती तब शास्त्र विरत मुनि को करती करके अनुनय। आर्य पुत्र कुछ देर शास्त्र से राजसुतों को दे विश्राम यह सुयज्ञ भी विनय कर रहा भोजन अब कर लो श्री राम॥ १३-१४७ ॥

यो कह अंक बिठाकर प्रभु को कन्द मूल फल देती हैं चूम चूम आनन सरोज को मुदित बलैया लेती हैं। कौसल्या का स्मरण न आये यही सदा करती हैं यत्न पुत्रोचित लालन पालन का करती रहती सती प्रयत्न॥ १३-१४८ ॥

वैदिक शिक्षा अल्प दिनों में सानुज प्रभु ने की सम्पन्न गुरुदक्षिणा हेतु अब प्रस्तुत हुए राम अति प्रत्युत्पन्न। नयन नीर भर गुरु वशिष्ठ ने कहा राम तुम परमेश्वर तुम्हें पढ़ाये कौन दिया है गौरव तुमने ही पढ़कर॥ १३-१४९ ॥

दोगे राम दक्षिणा मुझको आज माँगता हूँ यह वर जन्म-जन्म में प्रभु सरोज पद भक्ति मिले मुझको निर्भर। रावण बध कर विप्र धेनु सुर संत बृन्द को सुखी करो गुरु वशिष्ठ के मन मन्दिर में शिष्य रूप से नित बिहरो॥ १३-१५० ॥

पञ्चचामर अरुन्धती वशिष्ठ को प्रणाम राम ने किया तथा पदाब्ज भक्ति दिव्य दक्षिणा उन्हें दिया। सुयज्ञ चारु मित्रता निसर्गतः निभी सदा यही बनी अरुन्धती सुकाव्य दिव्य सम्पदा॥ १३-१५१ ॥

॥ श्रीराघवः शन्तनोतु ॥