तृतीय सर्ग – प्रीति


वर्णिनी हो तुम पावन प्रीति प्रणय सुर-तरु की मञ्जुल बेलि। मधुरतम फल से संयुत सदा हरो जीवन की दारुण भीति॥ ३-१ ॥

मनुजता की तुम हो शृंगार मुमुक्षु की वर विरति विभूति। सनातन संस्कृति का चिर प्राण भरो जीवन में पावन प्यार॥ ३-२ ॥

सरस्वती की वीणा का तार सुधा सारस्वत सार समस्व। वसुमती का वसु परम निधान भरो जीवन में मधुरस प्राण॥ ३-३ ॥

सभ्यता की तुम मञ्जुल मूर्ति अपेक्षाओं की पावन पूर्ति। उपेक्षाओं की भीषण जूर्ति भरो जीवन में विमल स्फूर्ति॥ ३-४ ॥

विशद वाचस्पति की तुम बुद्धि यतीन्द्रों का हो ब्रह्म-विचार। आद्य-जन की तुम एक विभूति बिखेरो मञ्जु मधुर-अनुभूति॥ ३-५ ॥

कमन कविता का पद-विन्यास नीर-निधि का कल्लोल विलास। अमृत दीधिति का अद्भुत हास करो जीवन में भाव विकास॥ ३-६ ॥

सुकवि की करुण कल्पना सरस काव्य का जन मोहन साहित्य। विचारों का सुस्थिर गाम्भीर्य भरो जन-जन में अद्भुत धैर्य॥ ३-७ ॥

वासना की तुम कठिन कुठार उपासक उर का मौक्तिक हार। दोष दोषाकर का तुम राहू प्रीति भर जीवन में उत्साह॥ ३-८ ॥

भक्ति-गंगा का तुम कलश्रोत भावना से तू ओत-प्रोत। जीत की जीति भीति की भीति अहो कैसी तू निरुपम प्रीति॥ ३-९ ॥

अमर जीवन का तुम आधार मुमूर्षु-जनों की सुधा फुहार। प्रेम रस की तंत्री झंकार ब्रह्म का एक मधुर उपहार॥ ३-१० ॥

प्रकृति का प्राण संचरण शील अगम वेदान्ती का निर्वाण। अभीप्सित निरई का निर्वाण प्रीति प्रणयी का प्रणय प्रयाण॥ ३-११ ॥

क्षितिज धरती का तुम संयोग सुछबि सुषमा का दिव्य सुयोग। वियोगी का तू सुखद वियोग प्रीति योगी का अनुपम योग॥ ३-१२ ॥

आर्य-कन्या का शोभन शील स्नेह सौरभ का सुफल रसाल। सुधा का भी मादक माधुर्य निखिल संसृति धुर का तू धूर्य॥ ३-१३ ॥

विप्र संध्या की निर्मल कुशा रसिक खग-कुल हित मंगल उषा। मनो रजनीकर की शित निशा बोध दिनकर की प्राची दिशा॥ ३-१४ ॥

पवन का मन्द-मन्द स्पन्दन प्रणय नव रस का निस्यन्दन। मनो मधुवन का मधु नन्दन विबुध बन्दी का वर वन्दन॥ ३-१५ ॥

प्रीति जन जीवन का निश्वास सुसज्जन मानव का विश्वास। चतुर चातक की उत्कट प्यास विरस जीवन की जीवन आश॥ ३-१६ ॥

प्रीति रस एक मधुर उल्लास कल्पना खग हित बृहदाकाश। भाव वारिज का विशद विकास प्रकाशों का भी परम प्रकाश॥ ३-१७ ॥

प्रीति ही सदा शंभु की उमा सती मैथिली राम की रमा। यही राधिका श्याम की दिव्य यही भारती-भारती भव्य॥ ३-१८ ॥

सुभगता सुभग व्यक्ति की यही विमलता विमल भक्त की यही। सरलता सरल शक्ति की यही तरलता तरल रक्ति की यही॥ ३-१९ ॥

प्रीति जीवन का चरमोद्देश्य मिलाती परमात्मा से यही। इसी के वश हो अगणित बार मही पर प्रभु लेते अवतार॥ ३-२० ॥

विमल मानस की निष्कल ज्योति प्रीति परिणति का ही परिणाम। सरलता का आदर्श उदात्त प्रीति से ही होता उपलब्ध॥ ३-२१ ॥

प्रीति विधु की वह मानद कला जिसे शिव करते संतत मौलि। जिसे झुलसा पाता है नहीं निटिल लोचन का भीषण अग्नि॥ ३-२२ ॥

प्रीति भव भूषण जटा कलाप सदा शिव सर्प सजाते जिसे। नहीं जा सकती जिसको छोड़ त्वरान्वित मन्दाकिनी भी अहो॥ ३-२३ ॥

प्रीति वह भुजग भोग पर्यंक तैरता जो प्रलयार्णव मध्य। बना जो माधव विश्रम निलय प्रणत होता जिसको खगराज॥ ३-२४ ॥

प्रीति है श्री हरि की इन्दिरा सकल शोभा सौन्दर्य निकेत। राजति वक्षस्थल पर सतत आज भी बनकर जो श्रीवत्स॥ ३-२५ ॥

प्रीति रघुनन्दन की मैथिली अनल भी जिससे हुआ पवित्र। सदा जिनके मन-पंकज मध्य लसे राघव अलि ज्यों धृत चाप॥ ३-२६ ॥

प्रीति कौसल्या नारि ललाम गर्भ में जिसके आते राम। लसित है जिसका अंक-पयोधि रघूत्तम मौक्तिक मणि से नित्य॥ ३-२७ ॥

प्रीति वह पावन कोसल पुरी जहाँ उज्ज्वल सरयू की धार। जहाँ दशरथ का राज्य अखंड किलकता जिसकी रज से ब्रह्म॥ ३-२८ ॥

प्रीति श्री रघुवर की पादुका अधिष्ठित अवध वरासन मध्य। भरत करते जिसका अभिषेक नलिन नव लोचन जल से नित्य॥ ३-२९ ॥

प्रीति राघव की श्यामल मूर्ति जानकी दृग चातक घन-घटा। थिरकती वरटा सुता समान पवन सुत प्रेम वापिका बीच॥ ३-३० ॥

प्रीति वह केवट की दृढ़ नाव चढ़े जिस पर रघुपति चितचाव। लखन सीता पद-पद्म पराग जिसे पाकर हो गया कृतार्थ॥ ३-३१ ॥

प्रीति वन पावन पर्ण कुटीर बनाया विबुध-वृन्द ने जिसे। मैथिली लक्ष्मण सहित मुकुन्द जहाँ करते सुख से विश्राम॥ ३-३२ ॥

प्रीति शुचि चित्रकूट की भूमि मनोहर कामद-शिखर सनाथ। तरल मन्दाकिनी लोलतरंग निरखते सीतापति रघुनाथ॥ ३-३३।

प्रीति है स्फटिक शिला की स्थली जहाँ करते प्रभु सिय शृंगार। ब्रह्म शर श्रवण घोर हुंकार भग्न करती सुरपति सुत दर्प॥ ३-३४ ॥

प्रीति रघुनायक कार्मुक-मौर्वी जिसे सहलाता प्रभु-कर कंज। क्षिप्त हो जिससे खर नाराच जलधि जल को भी करते क्षुब्ध॥ ३-३५ ॥

प्रीति वह जरठ जटायु शरीर विद्ध लख दशमुख से रघुवीर। बिठा कर गोदी में मतिधीर बहाते बनज नयन से नीर॥ ३-३६ ॥

पिता दशरथ की क्रन्दन-कथा भरत भैया की दारुण व्यथा। नगर परिजन का शोक कलाप अयोध्या का यह मूक विलाप॥ ३-३७ ॥

प्रीति वह शबरी का फल मूल जलधि सम्भूत अमृत का सार। भुलाकर राजोचित पक्वान्न जिसे खाये प्रभु स्वाद सराह॥ ३-३८ ॥

प्रीति ही रुचिर योग वासिष्ठ लुभाती जो हरि का भी चित्त। वशिष्ठार्जित यह सुकृत समूह अरुन्धती का निर्मल वात्सल्य॥ ३-३९ ॥

प्रीति ही विदुर-गेह का शाक सुलभ सुलभा का श्रद्धा स्वाद। त्याग कुरुपति के छप्पन भोग जिसे पाते यदुपति सोत्साह॥ ३-४० ॥

कृष्ण की दयित मुरलिका यही अधर पल्लव रस की जो रसिका। बजा के जिसे त्रिभंगी लाल चुराते ब्रज-वनिता का चित्त॥ ३-४१ ॥

यही गोपीजन का नवनीत सुधा शत गुणित स्वाद भंडार। क्षीर-शायी भी जिसके लिये ललकते करते प्रति-गृह चौर्य॥ ३-४२ ॥

यही ब्रज ललनाओं का चीर जिसे कालिन्दी तट पर देख। नहीं कर सके लोभ संवरण स्वयं पीताम्बर होकर कृष्ण॥ ३-४३ ॥

स्वयं हो व्यापक पूर्ण अकाम निरंजन निर्गुण सत्ताधीश। इसी के वश हो धर नटवेश ललित नर्तन करते भुवनेश॥ ३-४४।

यही है माँ यशुमति की रश्मि सकल गुण गरिमा का आगार। बँधा था जिससे निगुर्ण ब्रह्म उलूखल में ज्यों बालक अज्ञ॥ ३-४५ ॥

यशोदा का यह सुत-वात्सल्य रोहिणी का भी नियम अकाम। गोपिका प्रणय विटप की वेलि यही राधा-माधव रस केलि॥ ३-४६ ॥

यही बृन्दावन कानन कुंज धेनु चारण लीला सुखपुंज। यही ब्रजवधू प्रणय परिरम्भ यही श्री गीता का आरम्भ॥ ३-४७ ॥

यही गिरिधर का शैलोद्धरण यही कंसादि दुष्ट संहरण। यही मेदिनी भार का हरण प्रीति श्री हरि का भी उपकरण॥ ३-४८ ॥

यही रथ-नन्दिघोष सुखमूल अधिष्ठित जिस पर केशव पार्थ। यही गांडीव चंड-टंकोर किया जिसने रिपु-शक्ति अपार्थ॥ ३-४९ ॥

याज्ञसेनी की लज्जा-लता चरित फल संयम पल्लववृता। निरख कुरु-करि से धर्षित जिसे पधारे श्री हरि धृत पटवेश॥ ३-५० ॥

यही कृष्णा का सुमधुर शाक लग्न अवशिष्ट पात्र के मध्य। जिसे कणभर खा जगदाधार तृप्त हो किए चराचर तृप्त॥ ३-५१ ॥

यही गिरिधर का गीता गान आर्य संस्कृति का बीज निदान। सकल शास्त्रों का सार निधान जगत को करती शांति प्रदान॥ ३-५२ ॥

प्रीति ही जीवन का परमार्थ यही मानव का सात्त्विक स्वार्थ। यही परमात्मा तुष्टि का मार्ग इसी से है मिलता अपवर्ग॥ ३-५३ ॥

विनय सम्भव है प्रणय प्रतीति प्रणय से उद्भव पावन प्रीति। प्रीति से पा परमेश्वर भक्ति जीव लेता भवभय को जीत॥ ३-५४ ॥

प्रीति वर्जित संसार असार मनुज जीवन जड़वत निस्सार। प्रीति के बिना स्वप्न में कहो कथम् संभव है ब्रह्म विचार॥ ३-५५ ॥

प्रीति से षट शमादि सम्पत्ति इसी से जिज्ञासा निष्पत्ति। इसी से शुद्ध ब्रह्म उपपत्ति इसी से भगवत्-चरण प्रपत्ति॥ ३-५६ ॥

प्रीति से महावाक्य का शोध इसी से होता विमल प्रबोध। लक्ष्य लक्षण का भाव उदात्त इसी से सर्वं ब्रह्म प्रतीति॥ ३-५७ ॥

प्रीति से निर्गुण नित्य निरीह प्रकट हो सगुण ब्रह्म साकार। खेलता कौसल्या की गोद विविध विधि करता बाल विनोद॥ ३-५८ ॥

प्रीति वश प्रभु वशिष्ठ के पास मुदित कर शस्त्र शास्त्र अभ्यास। बैठकर अरुन्धती के अंक बढ़ायें गुरु-पत्नी का मोद॥ ३-५९ ॥

प्रीति का परम लक्ष्य क्या भोग जन्मते जिससे दारुण रोग। इसी से सम्भव विषम वियोग विरोधी जिसका सन्तत योग॥ ३-६० ॥

जन्म से यह मानव के साथ किन्तु वह करता विषम प्रयोग। जोड़ नश्वर प्रपंच से इसे व्यर्थ सिर मढ़ता भोग वियोग॥ ३-६१ ॥

जगत में पाल स्वीय कर्तव्य बनो मत तृष्णा वधिक शख्य। सदा श्री राम ब्रह्म ध्यातव्य प्रीति का मर्म तुझे ज्ञातव्य॥ ३-६२ ॥

जगत सम्बन्ध समस्त अनित्य तुम्हारा एक परम औचित्य। प्रीति कर परमेश्वर में नित्य बनो निश्चिन्त अभय कृत कृत्य॥ ३-६३ ॥

यही है राष्ट्र-कर्म अभिराम यही है लोक-धर्म निष्काम। यही है सुख साधन परिणाम जानकी-पति पद-प्रीति अकाम॥ ३-६४ ॥

नहीं है इसे वासना सह्य कामना से इसका अहि-नकुल। अपेक्षाएँ हैं इसकी मलिन पंक दर्पण ज्यों करती नित्य॥ ३-६५ ॥

तभी तक इसका है साम्राज्य न जब तक किमपि स्वत्व का बोध। एक सुन्दर राघव पद-पद्म प्रतत इसका है सुखप्रद सद्म॥ ३-६६ ॥

ज्ञान पंकज हित रविकर विभा बोध क्षणदाकर की यह प्रभा। प्रीति नर-जीवन का सर्वस्व यही वसुधातल का संगीत॥ ३-६७ ॥

तुम्हारे अधरों की मुस्कान समर्पित करती नूतन प्राण। दिलाती शब्द ब्रह्म का ज्ञान छेड़ती मधुर साम का गान॥ ३-६८ ॥

मधुरतम परिरम्भ की सुधा शुद्ध संकल्पों की वसुमती। वितरती रोम रोम में तेज क्षपित करती भोगों की क्षुधा॥ ३-६९ ॥

चतुर चितवन कल कोकिल बैन वितरते तरल कान्त संगीत। तुम्हारी समुपस्थिति में विपिन स्वर्ग सुख को करता अवधूत॥ ३-७० ॥

सरलता यदि जीवन की कला प्रीति है उसकी नव तूलिका। प्रणय यदि जीवन रत्न अमोल प्रीति है उसकी कान्ति अमंद॥ ३-७१ ॥

अरुन्धती बन कर पावन प्रीति शास्त्र मीमांसा मंजुल नीति। हृदय संपुट में रत्न समान बसो बरसो आनँद अभिराम॥ ३-७२ ॥

॥ श्रीराघवः शन्तनोतु ॥