चतुर्दश सर्ग – उत्कण्ठा


उत्कण्ठित मातु पिता परिजन पुरवासी सबकी आँखें थी प्रभु दर्शन हित प्यासी। पल एक कोटि शत कल्प सरिस था जाता प्रभु बिना किसी को कुछ भी नहीं सुहाता॥ १४-१ ॥

सब गणपति गौरि गिरीश दिनेश मनावें अति शीघ्र राम गुरु आश्रम से घर आवें। सम्पन्न शीघ्र हो प्रभु का यह प्रथमाश्रम बनकर गृहस्थ हरि हरें हमारे सब श्रम॥ १४-२ ॥

कौसिल्या कैकयी और सुमित्रा मैया दे दान द्विजों को और दुहावें गैया। श्री राम लखन रिपुदमन भरत चारों भैया आवे घर सकुशल लौट सुजन सुख दैया॥ १४-३ ॥

दशरथ मन में भी कभी-कभी होता दुःख दो नयन तलफते लखने को सुत विधु मुख। पर राजधर्म वश प्रकट न कुछ कह पाते चुपचाप प्रेम के आँसू भी घुट जाते॥ १४-४ ॥

आषाढ़ पूर्णिमा आई अति सुखदाई प्रभु की दीक्षान्त सुबेला मधुर सुहाई। सब विद्यावृत सुस्नात हुए प्रभु स्नातक पारंगत धनुर्वेद में रिपुकुल घातक॥ १४-५ ॥

बोले वशिष्ठ गद्गद स्वर राघव जाओ विद्या निधि विद्या व्रत स्नात सुख पाओ। रावण वध कर भू का गुरु भार मिटाओ बनकर आदर्श गृही दक्षिणा चुकाओ॥ १४-६ ॥

प्रभु ने वशिष्ठ का किया कमल पद वन्दन कुछ भावुक से हो गये भानुकुल नन्दन। आये थे लेने सचिव पुत्र अभिनन्दन अब गये अरुन्धति पास भक्तमन चन्दन॥ १४-७ ॥

आया हूँ लेने विदा आज गुरु माता वात्सल्य आपका पर न भूल मैं पाता। यों कह प्रभु गद्गद हुए नीर दृग छाये गुरु पत्नी के पद कमलों में लिपटाये॥ १४-८ ॥

देवी ने प्रभु को उठा चूम समझाया वात्सल्य सुधा का हरि को पान कराया। हे मेरे दृग की ज्योति राजगृह जाओ अपने सुयज्ञ को हे राघव अपनाओ॥ १४-९ ॥

तुझे नित्य निरखने राजभवन आऊँगी अवलोक श्याम तन लोचन फल पाऊँगी। कुटिया में कभी-कभी तुम भी आ जाना गुरु माता के फल मूल मधुर खा जाना॥ १४-१० ॥

देवि अरुन्धती रोक कंज लोचन जल अब भेज रही नृप भवन सकल साधन फल। आश्रम बटुओं ने स्वस्ति पाठ कर मंगल प्रस्थानिक विधि सम्पन्न किया मन विह्वल॥ १४-११ ॥

प्रभु साथ सुयज्ञ मुदित नृप मंदिर आये अब बाजे घर-घर कोसल नगर बधाये। पर्जन्य वृष्टि से प्रमुदित यथा कृषीवल त्यों निरख राम को मुदित भूप आखंडल॥ १४-१२ ॥

कौशल्या कैकयसुता सुमित्रा रानी चारों पुत्रों को निरख अधिक हरषानी। विद्याव्रत वेद विनीत शील गुन सागर करते नृप लीला खेल-खेल में आगर॥ १४-१३ ॥

उठ प्रात मातु पितु गुरु पद पंकज वंदन करते अवश्य प्रभु भूसुर गण अभिनन्दन। मृगया विहार में निपुण मृगों का वध कर दिखलाते नृप को दिन प्रति सानुज रघुवर॥ १४-१४ ॥

यद्यपि सब मित्र समान राम को प्यारे पर थे सुयज्ञ उनके नयनों के तारे। रख पूज्य भाव उनका करते प्रभु आदर रखते सुयज्ञ भी ब्रह्म भाव रघुवर पर॥ १४-१५ ॥

अब जुड़ा नया अध्याय कथा के क्रम में मखरत थे गाधिपुत्र निज सिद्धाश्रम में। पर नहीं हो सके सिद्ध किसी क्रतु में भी क्या अग्नि बिना द्रव हो सकता जतु में भी॥ १४-१६ ॥

मारीच सुबाहु सकेतुसुता सुत निशिचर थे करते मख विध्वंस उपद्रव कर कर। चिन्तित ऋषि चिन्ता जड़ी भूत अति कृशतन जलने सा लगा विफलता से उनका मन॥ १४-१७ ॥

रजनीचर होंगे नहीं हतप्रभ जब तक होगा न सफल मेरा महार्घ मख तब तक। जिस क्रोधानल ने किया भस्म मुनि शत सुत इनके सम्मुख वह भी प्रशान्त अति अद्भुत॥ १४-१८ ॥

सूझा उपाय अब अवधपुरी जाऊँगा मैं माँग भूप से राम लखन लाऊँगा। अवतार लिया है पूर्ण ब्रह्म ने नर का इस मिष निरखूँगा बदन चन्द्र रघुवर का॥ १४-१९ ॥

उठ प्रात शकुन के साथ अवधपुर आये अति निर्मल सरयू जल में मुदित नहाये। दे पलक पावड़े राजभवन नृप लाये। षोडश विधि पूजन किया सुअशन जिमाये॥ १४-२० ॥

तब किये प्रणाम सहानुज आ रघुनन्दन अवलोक रूप हुए चकित गाधिकुल चन्दन। क्या मनसिज धर शिशु रूप राज घर आया या ब्रह्म हुआ साकार दिव्य धर काया॥ १४-२१ ॥

आगमन हेतु कौशिक से नृप ने पूछा सुर मुनि का मन भर गया रहा जो छूँछा। मख रक्षा हित मुनि राम लखन को माँगे सुन नरपति मूर्छित पड़े प्रेम रस पागे॥ १४-२२ ॥

लख गुरु वशिष्ठ रुख दिया राम लक्ष्मण को निज प्राण जगत रक्षक जन विश्रम्भण को। अब चला समीरण शीतल मुदित चराचर नभ बजी दुन्दुभी विविध प्रसन्न हुए सुर॥ १४-२३ ॥

पा पितु निदेश रघुनन्दन धृत धनु सायक जननी का कर पद बंदन जन सुख दायक। कटि तट में अक्षय तूण रुचिरतर परिकर मनो मूर्त वीर रस चला संग कुसुमाकर॥ १४-२४ ॥

गुरुजन को कर अभिवादन सँग सुभ्राता कौशिक सँग कानन चले देव मुनित्राता। जलजात नयन पर नव कैशोर छलकता आयत ललाट पर ऊर्ध्व सुपुण्ड्र झलकता॥ १४-२५ ॥

आनन पर अरुण अलौकिक मंजुल आभा शत कोट शरद पार्वण निशेश वर शोभा। दृढ़ वृषभ अंस उपवीत कनकमय सुन्दर करिकलभशुण्ड भुजदण्ड केशरी कंधर॥ १४-२६ ॥

द्विज चरण चिह्न सुविशाल वक्ष पर सोहे आलम्ब कंज किंजल्क दुकूल विमोहे। कररुह करतल शर चाप मनोहर शोभा मनो जलद इन्द्र धनु संयुत लख मन लोभा॥ १४-२७ ॥

कटि तट किंकिणि पीताम्बर शिशु दिनकर कर शुचि ठवनि बाल केहरि सम सुभग जानुवर। मुनि मनोभृंग आवास अरुण नीरज पद अंगुष्ठ जाह्नवी जनक रेख जन सुखप्रद॥ १४-२८ ॥

पद पद्म पादुका पीठ अतीव मनोहर त्रैलोक्य ललित लावण्य सकल सुषमाकर। मानो त्रिलोक सौन्दर्य सिमिट कर आया इसे देख परमहंसों का मन ललचाया॥ १४-२९ ॥

बने ऋषि कौशिक के राम लखन अनुगामी गुरु की सेवा रत आज सकल जग स्वामी। कोशल पुरवासी सुमन वृन्द को लेकर सिद्धाश्रम को जब राघव हुए अग्रसर॥ १४-३० ॥

तब आ सुयज्ञ ने रामचन्द्र को रोका अब कब आओगे यह कह करके टोका। मुनि सुत तुषार दीधित सा सहज सुशीतल प्रभु चरणों पर था गिरा रहा दृग का जल॥ १४-३१ ॥

पद टेक साग्रही बोल पड़ा अकुलाके राघव मत जाओ मत जाओ बिलखा के। सिसकियाँ बँध गयी मुनि सुत की अनुनय में बह गया ज्ञान सब विषम वियोग प्रणय में॥ १४-३२ ॥

गीत राघव मत जाओ मत जाओ॥ १४-३३-१ ॥ लख अधीरता विनय हमारी रुक जाओ हे प्रभो असुरारी। पड़ा चरण में प्रेम पुजारी कुछ तो प्रभो विलमाओ॥ १४-३३-२ ॥ अरुन्धती माँ अति अधीर है झर-झर झरता नयन नीर है। उच्छ्वासित यह शिशु समूह है उसके प्राण बचाओ॥ १४-३३-३ ॥ अब न सरों में कमल खिलेंगे अब न विटप के पर्ण डुलेंगे। अबके गये फिर कहाँ मिलेंगे यह तो तात बताओ॥ १४-३३-४ ॥ अब न बनेंगे खेल हमारे रोते विकल खिलौने सारे सिसक रहे सरयू के किनारे धीरज उन्हें बँधाओ॥ १४-३३-५ ॥ अवनि अवध पर्यन्त रहेंगे प्राण बेचारे बिरह सहेंगे। तव वियोग पावक में दहेंगे ज्वाला विषम बुझाओ॥ १४-३३-६ ॥ अब सुयज्ञ को भूल न जाना जाकर राघव जल्दी आना। इस नाते को सतत निभाना अब न हमें तरसाओ॥ १४-३३-७ ॥

सुनकर सुयज्ञ के बचन राम भी रोये प्रभु धीर धुरन्धर आज धीर निज खोये। आऊँगा कहकर चले भक्त भय भञ्जन मुनिवर कौशिक के संग दनुज कुल गञ्जन॥ १४-३४ ॥

एक तीर से हती ताड़का नारी मुनि आश्रम में गये भक्त भय हारी। मार निशाचर निकर यज्ञ करवाया कोसल सुता कुमार सुयश जग छाया॥ १४-३५ ॥

जनक नगर जा किया शम्भु धनु भञ्जन स्वीकारी जयमाल मैथिली रञ्जन। भार्गव मद कर चूर्ण अवधपुर आये सीता राम विवाह लोकत्रय गाये॥ १४-३६ ॥

नव परणीता सीता संयुक्त राघव राज रहे ज्यों बीच लसित करुणार्णव। अरुन्धती ने प्रथम निहारी जोड़ी लख स्वरूप भारती भारती छोड़ी॥ १४-३७।

जनक सुता ने किया देवि पद वंदन करके पुनः श्वश्रुजन का अभिनन्दन। अरुन्धती के निकट पुनः सिय जाकर बोली प्रश्रय विनत सुभाव जनाकर॥ १४-३८ ॥

देवि आप ही आर्य पुत्र गुरु माता अरुन्धती गुणवती भुवन विख्याता। मातु सुनयना ने था मुझे सुनाया जैसा सुना उपस्थित वैसा पाया॥ १४-३९ ॥

उत्कण्ठा थी मुझे देवि दर्शन की अभिलाषा थी चरण कमल स्पर्शन की। आर्य पुत्र ने कहा कान में आकर करो समादर गुरु माता का जाकर॥ १४-४० ॥

अतः धृष्टता करने हित मैं आयी क्षमा करें मुझको पुत्री की नाईं। आप वस्तुतः एक मात्र वह नारी जिसे झुका न पाया नर व्यभिचारी॥ १४-४१ ॥

इसीलिए सप्तर्षि मध्य धृत आसन पूजी जातीं आप यही श्रुति शासन। अग्निहोत्र के समय उपस्थित रहकर सेवा करतीं आप सदा दुख सहकर॥ १४-४२ ॥

केवल देव वशिष्ठ मर्म यह जाने गुप्त आपको नहीं लोग पहचाने। मिथिला में अतएव हुआ न समादर नहीं लोग पहचाने गुप्त वपुषवर॥ १४-४३ ॥

मंडप में मैंने अरुन्धती देखी विधि पूरी की हुई न प्रीति विशेषी। मेरा मन नित रहा सतृष्ण बिचारा कैसी होगी अहो अरुन्धती तारा॥ १४-४४ ॥

आज अमित आश्चर्य अवध का भारी तारा भी बन गयी जहाँ गुरु नारी। गगन अवध में नहीं आज कुछ अन्तर यहाँ देव अधिकारी नखत वपुष धर॥ १४-४५ ॥

धन्य-धन्य मैं धन्य-धन्य मम लोचन अरुन्धती के दर्शन पातक मोचन। सुन सीता के वचन अधिक सकुचानी ऊर्जा बोली मन में बहुत जुड़ानी॥ १४-४६ ॥

सीते तुम अपना ऐश्वर्य छिपाती केवल मुझको गौरव देती जाती। आदि शक्ति तुम रामचन्द्र परमेश्वर हुए यहाँ अवतीर्ण बने दुलहिन वर॥ १४-४७ ॥

एक ब्रह्म ही युगल रूप में आकर देता है आनन्द सुचरित रचाकर। श्रुति वचन अगोचर चारु चरित तुम्हारा तुम सत्य सनातन राम भक्ति वर धारा॥ १४-४८ ॥

हे जनक नन्दिनी अब न अधिक तरसाओ मन में करुणा रस सुरसरि धार बहाओ। करुणा कर मुझको निज किंकरी बनाओ भव सागर से अब मुझको पार लगाओ॥ १४-४९ ॥

सुन अरुन्धती वर वचन नमित सिर करके घूँघट से आनन ढाँक नयन जल भरके। बोली सीता यह क्या करती हैं देवी मैं सदा आपकी चरण कमल रज सेवी॥ १४-५० ॥

मैं पुत्रवधू हूँ केवल देवि तुम्हारी तुम कौसल्याधिक पूज्या सास हमारी। बस यही युगल का रहे सनातन नाता सीता शिष्या और अरुन्धती गुरु माता॥ १४-५१ ॥

हे देवि भक्ति का यही रहस्य मनोहर सम्बन्ध बिना बढ़ता न कभी रस निर्भर। अतएव जीव ईश्वर से निज रस पोषक कोई सम्बन्ध बनाता श्रुति रस तोषक॥ १४-५२ ॥

यह भक्ति कुलवती लज्जा शीला नारी जिसकी है गुह्य साधना सुन्दर सारी। घूँघट समान है भक्ति भाव अति प्यारा जिससे यह ढँककर बदन भुवन उजियारा॥ १४-५३ ॥

उसके ही ओट से प्रभु मुख कमल निरख कर कर देती जन मन शीतल शुचि रस भर कर। अतएव यही सम्बन्ध सदा रहने दें सेवा सौभाग्य जनकजा को लहने दें॥ १४-५४ ॥

वंशस्थ अरुन्धती हर्षवती हुई वहाँ विलोक सीता वर वाक्य चातुरी। सुलग्न उत्कण्ठित आम्र वृक्ष में प्रमोद सत्पुष्प पराग राग था॥ १४-५५ ॥

॥ श्रीराघवः शन्तनोतु ॥