वचन सुधासम सुन वशिष्ठ के छाया उर में आनन्द अरुन्धती मानस में उमड़ा शुभ परितोष महाह्रद। विकसा जिसमें परम शुद्ध दाम्पत्य सरोज मनोहर श्रद्धा नव पराग परिपूरित रति मकरन्द सुनिर्भर॥ ४-१ ॥
उदित हुआ तत्क्षण देवी का आनन चारु निशाकर मुसकाया जिसको विलोक मृदुहास कुमुद रस निर्भर। अंग अंग कंटकित हो गया सिहरा सिर का अंचल पूरित हुए हर्ष के जल से मंजुल दिव्य दृगंचल॥ ४-२ ॥
आज प्रमोद पयोधि मग्न थी सीमन्तिनी शिरोमणि मुदित नाचती ज्यों मयूरिणी सुन नव नीरद की ध्वनि। आज मानती सफल जन्म थी परम प्रसन्न प्रणयिनी शीत रश्मि रेखा सी लगती सागर निकट विनयिनी॥ ४-३ ॥
नील समुद्र अंक में करती तरल तरंगिनी क्रीड़ा पारिजात परिरम्भित लतिका मन में रखती ब्रीड़ा। नील गगन में क्षितिज वसुमती मिलकर अति हर्षाती पूर्ण चन्द्र से शरद शर्वरी मिलकर थी शर्माती॥ ४-४ ॥
मन में रही सोच ऋषि-पत्नी धन्य धन्य भव सागर गजब किया चातुर्य समर्पित ब्रह्मा भी अति नागर। यदि होता संसार न आते रघुकुल केतु कहाँ फिर कौसलेन्द्र सरकार बँधाते दृढ़तम सेतु कहाँ फिर॥ ४-५ ॥
यदि होता न सिंधु यह आते कहाँ राम रघुकुल मणि किसे छिपाती हृदय मध्य सीता सुरवधू शिरोमणि। पूर्ण ब्रह्म शिशु से होती मोदित कैसे कौसल्या किसकी चरण-रेणु से तरती पतिता शिला अहल्या ॥ ४-६ ॥
किसके विमल गान से होती सरस्वती कृतकृत्या किसकी चर्चा से होती कवियों की वाणी नित्या। कौन जटायु श्राद्ध करता कपि को भी मित्र बनाता कौन यहाँ निर्बल शबरी से माँ का नात निभाता॥ ४-७ ॥
पर दाम्पत्य सूत्र निरपेक्षित इसकी सत्ता कैसी बिना शेष फण के धरणी की अस्थिर सत्ता जैसी। शुद्ध गृहस्थाश्रम ही सचमुच मूल आश्रमों का है जैसे सुदृढ़ बृक्ष आश्रय फल मूल संगमों का है॥ ४-८ ॥
यती ब्रह्मचारी वैखानस इसी विटप को पाकर छाया में विश्रान्त मुदित मन रहते श्रान्ति मिटाकर। शुद्ध गृहस्थाश्रम कल्पद्रुम विहग तीन आश्रम हैं इसके फल से संजीवित छाया में खोते श्रम हैं॥ ४-९ ॥
यही जन्म देता सन्यासी योगी वैरागी को यही प्रकट करता मारुति से हरिपद अनुरागी को। राम केलि करते इसके ही शुद्ध प्रेम आंगन में श्याम बजाते वंशी इसके ही तो वृंदावन में॥ ४-१० ॥
जहाँ सतत मानस गीता से गुंजित चारु सदन हो जहाँ पितृवत्सल राघव माधव सा सुभग सुवन हो। दशरथ नन्द सरिस प्रिय पति हों जहाँ पुनीत सुखप्रद जहाँ कौसिला जसुमति सी हो पत्नी सती प्रियंवद ॥ ४-११ ॥
जहाँ भरत लक्ष्मण रिपुहन से भ्राता बंधु हितैषी आंजनेय से सेवक निस्पृही त्यागी स्वामि शुभैषी। जहाँ द्रौपदी सी भगिनी हो सात्त्विक लज्जा शीला गार्गी-सी हो आर्य कन्यका जहाँ समर्चित लीला॥ ४-१२ ॥
अनसूया-सी पतिव्रता का जहाँ दिव्य हो संगम ऋषियों के वैदिक निनाद का जहाँ मधुर स्वर सरगम। अपरिछिन्न ब्रह्म भी जिसके अंचल में छिप जाता क्षीर सिंधु को त्याग जहाँ पयहित निशिदिन ललचाता॥ ४-१३ ॥
पंचयज्ञ बलि वैश्वदेव की पावन जहाँ प्रतिष्ठा जहाँ अतिथि सत्कार हेतु स्वीकृत न देह की निष्ठा। अन्य तृप्ति करणीय जहाँ है सहकर स्वीय बुभुक्षा जहाँ चरम पुरुषार्थ जीव का दारुण बंधु मुमुक्षा॥ ४-१४ ॥
जहाँ किसी को नहीं सह्य है चीटी की भी हिंसा जहाँ धर्म शिरमौर्य प्रतिष्ठित मन क्रम वचन अहिंसा। जहाँ बुझे दीपक पर भी जलता दिखता परवाना सत्यम् शिवम् सुन्दरम् का हो जहाँ प्रतिश्रुत बाना॥ ४-१५ ॥
इस महत्त्वशाली आश्रम से स्वर्ग श्रेष्ठतर है क्या इसकी तुलना में किंचित अपवर्ग ज्येष्ठतर है क्या। यही निलय अपवर्ग स्वर्ग का यही जनक मानव का यही देव का तपस्थान है यही दमक दानव का॥ ४-१६ ॥
रामकृष्ण का जन्म करण भी यही गृहस्थाश्रम है साधन का सुमनोज्ञ संस्करण यही गृहस्थाश्रम है। स्वर्ग नरक अपवर्ग यहीं से बनते और बिगड़ते इस आश्रम के लोग देव दानव को नित्य झिड़कते॥ ४-१७ ॥
इससे अधिक सौख्यदायक भी दुराराध्य सुरपुर क्या अष्ट पदार्थ रहित त्रिदशालय इससे शान्ति प्रचुर क्या। शुभ कर्मों के भोग मात्र भोगते वहाँ के वासी पर न कभी भी हो सकते वे अग्रिम कर्म विकासी॥ ४-१८ ॥
क्षीण पुण्य सब लोग घूमकर आते पुनः यहीं पर आवागमन अन्ततोगत्वा सब का इसी मही पर। कर्म भूमि यह जीव मात्र की यही बनाता योगी सत्य यहीं के लोग हो सके देवों के सहयोगी॥ ४-१९ ॥
इस धरती के लोग नहीं यदि स्वर्ग लोक को जाते दनुजों के कुयंत्र से तो फिर देव नहीं बच पातें। मानव ने ही सपदि भीठ दी देव-दनुज की खाई दूरी स्वर्ग और पृथ्वी की नर ने मुदित मिटाई॥ ४-२० ॥
दर्शन हित पार्थिव पुंगव के देव दौड़कर आते इसी लोक के चरित सुधा से मन का ताप बुझाते। इसी लोक के पुरुष-व्याघ्र पर सुर-प्रसून थे बरसे एक नारी-व्रत देख यहाँ का निज कुकृत्य पर तरसे॥ ४-२१ ॥
यही जनक सुख हेतु राज्य को छोड़ पुत्र वन जाता यहीं चरित्र-दोष पर सुरपति पुत्र दंड भी पाता। शीतल पद सरोज से करती अग्नि यहीं की सीता यहीं निरंतर गाई जाती नित गिरिधर की गीता॥ ४-२२ ॥
दशरथ सा सौभाग्य कहो क्या मिला किसी सुरवर को किसने गोद खिलाया लेकर रामभद्र रघुवर को। पूर्ण-ब्रह्म का आनन किसने अमित बार है चूमा परमानन्द सुधा समुद्र में कौन मग्न हो झूमा॥ ४-२३ ॥
इस गृहस्थ आश्रम को गर्हित कहता कौन मनीषी किसको विबुध वन्द्य सुरभि भी लगती अरे खरी सी। किस अभाग्यशाली को उज्जवल हिमकर दिखता पीला किसको भागीरथी पूरशित अरे भासता नीला॥ ४-२४ ॥
किन्तु यहाँ ज्ञातव्य गृहस्थाश्रम की है परिभाषा है एकान्त चित्त से इसकी पढ़नी सादी भाषा। इस महनीय वृन्त के पति-पत्नी ही मंजुल फल हैं इसी मंजरी में लसते यह दोनों तुलसी दल हैं॥ ४-२५ ॥
किसने कहा भोग हित सत्पति करता नारि वरण है किसने लिखा वासना हित पत्नी परिणयी करण है। जगत यज्ञ में ही पत्नी पति का सहयोग निभाती इसीलिये संस्कृत पति से वह प्रेम अलौकिक पाती॥ ४-२६ ॥
पत्नी है अध्वर्यु यज्ञ का पति है उसका होता पत्नी मंगल गीत गायिका पति है उसका श्रोता। पति सौरभ सुरतरु पत्नी उस पर आश्लिष्ट ब्रतति है पत्नी परा गिरा पूरक सुस्फोट उसी का पति है॥ ४-२७ ॥
विमल राम-पद भक्ति सुधारस प्याला मधुर पिलाकर पति होता कृतकृत्य प्रिया को रघुपति तक पहुँचा कर। करती दूर पतन से पति को वही धर्मतः पत्नी जिसकी सत्ता में पति को भी नहीं अभीष्ट सपत्नी॥ ४-२८ ॥
मानवता से दूर राम-पद विमुख त्याज्य है भर्ता अनाचार रत पर कलत्र लम्पट संस्कृति संहर्ता। भवश्रम का परिहार एक है ध्येय गृहस्थाश्रम का यह न पूर्ण यदि व्यर्थ भार वह कालकूट संभ्रम का॥ ४-२९ ॥
नरक गृहस्थाश्रम वह जिसमें मिल न सके श्रमहारी। जीवन वह विडम्बना जिसमें आ न सके धनुधारी। जीवित मृत समान वह नर जिसमें आदर्श न आया उसे कोटि धिक्कार जिसे निज भारतवर्ष न भाया॥ ४-३० ॥
मातृभूमि पर नहीं प्रेम जिसको क्या वह प्राणी है गाया नहीं आर्य संस्कृति जिसने क्या वह वाणी है। दूर देश में व्यर्थ लोग विद्या का दीप जलाते कामधेनु तज अर्क निकट पय के हित व्यर्थ ललाते॥ ४-३१ ॥
बालक मरते क्षुधा क्षीण कुत्ते हैं दूध उगलते मनुज ठिठुरते तुहिन मध्य पशु कनक भवन में पलते। सती तरसती चीर हेतु कुलटा पट-भूषण सजती वीणा निष्प्रयोग हा हा तातों पर रागिनी बजती॥ ४-३२ ॥
जिसे सुधाकर समझा था वह दुर्जर गरल उगलता भाई भाई को मदान्ध शोषण दीवार में ढलता। जननी बनी मृत्यु दिखती हा जनक बन गया अब यम आशावरी बिहाग हो गई हुआ शोक मृदु सरगम॥ ४-३३ ॥
अरे समाजवाद का कैसा तथ्यहीन यह नारा रहा अमीर अमीर अभी भी मरा गरीब बिचारा। जनता के कदुष्ण शोणित से तर्पण शासक करता मृतक अस्थियों पर निर्दय पद रख स्वच्छन्द विहरता॥ ४-३४ ॥
हम स्वतंत्र ना झूठ झूठ अब तक परतंत्र रहे हम शतियों से मदांध शासक निर्मित षड्यंत्र सहे हम। भौतिकता दुर्गंध हृदय से जब तक नहीं हटेगी पारतंत्र बेड़ी भारत की तब तक नहीं कटेगी॥ ४-३५ ॥
अपर धर्म सभ्यता हमी को निश्चित खा जाएगी वैज्ञानिक सुविधा मानव के मूल्य मिटा जाएगी। अन्धानुकरण काल किसी दिन नर को खा डालेगा मृदु मराल मंडित मानस को कुटिल काक पालेगा॥ ४-३६ ॥
वैध्य भोग स्वीकृत है पर वह भी श्रुति-धर्म नियंत्रित चपला मृत्यु हेतु बनती यदि न हो यंत्र से यंत्रित। उच्छृंखल जीवन भी तद्वत सार हीन इस जग में सदा अपेक्षित अनुशासन है राष्ट्र-धर्म मुद मग में॥ ४-३७ ॥
मेरा तो श्रुति-शास्त्र-धर्ममय धन्य गृहस्थाश्रम है जिसे देख कर श्रान्त पथिक भी मुदित त्याग निजश्रम है। ब्रह्म पुत्र श्रुतियों के द्रष्टा मिले मुझे पति प्यारे जिनसे प्रकटे आर्य-धर्म के निर्णय मंजुल सारे॥ ४-३८ ॥
ले सकते थे तपः पुंज से मेरे पति इन्द्रासन किन्तु अपेक्षित सदा उन्हें है कानन में दर्भासन। स्वर्ग-लोक से भी शतगुण आनन्द हमें कानन में अमरावति से कोटि गुणित सुख हमको पर्ण भवन में॥ ४-३९ ॥
अष्ट सिद्धि नव निधियाँ भी मेरे पदाब्ज की चेरी पर निजकर गृह परिचर्या में सदा रही रुचि मेरी। इन्द्राणी भी कुटिया की सेवा के लिये तरसती पर निजकर से सकल कार्य कर मैं निज हिये हरषती॥ ४-४० ॥
मुझे अभाव नहीं है किंचित सुरपुर के भोगों का ठुकराकर मैं उन्हें समर्जित करती सुख योगों का। सुर-ललना के अलंकार पर मुझे न होती तृष्णा निज पति प्रेम विभूषण से मैं रहती सदा वितृष्णा॥ ४-४१ ॥
विविध वस्तुओं का लालच मानव का धर्म नहीं है नित्य वस्तु परब्रह्म प्रतिष्ठा नर का कर्म यही है। सुधापान कर देव बृंद क्या नहीं कभी भी मरते प्रलय काल में भी क्या वे नन्दन में मुदित विहरते ॥ ४-४२ ॥
आवश्यकता सुरसा मुख ज्यों ज्यों बढ़ता जायेगा दृढ़ विवेक मारुति पर त्यों त्यों संकट ही आयेगा। अतः अपेक्षाओं को कर सीमित कर्त्तव्य समीक्षित राष्ट्र-धर्म रक्षण मख में मानव हो सकता दीक्षित ॥ ४-४३ ॥
नहीं भेद मानते प्रकृति परमेश धनिक निर्धन का यह विभेद कल्पना जनित परिणाम मनुज के मन का। महल तथा कुटीर पर रवि शशि सम निज किरण वितरते पवन मन्द शीतल स्पन्दन से सब का ताप प्रहरते॥ ४-४४ ॥
धनिकों की तुलना में निर्धन अधिक स्वस्थ होता है निरातंक निश्चिंत रैन में मस्ती से सोता है। रूखा सूखा शाक पात खा जल में प्यास बुझाकर सुख से रहता कानन में पत्तों की कुटी बनाकर॥ ४-४५ ॥
मेरा तेरा कह अमीर हैं श्वान मृत्यु से मरते श्रम से अर्जित स्वीय वित्त का नहीं भोग वे करते। निर्धन को तो अनायास ही तरु फल मूल खिलाते बिना परिश्रम के गिरि निर्झर शीतल नीर पिलाते॥ ४-४६ ॥
फटे पुराने चिथड़े ही हैं निर्धन के पाटम्बर इनसे ही मिलने को आते भूतल पर पीताम्बर। मित्र निषाद मान भिल्लों को सुख से गले लगाते बानर के चरवाह अहो शबरी के हैं फल खाते॥ ४-४७ ॥
चाहे पश्चिम उवें इन्दु-रवि कुसुमित हो नभ-मंडल चाहे बरसे शैल सुधारस नील सिंधु हो उज्ज्वल। किन्तु द्रविण मदिरा मदान्ध को कभी न मिलते राघव वे तो दोनों के वत्सल हैं सीतापति करुणार्णव॥ ४-४८ ॥
तपोराशि पति वाम भाग में इन्द्राणि सी लसती निरख दयित का प्रेम आप पर मैं निज हृदय हुलसती। होम काल में अप्रमत्त मैं पति सहयोग निभाती आहुति कर पावक में विधिवत परम मुदित हो जाती॥ ४-४९ ॥
ब्राह्मण पत्नी का इससे भी अधिक भाग्य क्या होगा इससे उत्तम भर्तृ-प्रेम पूरित तड़ाग क्या होगा सीमन्तिनी कौन मुझसे है अधिक आज बड़भागी जिसके पति हों ऋषि वशिष्ठ यम निरत स्वभाव विरागी॥ ४-५० ॥
विटप वेलि सिंचन में मुझको अधिक प्रेम है आता मनो तनय वात्सल्य हृदय को अनुदिन है सरसाता। वेदाध्ययन हेतु मम पति ढिग शिष्य वृन्द हैं आते निज औरस पुत्रों से भी मेरे मन को हैं भाते॥ ४-५१ ॥
श्रमित देख ब्राह्मण शिशुओं को मैं पति के ढिग जाती अन्य कथा मिस से उनको पाठन से विरत कराती। खिला मधुर मोदक बटुओं को शीतल नीर पिलाकर कर देती विश्रान्त मातृवत् अतिप्रिय वचन सुनाकर ॥ ४-५२ ॥
औरस पुत्रों से भी प्रियतम मानस सुत होते हैं क्यों कि सरल निस्स्वार्थ भाव वे मातृ-भक्त होते हैं। उनकी होती सरल भाव भाविता मनोज्ञ समर्चा हो जाती उनसे ही पूरण चतुर-चित्त की अर्चा॥ ४-५३ ॥
लख प्रमाद जब किसी शिष्य को मुनिवर डाट सुनाते वेद पाठ स्वर विस्मृत से वे कुछ क्रोधित हो जाते। उनके निकट तुरत जाकर मैं कर से सिर सहलाकर कर देती अनुनीत उसी क्षण बातों से बहलाकर ॥ ४-५४ ॥
मेरे जैसा सुख हे विधि सात्त्विक ललनाएँ पाएँ इसी भाग्य गरिमा से वे सुर वधुओं को ललचाएँ। इसी सादगी में रह कर वे मंगल-धाम सवारें पातिव्रत परायणा हो धरती पर स्वर्ग उतारें॥ ४-५५ ॥
यों विचार रस मग्न ऋषि-वधू मन में अति हर्षानी पुलकित हो पति पद सरोज में अति प्रफुल्ल लिपटानी। ऋषिवर ने विनता वनिता को कर से तुरत उठाया प्रणय पूर्ण लोचन प्रवाह से दयिता को नहलाया॥ ४-५६ ॥
आए तत्क्षण प्रेम प्रमोदित देव सहित चतुरानन श्वेत हंस की विमल विभा से दीप्त हो उठा कानन। अम्बर तल से अपर चन्द्र से प्रमुदित उतर रहे वे वन के जड़ जंगम जीवों को मंगल वितर रहे वे॥ ४-५७ ॥
श्वेत हंस आसीन द्रुहिण के तनु की शोभा कैसी तुंग हिमाचल चारु शृंग पर किंशुक की द्युति जैसी। विलस रहा था वाम हस्त में जल से कलिक कमंडल सकल सृष्टि को वे प्रदान करते हैं जिससे सम्बल॥ ४-५८ ॥
अब मराल विष्टर से ब्रह्मा उतरे भूतल ऊपर आया मनो मेदिनी तल पर पार्वण पूर्ण क्षपाकर। तपःपूत सुत की कुटिया में धाता मुदित पधारे अरुन्धती मंडित वशिष्ठ को ध्यान निमग्न निहारे॥ ४-५९ ॥
सींच कमंडल शिशिर सलिल से ऋषि को तुरत जगाया चूम मुखाम्बुज अति सप्रेम सुत को निज हृदय लगाया। अरुन्धती ने कर प्रणाम विधि का पद-कमल पखारा बढ़ा श्वसुर में मोद हो गया पूर्ण मनोरथ सारा॥ ४-६० ॥
अब विरंचि तन पुलक मनोहर गद्गद स्वर में बोले वचन विनीत सारगर्भित सिद्धांत सुधारस घोले। वत्स वशिष्ठ प्रसन्न जानकर मुझे माँग लो अब वर किया गृहस्थाश्रम में रहकर तप तुमने मुनि दुष्कर ॥ ४-६१ ॥
परम सुन्दरी पत्नी के ढिग ब्रह्मचर्य व्रत पालन हुआ तुम्हीं से एकमात्र संभव यह दुष्कर साधन। भोजन के अभाव में क्या उपवास कहा जाता ब्रत इन्द्रिय शक्ति रहित को कहते ब्रह्मचर्य में अभिरत॥ ४-६२ ॥
अर्थ धर्म कामादि माँग लो आज मोक्ष भी हे सुत देने को समस्त सुख अब दम्पति हित मैं हूँ प्रस्तुत। बोले तब ऋषिराज जोड़कर विनय सुनें हे धाता जगतीतल सुख सिद्धि प्रभो नारकी मनुज भी पाता॥ ४-६३ ॥
नहीं तात क्षण भंगुर जग के सुख में हमें रमाओ रामचन्द्र मुखचंद्र सुधा दम्पति को सपदि पिलाओ। शिव लोचन चकोर शशि मुख का नयन-चकोर करें हम निरख निरख कोसल किशोर को चित्त विभोर करें हम ॥ ४-६४ ॥
वह अदभ्र शोभा लखने को तृषित हमारे लोचन दम्पति पर प्रसन्न हों कैसे रघुपति राजिव लोचन। यही हमें ईप्सित वरेण्य वर कृपा करें चतुरानन कुसुमित हो अविलम्ब सुरभिमय दम्पति मानस कानन॥ ४-६५ ॥
सुन वशिष्ठ के वचन विधाता मन में अति हर्षाए पुलकित प्रेम प्रमोद मग्न दृग अष्ट नीर भर आए। धन्य-धन्य तुम हो ऋषि दम्पति परम रम्य अभिलाषा पूरी होगी आशु किसी दिन मंगलमय यह आशा ॥ ४-६६ ॥
पूर्णकाम लोकाभिराम श्रीराम सुप्रेम वशंवद दर्शन देगें ऋषि दम्पति को वही भक्तजन सुखप्रद। होकर निखिल शास्त्र वेत्ता तुमसे वे शास्त्र पढ़ेंगे दम्पति मृदु मानस भित्ति पर श्रद्धारत्न मढ़ेंगे॥ ४-६७ ॥
वे इक्ष्वाकु-वंश में अब नृप-शिशु बनकर आएँगे विमल चारु चरितामृत से जन-मानस सरसाएँगे। सानुज वे सानन्द पढ़ेंगे वेद शास्त्र सब तुमसे परब्रह्म परमेश्वर होंगे पूर्ण सुशिक्षित तुमसे॥ ४-६८ ॥
करके पौरोहित्य तात रघुकुल की करो प्रतीक्षा रहो अयोध्या कानन में पूरी होगी शुभ इच्छा। सरयू तट समीप अति पावन अवधपुरी है सुन्दर वही रहो जाकर कानन में प्रमुदित दम्पति मुनिवर॥ ४-६९ ॥
यों कह शवधृति देव सहित सानन्द स्वधाम सिधाए पूर्ण काम मुनिवर दम्पति सब साधन के फल पाए। हुआ पूर्ण परितोष हृदय में जागी तीव्र प्रतीक्षा गिरिधर प्रभु दर्शन की दम्पति उर में बढ़ी दिदृक्षा॥ ४-७० ॥
॥ श्रीराघवः शन्तनोतु ॥