सवैया ऋषि दम्पति चित्त सरोरुह में रघुचन्द्र प्रबोध पयोज खिला। जिस भाव पराग परागत मंजुल प्रेम महा मकरन्द मिला। उसमें पाके भक्तिसुधा रसस्वाद विषाद महा तरु शीघ्र हिला। अब जीवन जानकी जीवन हेतु समर्पित हो भव से न झिला॥ ११-१ ॥
अति प्रेम प्रफुल्लित देह लता दृग नेह के नीर रहे थे चुवा। जिसमें मुनिनायक की शुचि पावक होम की भीग रही थी स्रुवा। कर अग्नि समूहन वेदन विधान से भाल से आश्रम धूलि छुवा। निज पौत्र को सौंपने हेतु निजाश्रम भार समातुर चित्त हुआ॥ ११-२ ॥
बुलवा के सुतात्मज को विधि सम्भव नैन से नीर बहाने लगे। बिठला निज अंक में पौत्र वरेण्य को नेह में आप नहाने लगे। ममता शुचि दिव्य महासरिधार में धीरज सेतु ढहाने लगे। यम निष्ठ वशिष्ठ विवेकी वरिष्ठ विवेक से यों समझाने लगे॥ ११-३ ॥
तुम गोत्र प्रवर्तक की हो धरोहर भूलो न आर्ष परम्परा को। सुर सेनप आनन कर्म से तात करो कृतकृत्य वसुन्धरा को। रहो संयम शील समाधि सुनिष्ठित वाणी में लाओ ऋतम्भरा को। शशि ज्यों निज कीर्ति सुधा रस से करो पोषित भारत की धरा को॥ ११-४ ॥
निज वेद स्वाध्याय प्रवर्वितता से सपने में न तात प्रमाद करो। वद सत्यं सदाचर धर्म निरन्तर भारत भूमि विषाद दरो। निज वैदिक शिक्षा से कोटि जनों के मनोगत व्याप्त विषाद हरो। सुत शक्ति के शक्ति समर्जन द्वारा सभी जग में आह्लाद भरो॥ ११-५ ॥
घनाक्षरी कुलपति पद पर चिरकाल रहकर प्रण के समान ऋषिकुल मैंने पाला है। अष्ट विकृत प्रकृति त्रितय षडंग पाठ वेद की परम्परा में संस्कृति को ढाला है। शिष्य पुत्र में न कोई भेद भाव माना मैंने पुतरी ज्यों पलक सुछात्रों को संभाला है। अमृत पिलाया बटुओं को यथाशक्ति मैंने पी लिया स्वयं ही क्रूर कालकूट हाला है॥ ११-६ ॥
तुमसे सुयोग्य पौत्र को बना के कुलपति आज इस भार से विमुक्त हो रहा हूँ मैं। विधि की विडम्बना से उपराम हेतु आज ऋषि परिवार से वियुक्त हो रहा हूँ मैं। भारत की दूरगामी संस्कृति संभालने को सकल संसार से आयुक्त हो रहा हूँ मैं। नूतन अध्याय जोड़ने को इतिहास बीच विधि के विचार से नियुक्त हो रहा हूँ मैं॥ ११-७ ॥
पढ़ने पढ़ाने से न पराङ्मुख होना कभी ब्राह्मणों का स्वाध्याय ही एक मात्र धन है। करना विचार शास्त्र चिंतन गँभीरता से वाणी का तो उपहार वेद प्रवचन है। पंचयज्ञ बलि वैश्वदेव छोड़ना न तात ऋषि कुल का तो प्राण याजन यजन है। आजीवन पालना मनोज्ञ वैदिक स्वधर्म वर्णाश्रम कर्म से पवित्र होता मन है॥ ११-८ ॥
ऊबना कभी न वत्स होकर अधीर तुम आगामी कठिनतम जीवन संघर्ष है। टकराना पर्वतों से जाह्नवी प्रवाह जैसे क्षुब्ध कभी होना नहीं उद्धत आमर्ष से। जटिल परिस्थिति का समाधान कर लेना विरति विवेक वेद विमल विमर्श से। पाराशर परम प्रसन्नता से आश्रम को रखना संभाल मित्रवर्ग परामर्श से॥ ११-९ ॥
जीत के सपत्न षट प्रभु पद के निकट संयम समाधि में निरत सदा रहना। सत्यं वद धर्मचर स्वाध्यायान्मा प्रमदः इसी ऋचा अनुसार नियम निबाहना। वर्णाश्रम धर्म श्रुति विहित विचार वत्स सदा-सदा चरण निरत सुख लहना। पाराशर पर अपवाद से सुदूर रह किसी के भी गुण-दोष कभी भी न कहना॥ ११-१० ॥
आगम स्वाध्याय प्रवचन व्यवहार वत्स शास्त्र उपयोग के ये चार ही प्रकार हैं। चार वेद चार फल चार वय चार वर्ण चारों आश्रमों के ये रुचिर उपहार हैं। मानवीय सभ्यता के यही चिर सम्भृत हैं भारतीय संस्कृति के यही चन्द्रहार हैं। विप्र कुल भूषण ये दूषण हैं दूषण के जीवन सुवाटिका के सुभग शृंगार हैं॥ ११-११ ॥
विद्या है विभूषण अमोघ रत्न भूसुर का विद्या ही मनुष्य का हितैषी एक मित्र है। विद्या जननी जनक विद्या है कनक मणि विद्या प्राण जीवन है विद्या ही चरित्र है। विद्या ही सोपान वेद वेद्य तत्त्व प्राप्ति हेतु विद्या भवसागर का सुदृढ़ वहित्र है। विद्या से विहीन नर सूकर कूकर खर भूतल का भार बना नीच अपवित्र है॥ ११-१२ ॥
पाराशर इस उपदेश की सुधा से तुम जगत की भव भय क्षुधा को मिटाओगे। कलिकाल की व्यवस्था स्मृति में निबद्धकर वेद ऋषि जैसे कलि में भी कीर्ति पाओगे। भारतीय इतिहास विषद आकाश बीच विगत कलंक हरिणांक कहलाओगे। पुत्र बादरायण स्वपौत्र शुकाचार्य को निहार कृतकार्य कृतकृत्य बन जाओगे॥ ११-१३ ॥
देके अनुशासन समस्त ऋषिकुलपति पद पर किया अभिषिक्त पाराशर को। संयमी सुसाहसी वरेण्य वेद विज्ञ तपोमूर्ति मुनिवर्य गुण ज्ञान सुधाकर को। चूम मुख पंकज गले लगा आशीष देके विधिवत ऋषि ने प्रबोध वंशधर को। प्रस्थानिक स्वस्त्ययन वेद मंत्र पुरःसर सिरसा प्रणाम किया देव वैश्वानर को॥ ११-१४ ॥
माता अरुन्धती ने दुलारे पौत्र को निहार सींच दिया उसको विलोचनों के नीर से। अंचल समावृत दुलार चुचकार उसे सपदि शिशिर किया साहस समीर से। मुनि वनिताओं मुनि कन्याओं को सिखा के भाव भरी विदा लेके सारिका और कीर से। वैखानस वृत्त हेतु प्राणपति के समेत चली उपरत मन विदा हो कुटीर से॥ ११-१५ ॥
ज्यों ही आये कुटिया के बाहर वशिष्ठ मुनि विदा लेके मुनिजन पौत्र पाराशर से। त्यों ही देखा मानस मरालों से समूह्यमान विमल विमान को उतरते अम्बर से। वंद्यमान सिद्ध सुर चारण मन्धर्व मुनि किन्नर असुर नाग मनुज निकर से। निरख आसीन यान मध्य चतुरानन को परम प्रकाशमान कोटि दिनकर से॥ ११-१६ ॥
आया देख विधि को सुअवसर पे दम्पति के नेह नीर भरि आया नीरज नयन में। पुलक प्रफुल्लित पनस सा हुआ शरीर उमगा आनन्द अब्धि अन्तर अयन में। सपना या सत्य है सुमंगल दरस यह अति अनुराग राग कोमल सुमन में। सानुकूल विधि जान निज भाग धेयमान सात्त्विक सुभाव जगा तपः पूत तन में॥ ११-१७ ॥
अरुण वरण तन अरुण वसन राजै वाम अंस लम्ब मान पीत उपवीत था। कर में कमण्डलु लसित जाह्नवी का जल विष्णु पद पद्म रस चरित पुनीत था। चारों वेद चारों मुख पंकजों में भ्राज रहे मानस विमल शक्ति भूषण परीत था। लोक सृष्टि चातुरी तुरीय प्रीति आतुरी विधाता का हृदय पुत्र पर अति प्रीत था॥ ११-१८ ॥
सवैया आते विलोक विधाता को दम्पति प्रेम समेत किये पग वंदन। नीरज लोचन नीर से अर्घ्य दे नेह से निघ्न किये अभिनन्दन। धोरण से अवतीर्ण पिता ने गले से लगाकर भूसुर चंदन। नन्दन की नव मल्लिकाओं से सनाथ किये मुनि को हरिनन्दन॥ ११-१९ ॥
घनाक्षरी श्वसुर की पद पंक जात की पवित्र पांशु पावन पराग धर शीश पे अरुन्धती। अखण्ड सौभाग्यवती भव सुन शुभाशीष पाई मानो नव निधि मुदित हुई सती। अचल संपुट कर परस-परस पद तामरस भागधेय सरस सराहती। आनन्द में झूम-झूम प्रेम रस ऊम-ऊम विधि पुत्र वधू लसे मानो सुर व्रतती॥ ११-२० ॥
सवैया देखा चतुर्मुख ने निज सम्मुख दम्पति को कर पंकज जोड़े। गेह के देह के नेह से निर्मित बंधनों को मन से तृण तोड़े। मानो मधुव्रत युग्म चला उड़ अम्बर में कमलालय छोड़े। श्रावण गंग तरंग की धार को कौन पयोनिधि से अब मोड़े॥ ११-२१ ॥
बोले विधाता विचार विचक्षण दम्पति छोड़ चले तुम आश्रम। श्री रघुनाथ कृपालु कृपा से हुआ मन में यह त्याग उपक्रम। संग्रह से तुम नित्य पराङ्मुख तात परिग्रह में न परिश्रम। केवल था विधि का यह पालन पूर्ण किया उसको भी बिना श्रम॥ ११-२२ ॥
श्री रघुनन्दन प्रीति का पोषक दम्पति का गृहमेधि समागम। भावनाओं का पवित्र समंजस भक्ति सुरागिनी का स्वर सरगम। वासनाओं का न लेश यहाँ पर राम उपासना गेह मनोरम। कोटि विरक्ति समान गृहस्थी है विप्र वशिष्ठ का संयम उद्गम॥ ११-२३ ॥
जो न जीत सके मद क्रोध मनोभव ऐसे विरक्त विरक्त नहीं। जो सदा इन क्रूर विकारों से दूर हो ऐसे गृहस्थ-गृहस्थ नहीं। विजितेन्द्रिय संयमशील गृहस्थ को स्वर्ग यहीं अपवर्ग यहीं। अजितेन्द्रिय वेश विरक्त त्रिलोक में पायेगा क्या सुख शान्ति कहीं॥ ११-२४ ॥
विषयारति मन जो न रंगा रघुननन्दन से तब वस्त्र रंगाने से लाभ नहीं। मन जो भटके भव कानन में तब कानन जाने से लाभ नहीं। मन जो न रमा हरि की धुनि में तब धूनि रमाने से लाभ नहीं। मन जो न मुड़ा विषया रति से तब मूड़ मुड़ाने से लाभ नहीं॥ ११-२५ ॥
अतएव अरुन्धती का यह निर्णय मंगल कार्य विधान बना। अनुराग विराग सुभाग महाव्रत साधनों का ये निधान बना। यह भावुकता का सुरम्य महीतल स्नेह का स्वर्ण सोपान बना। वनिताओं के हेतु यही इतिहास में भक्ति मनोहर गान बना॥ ११-२६ ॥
इस नारि ललाम अरुन्धती से हे वशिष्ठ वशी तुम धन्य बने। इसके कर पल्लव के ग्रह से गृहियों के लिए तुम मान्य बने। इसके तप तेज प्रभाव से वत्स सदा तुम एक वदान्य बने। इसकी शुचि साधना से तुम भी रघुनायक भक्त अनन्य बने॥ ११-२७ ॥
यह नारी नहीं सुत भूतल पे उतरी बन मंगल भाग्य तुम्हारा। अविराम चलेगी इसी की कथा जग में यथा देव नदी वरधारा। सहचारिणी तेरी रहेगी सदा यह मिथ्या न तात निदेश हमारा। ऋषि सप्त के बीच सदा चमकेगी अरुन्धती कीर्ति अरुन्धती तारा॥ ११-२८ ॥
तुम ऊबो नहीं इस बन्धन से यह जीवन रम्य सिंगार है तेरा। यह नारकीयातना का है निकन्दन पावन ब्रह्म विचार है तेरा। अपवर्ग और स्वर्ग समन्वय वत्स यही तो सदा सदाचार है तेरा। यह देवि अरुन्धती का सहचार अनुपम शक्ति विहार है तेरा॥ ११-२९ ॥
वह बन्धन-बन्धन मूल नहीं जहाँ राघव प्रेम उजागर हो। वह फूल सदा शत शूल जहाँ अलि गुंजन नेक न आगर हो। वह स्वर्ग नहीं नरकायुत है जहाँ गाया न जाता सियावर हो। वह सागर क्यों भवसागर है जहाँ राम सा रत्न गुणाकर हो॥ ११-३० ॥
अतएव वशिष्ठ निदेश सुनो मन में न द्वितीय विचार बनाओ। हरि इच्छा से कोशल देश में जाके नवीन शुभाश्रम रम्य बनाओ। रहके गृह धर्म में वेद षडंग सुशास्त्र सदा बटुओं को पढ़ाओ। अभी योग्य नहीं है तृतीय विधा फिर पावक होत विधा को चलाओ॥ ११-३१ ॥
घनाक्षरी होकर त्रिकाल के भविष्य के भी विज्ञ सुत अपने भविष्य को नहीं हो कुछ जानते। योगि जन दुर्लभ निगूढ़ परमेश्वरीय लीला के विधान को नहीं हो पहचानते। दूरदर्शिता के बिना बैखानस ब्रत कर राम के बिना भी उपराम तुम ठानते। आश्रम द्वितीय में तुरीय मिले तुझको जो तो क्यों फिर आग्रह तृतीय हित मानते॥ ११-३२ ॥
छोड़ो छोड़ो वानप्रस्थ अभी तो रहो गृहस्थ आज्ञा से ही मेरी फिर बन्धन स्वीकार लो। यहाँ से सुदूर जाके कोशल प्रदेश मध्य नूतन कुटी पर्ण तृणों से सँवार लो। अवध के निकट पढ़ा के वेद भारती नरोत्तम की आरती भव में उतार लो। गोद में अरुन्धती के ईश्वर के व्यूह रूप यज्ञफल सुवन सुयज्ञ को निहार लो॥ ११-३३ ॥
दशरथ नृप के पुरोहित बनो मुनीन्द्र फिर से चलाओ कर्म काण्ड की परम्परा। घन जटा शिखा माला रेखा रथ दण्ड ध्वज पद क्रम संहिता निगम नीति निर्भरा। सुप्त जनता में भरो सप्त स्वर लहरी को भास्वर बनाओ फिर भारत वसुन्धरा। अवध के आश्रम के नव कुलपति बन शिष्य परिवार से मही करो गतज्वरा॥ ११-३४ ॥
ईश का निदेश पाके आया मैं तुम्हारे पास लीलाधर का आदेश सिर माथे पे धरो। कोशला में जाके पुरोहित होके भूपति के पावन प्रतीक्षा परमेश जन्म की करो। चक्रवर्ति आदर से होवे नहीं अहंकार सकल प्रकार सत्य धर्म ब्रत आचरो। गुरु पद पाके जगद्गुरु का वशिष्ठ मुनि युग-युग विमल विरुद विप्र बिस्तरो॥ ११-३५ ॥
सवैया बोले वशिष्ठ कृतांजलि तात से हे विधि मैं यह भार न लूँगा। दुष्कर कर्म पुरोहित का यह शीश पे मैं उपचार न लूँगा। शास्त्र श्रुति स्मृति गर्हित कर्म ये जान के मैं अभिचार न लूँगा। पाप औ पुण्य सभी यजमान के आपने ज्योंअपचार न लूँगा॥ ११-३६ ॥
भूख नहीं प्रभु वैभव का सुरलोक का राज समाज न चाहिए। ब्राह्मण मैं यथा लाभ सुखी अतिरिक्त महा सुख साज न चाहिए। पर्णकुटी में करूँगा मैं साधना नाथ त्रिलोकी का राज न चाहिए। मंद पुरोहित कर्म महीपति मान मुझे महराज न चाहिए॥ ११-३७ ॥
पाके निदेश पिता का अरुन्धती के संग कोशल जाऊँगा मैं। कानन में सरयू के समीप ही पर्ण कुटीर बनाऊँगा मैं। साधन होके भी साधना से निज साध्य को शीघ्र रिझाऊँगा मैं। पर कर्म पुरोहित का जलजोद्भव देव नहीं कर पाऊँगा मैं॥ ११-३८ ॥ यथा – उपरोहिती कर्म अति मंदा। वेद पुराण स्मृती कर निंदा॥ रा.च.मा. ७-४८-६ ॥
लख चातुरी पुत्र की श्री चतुरानन आनन्द से मुसुकाने लगे। अघ कानन वृंद दवानल आत्मज देख महा सुख पाने लगे। अति प्रेम प्रफुल्लित चारों किरीटों को भाव विभोर हिलाने लगे। चतुरानन से सुत आनन चूम के झूम के वे समझाने लगे॥ ११-३९ ॥
तुम धन्य सुपुत्र महीसुर रत्न सराहने योग्य विवेक निराला। महनीय गुणों से तुम्हीं ने त्रिलोकी में वैदिक धर्म सदा परिपाला। रहे संयमी जाया समेत सदैव तुम्हें न दही भवभोग की ज्वाला। अतएव तुम्हारे बनेंगे सुशिष्य जगतपति श्री दशरथ के लाला॥ ११-४० ॥
वह कर्म विकर्म न होता कभी जो जनार्दन के पद से जुड़ जाता। जैसे तोय त्रिशंकु नदी का अपावन पावन गंगा में जाके कहाता। नर देह की राख मिली शिव से बनी भूति सुपूज्य त्रिलोकी में ख्याता। अहि-सा अपवित्र बना हरिसेज सदा जग में अति आदर पाता॥ ११-४१ ॥
तुम जाओ अयोध्या में तात सहर्ष जहाँ सरिता सरयू बहती। जो तुम्हारी सुता के ही नाम से ख्यात त्रिलोक के पातक है दहती। शर से प्रकटी जो तुम्हारे ही वत्स सदा सुख आनंद में रहती। सरयू रघुनन्दन की स्मृति में सरसी हरषी हरि भावतती॥ ११-४२ ॥
जहाँ नित्य निरंतर ध्यान करें अय से होके सुस्थिर साधक ध्यानी। जहाँ होता प्रहार नहीं जनता पे जनार्दन की जो बनी राजधानी। जिसे जानते लोग अयोध्या के नाम से पूजते हैं जिसे सारंग पानी। वह जन्म मही परमेशवर की जहाँ राजा हैं राम औ जानकी रानी॥ ११-४३ ॥
जब लोक विरावण रावण के अपचार से पीड़ित होगी मही। जब गो द्विज भूसुर संत परम्परा रोयेगी ताप दवाग्नि दही। जब उद्धत होगा अधर्म महाअघ आनँद पायेगा धर्म नहीं। तब कौशिला गोद में बालक रूप से होंगे प्रभु अवतीर्ण वहीं॥ ११-४४ ॥
छप्पय परमात्मा अविकार्य अखण्ड अनघ अविनासी। जो सर्वज्ञ सनातन सबके घट-घटवासी। वे दशरथ के अजिर पुत्र बन कर विचरेंगे। बाल केलि रस सुधा धार से क्षुधा हरेंगे। किलक-कलक घुटनों चलें रुचिर धूल भूषण वसन। रामभद्र भव भावना विवश बाल क्रीड़ा करण॥ ११-४५ ॥
दशरथ पिता बनेंगे तब कौशिल्या माता। रूपमालिनी मगध सुता लोचन सुखदाता। भरत लखन रिपुदमन बन्धु भव बन्धन हारी। खेलैं सरजू तीर तीर धनु तर्कषधारी। दशरथ चातक नव जलद प्रणतपाल भव भयहरण। रामभद्र भ्राजिष्णु वपु निखिल लोक मंगल करण॥ ११-४६ ॥
अरुन्धती गुरु माता तुम गुरुदेव बनोगे। लख-लख प्रभु मुख कमल हर्ष से सतत सनोगे। छात्र रूप रघुनाथ तुम्हारे गृह आयेंगे। सरस रूप माधुरी सुधा वे सरसायेंगे। दूर करेंगे दुरित सब दुष्ट दलन करुणायतन। मर्यादा पालक प्रभु राम तुम्हारे शिष्य बन॥ ११-४७ ॥
विद्यानिधि को तुम धनु विद्या सिखलाओगे। आगम निगम पुराण उन्हें तुम बतलाओगे। पूरी होगी मुने चिरंतन तेरी आशा। शीघ्र बुझेगी तात नयन की दरस पिपासा। सब साधन का मधुर फल देंगे प्रभु गुरु दक्षिणा। रामभद्र श्री अवध में भक्ति विवेक विलक्षणा॥ ११-४८ ॥
तुम वशिष्ठ होगे विशिष्ट ऐसा सुख पाकर। मर्यादा पुरुषोत्तम को निज शिष्य बनाकर। शुभ विवाह का मधुर नेग भी तुम्हें मिलेगा। तेरे उर सर मध्य प्रेम पाथोज खिलेगा। गूँजेंगे कवि मधुप गण पीकर वह मकरन्द वर। जाओ-जाओ अब अवध नहीं बनो तार्किक मुखर॥ ११-४९ ॥
अरुन्धती के गोद बैठ प्रभु मृदु मुस्काकर। माँग-माँग मोदक खायेंगे अति सुख पाकर। चूम-चूम मुख पंकज उन्हें दुलार करेगी। गुरु पत्नी बन अरुन्धती भव व्यथा हरेगी। रावण वध कर अवध के राम बनेंगे भूपवर। प्रथम तिलक करके तुम्हीं होगे गुरु पद से अमर॥ ११-५० ॥
वसन्ततिलका पाके प्रबोध विधि से विधि पुत्र ज्ञानी आये सुकोसल पुरी हरि राजधानी। छोटा कुटीर सरजू तट पे बना के देवी अरुन्धती समेत वशिष्ठ राजे॥ ११-५१ ॥
॥ श्रीराघवः शन्तनोतु ॥