अष्टम सर्ग – क्षमा


उस ओर नृप मन से नहीं ज्वाला बुझी प्रतिशोध की लपटें भयंकर उठ रहीं जिसमें वशिष्ठ विरोध की। इस क्रूर कर्म हुताश का होगा अहो परिणाम क्या इतिहास में अब कौन सा अध्याय है विधिवाम का॥ ८-१ ॥

नक्तं-दिवं ज्यों उर अवाँ में अग्नि धू-धू जल रहा कितना भयंकर ताप हा अविराम गति से पल रहा। विज्ञान समिधा का हवन जिसमें नृपति था कर रहा यह कौन जाने तप उताहो ताप कौशिक का महा॥ ८-२ ॥

धिग् क्षत्रकुल बल सुबल है यह ब्रह्मतेजो बल महा मेरे सभी दिव्यास्त्र जिसने कर दिये निष्फल अहा। दुर्धर्ष कालानल सरिस वह ऋषि वशिष्ठ अखण्ड है वह ब्रह्मदण्ड नहीं नहीं वह काल का ही दण्ड है॥ ८-३ ॥

ब्रह्मत्व के आगे निरन्तर शक्तियाँ झुकतीं सभी वर्चस्व चुम्बक पर सदा अभिव्यक्तियाँ रुकतीं सभी। जिस ब्रह्मकुल को है जिलाता एक अद्भुत त्याग ही धरता अलौकिक शक्ति जग में विप्र में जप याग ही॥ ८-४ ॥

निष्काम गायत्री यजन संध्या विहित संकल्प से ब्राह्मण जगत को दूर रखता सर्वथैव विकल्प से। अतएव हरि ने भृगुचरण को वक्ष का लांछन किया असुरेन्द्र बलि ने शीश पर भी विप्र पादोदक लिया॥ ८-५ ॥

मैं भी तपोबल से करूँ अधिगत उसी वर्चस्व को बन विप्र फिर कम्पित करूँ विधि पुत्र तप सर्वस्व को। पुरुषार्थ बल पर मैं कदाचित् विधि विधान मिटा सकूँ वर्ण-व्यवस्था कर्मणा यदि यह प्रमाण बना सकूँ॥ ८-६ ॥

इतिहास मेरे पूर्व कल्मष भूल जायेगा सभी पुरुषार्थ गाथा यह नहीं मन से भुलायेगा कभी। क्षत्रिय प्रकृति को नष्ट कर विप्रत्व ले इस देह में ब्रह्मर्षि का आनन्द लूँ बसकर स्वनिर्मित गेह में॥ ८-७ ॥

पर जन्मना वर्ण व्यवस्था ईश्वरीय विधान है क्या सिंह बन पाता कभी कर यत्न शत-शत स्वान है। अभिषिक्त हो मृगराज पद पर अल्पबल जम्बुक अरे किस भाँति द्विरद वरूथ का निर्भिन्न गण्डस्थल करे॥ ८-८ ॥

संस्कार के आधार पर किस भाँति मिट्टी का घड़ा बन कर सुनहला पात्र जग में मूल्यभाजन हो बड़ा। अतएव प्राक्तन जन्म फल शुभ-अशुभ के अनुसार ही सर्जित हुआ है ईश द्वारा यह विषम संसार ही॥ ८-९ ॥

बस-बस समझ में आ गयी कुंजी मुझे पुरुषार्थ की पद्धति बनी मेरी यही लोकातिशय परमार्थ की। करके तपस्या उग्र मैं गाथा रचूँ परमार्थ की कर दूँ समाप्त विडम्बना पुरुषार्थ संयुत स्वार्थ की॥ ८-१० ॥

मेरा जनन भार्गव ऋचीक प्रदत्त चरुवर से हुआ अतएव गर्भाधान तनु का विप्र के कर से हुआ। पर क्षत्रियाणी कुक्षि सम्भव देह मल कैसे हरुँ यह क्षेत्र दूषण हा विधाता दूर अब कैसे करुँ॥ ८-११ ॥

इस तीव्र तप की अग्नि में कर भस्म क्षेत्रज दोष मैं पाऊँ परम ब्रह्मर्षि पद पुरुषार्थ शुचि संतोष मैं। कुछ भी असम्भव इस जगत में है नहीं पुरुषार्थ को झुकना पड़ा शत बार जिसके सामने परमार्थ को॥ ८-१२ ॥

ब्रह्मर्षि पद की प्राप्ति इस अवमान का प्रतिशोध है बनना शिरोमणि ब्राह्मणों का ही वशिष्ठ विरोध है। उद्देश्य यह रख दृष्टि में वे उग्र तप करने लगे निज साधना से इन्द्र के भी धैर्य को हरने लगे॥ ८-१३ ॥

भेजी पुरन्दर ने तुरत मेनका नामक अप्सरा जिसने तपस्वी का तपोबल निमिष में आकर हरा। कुबलय कटाक्षों से प्रथम मुनि चित्त-वित्त चुरा लिया भुज वल्लिका के पास में फिर बाँध निघ्न बना लिया॥ ८-१४ ॥

मुनि ब्रह्मदण्ड नहीं जिसे था पूर्व दण्डित कर सका नारी नयन शर से वही मन बिद्ध हो अतिशय थका। बस एक नूपुर की छनक ने भ्रष्ट कर दी साधना बस मेनका मन में न कामी की इतर अराधना॥ ८-१५ ॥

होती यहाँ इस भाँति सूखे ज्ञानियों की दुर्दशा वह कौन नर जिसको न माया सर्पिणी ने आ डसा। वस्तुतः यह जगदीश माया दुर्विभाव्य दुरन्त है निःसीम निर्मम निघ्न निर्दय निम्न नीच नितान्त है॥ ८-१६ ॥

जो तोड़ ममता शृंखला जगदीश की लेकर शरण करता सदैव अनन्य मन रघुचन्द्र का मंगल स्मरण। निर्लिप्त पद्म पलास सा बन मेदिनी का आभरण वह संत करता सरल ही माया सरित का संतरण॥ ८-१७ ॥

जो उग्र धन्वा जीत जग को विजय का डंका बजा होकर अदण्ड्य अखण्ड बल अपना चतुर्दिग् यश सजा। वह आज हलकी सी मधुर मुस्कान से दण्डित हुआ पल मध्य में ही मेनका दृगकोण से खण्डित हुआ॥ ८-१८ ॥

बनता युगों में जो बिगड़ता है निमिष में ही वही उन्नति पतन का नियम जग में सत्य शाश्वत है यही। कितने समय में विटप बढ़कर सुफल पूर्ण हुआ खड़ा पर निमिष में झंझा झकोरों से वही हा गिर पड़ा॥ ८-१९ ॥

विश्वास साधक को कभी मन का न करना चाहिए चंचल तुंरग की रश्मि को कसकर पकड़ना चाहिए। है हार मन की हार मन की जीत शाश्वत जीत है वह भोगता है जन्म भर इसका बना जो मीत है॥ ८-२० ॥

कर विघ्न तप में मेनका सहसा अमरपुर को गयी इस ओर कौशिक चित्त में चिंता चिता व्यापी नयी। निर्विण्ण माथे हाथ धर कौशिक लगे अब सोचने उर पीट असकृत आत्मकृत पर नयन वारि विमोचने॥ ८-२१ ॥

हा हन्त वर्षों से समर्जित धूल में तपबल मिला हा हस्तिनी अब खा गयी सर में सरोरुह जो खिला। क्या दोष अबला मेनका का इन्द्र के आधीन जो है दुष्ट मेरा मन स्वयं चंचल तरल स्वाधीन जो॥ ८-२२ ॥

हा भूप होकर बन गया इन इन्द्रियों का दास मैं मारा गया बेमौत इनका कर लिया विश्वास मैं। हा विश्वविजयी का विरुद मैं व्यर्थ ही ढोता रहा इन इन्द्रियों से जबकि असकृत विजित मैं होता रहा॥ ८-२३ ॥

कायर न बन अब विश्वरथ पुरुषार्थ कर पुरुषार्थ कर पुरुषार्थ पावक ज्वाल में निज क्षेत्र के सब दोष हर। फिर उग्र तप में निरत हो निर्विघ्न करके साधना ब्रह्मर्षि पद को पा करा विधि पुत्र से अराधना॥ ८-२४ ॥

इस भाँति निश्चय कर नृपति ने तप पुनः दारुण किया अग-जग चकित कर तेज से राजर्षि पद विधि से लिया। अब ब्रह्म गायत्री मनोहर मंत्र का दर्शन हुआ दीर्घायु पा राजर्षि ने मख की सँभाली अब स्रुवा॥ ८-२५ ॥

अब वषट्कार प्रणव क्रिया उद्गीथ साम सुमर्म को अधिगत किया ऋषि ने सकल सानन्द वैदिक कर्म को। प्रतिशोध की ज्वाला परन्तु बुझा न सकी उपासना ब्रह्मर्षि पद बाधक बनी मुनि की यही दुर्वासना॥ ८-२६ ॥

इस ओर इस इतिहास में कुछ पृष्ठ और नये जुड़े अतएव घटना में कई तूफान भी आये बड़े। यह दारुयोषा सी नियति चुपचाप तो रहती नहीं करती विविध प्रस्तुति किसी से कुछ कभी कहती नहीं॥ ८-२७ ॥

अब विश्वरथ का नाम विश्वामित्र विश्रुत हो गया विप्रत्व का मिथ्याभिमान विधान प्रस्तुत हो गया। अधिकार की मदिरा बनाती मनुज को मदमत्त है सामान्य की क्या बात होता मान्य भी उन्मत्त है॥ ८-२८ ॥

कोसल महीप त्रिशंकु सुरपुर सतनु जाने के लिए आया वशिष्ठायन महाक्रतुका सृदृढ़ निश्चय किये। पर ब्रह्म सुत ने कह असम्भव भूप को ठुकरा दिया। इस देह से सुरपुर न सम्भव व्यर्थ का निश्चय किया॥ ८-२९ ॥

तब भग्न निश्चय भूप ने जा वृत्त कौशिक से कहा राजर्षि का प्रतिशोध पावक में विवेकांघ्रिप दहा। याजक बनूँगा मैं स्वयं आश्वस्त यूँ नृप को किया तनु पात वर्जित भूप का सुरलोक प्रेषण व्रत लिया॥ ८-३० ॥

निज मंत्र द्वारा देह सह स्वर्गाभिमुख नृप को किया श्रुति के विरुद्ध निरख सुरों ने फेंक नरपति को दिया। लटका त्रिशंकु बीच में इत का नहीं उत का नहीं असदाग्रही नर नीच की दुर्गति सदा होती यही॥ ८-३१ ॥

अवलोक विफल प्रयत्न कौशिक क्रोध से अकुला गये अधिकार लिप्सा के वंशवद ज्ञान धैर्य भुला गये। इस क्रोध ज्वाला के सलभ विधि पुत्र पुत्रों को बना फिर भग्न कर अपने सुतों को प्रबल हठ ऋषि ने ठना॥ ८-३२ ॥

मैं रचूँ स्वर्ग नवीन जिसमें नृप त्रिशंकु नित रहे नूतन बनाऊँ देवता जिनसे सदा नृप सुख लहे। इस स्वर्ग का प्रस्तुत करुँगा एक दिव्य विकल्प मैं ब्रह्मर्षिवर्य वशिष्ठ का भंजूँ सकल संकल्प मैं॥ ८-३३ ॥

यह कह कुशा जल प्रोक्षणी ले ध्यान में बैठे तुरत अब हो गये मुनि नवल सुरपुर सर्जना में ही निरत। अवलोकि मुनि का तेज नूतन सृष्टि की रचना विषम बोले विधाता बस करो सुत छोड़ दो यह अगम भ्रम॥ ८-३४ ॥

तुम जीव होकर ईश की समता समीप्सा कर रहे करके अतिक्रम शास्त्र का प्रभु से न किंचित डर रहे। जग सृष्टि का व्यापार तो बस ब्रह्म के आधीन है यह ईश पंचक क्लेश वर्जित निर्विकार नवीन है॥ ८-३५ ॥

बस रोक दो नव स्वर्ग रचना पाप संग्रह छोड़ दो ब्रह्मर्षि पद हित तप करो कौशिक दुराग्रह मोड़ दो। जब तक रहेगी चित्त में प्रतिशोध की झंझा महा जब तक ढहेंगे फल सभी मुनि मान लो मेरा कहा॥ ८-३६ ॥

विधि वचन सुन ऋषि रोष तज फिर लीन तप में हो गये प्रतिशोध के उगने लगे उर में प्ररोह नये-नये। तपते हुए अवलोक ऋषि को लोकपाल सभी डरे धूमिल हुए अब अंशुमाली देवगण अतिभय भरे॥ ८-३७ ॥

रम्भोरु रम्भा को तुरत सुरराज ने प्रेरित किया मुनिवास पुष्कर में झटिति पग पुष्कराक्षी ने दिया। लावण्य की सीमा तरुणि मंजीर मृदु झंकार से मुनि मन विलोडित कर रही यौवन सुलभ शृंगार से॥ ८-३८ ॥

नंदन कुसुम गुंफित चिकुर मादक मधुव्रत सहचरी नर्तन लगी करने मधुर मुनिराज सम्मुख सुन्दरी। मारुत मलय मन्मथ मथित मन ध्यान तज कौशिक जगे दृग चषक से रम्भा मुखाम्बुज मधुर रस पीने लगे॥ ८-३९ ॥

पुष्कर पवन पुष्कर नयन पुष्कर विपिन का भृंगवर लख पुष्कराक्षी बदन पुष्कर हो गया अतिशय मुखर। तज मौन परिचय पूछ उसका वास कुटिया में दिया घृत ज्यों घृताची अग्नि ने कौशिक हृदय द्रुत कर लिया॥ ८-४० ॥

कैसी विधाता की प्रकृति संसार की कैसी कथा सर्वस्व खोकर भी जहाँ मुनि सुख विलुण्ठित सर्वथा। यह वासना मदिरा अहो नर के पतन का हेतु है जो भग्न कर देती निमिष में संकल्प संयम सेतु है॥ ८-४१ ॥

सचमुच समस्त उपद्रवों की जड़ यही निज दृष्टि है भाषित इसी में हो रही निर्दोष दूषित सृष्टि है। वस्तुतः परमेश्वर रचित कितना अनूठा सर्ग है जिसमें मनुज पाता सदा त्रैवर्गयुत अपवर्ग है॥ ८-४२ ॥

रम्भा प्रणय रस मग्न मुनि मन में उगे अंकुर नये दिन-रात की सुस्मृति नहीं दस वर्ष दस पल सम गये। जब-जब प्रणयिनी माँगती अनुमति गमन हित सुर भवन तब-तब चरण गह रोकते उसको अतीव अधीन बन॥ ८-४३ ॥

पर भोग शाश्वत है नहीं शाश्वत न विषयानन्द है इसमें मनुज फँस मर रहा ले शीश पर दुःख द्वन्द्व है। अज्ञात ऋषि को छोड़कर सहसा गई रम्भा जभी चिर सुप्तज्ञान विवेक कौशिक हृदय में उमगा तभी॥ ८-४४ ॥

हा हन्त नारी प्रणय कैसे स्वप्नवत् यह हो गया मेरा पुनः चिरकाल सम्भृत शुचि तपोबल खो गया। शैली बनी दुष्टे कुपित यूँ शाप रम्भा को दिया संकल्प कर फिर उग्र तप से तुष्ट ब्रह्मा को किया॥ ८-४५ ॥

जागो महर्षे बचन कह वरदान दे ऋषिराज को धाता गये निज लोक धीरज दे सुरेन्द्र समाज को। पर गाधिसुत का क्या अभी सपना हुआ साकार है ब्रह्मर्षि पद के बिना प्राप्त महर्षि पद बेकार है॥ ८-४६ ॥

ब्रह्मर्षि वर्य वशिष्ठ कौशिक को कहें ब्रह्मर्षि जब पूरा हुआ माने जगत ब्रह्मर्षि पद गन्तव्य तब। पर क्षत्त्रियोचित वासना इनकी अभी अवशेष है अतएव विप्र वशिष्ठ का प्रामाण्य अब तक शेष है॥ ८-४७ ॥

कौशिक महा क्रोधाग्नि में शत सुत शलभ मुनि के बने सुन कर कथा यह भी न मन में क्रोध के अंकुर जने। पवि उर विदारक श्रवण कर निर्दोष पुत्रों का निधन विचलित नहीं दम्पति हुए मन में क्षमा को मान धन॥ ८-४८ ॥

नीरन्ध्र नीरज नेत्र जल से दे करुण सलिलांजलि मानी क्षमा को ही पिता ने मृत तनय श्रद्धांजलि। निर्दोष पुत्रों का दहन सुन रोक अश्रु अरुन्धती चुपचाप पीकर रह गयी करके क्षमा साध्वी सती॥ ८-४९ ॥

मृत बालकों की विप्र दम्पति साम्परायिक कर क्रिया एकान्त में देते रहे गाधेय को ही सत्क्रिया। हे ईश कौशिक का हृदय शीतल क्षमा से शुद्ध हो प्रतिशोध से वर्जित विमल विज्ञान अब प्रतिबुद्ध हो॥ ८-५० ॥

ब्रह्मर्षिवर्य वशिष्ठ की गाथा अतीव मनोरमा इतिहास की सम्भृति बनी उनकी बिबुध दुर्लभ क्षमा। हैं धन्य पुण्य पतिव्रता महनीय देवि अरुन्धती जिनकी बनेगी पूजिका साक्षात् क्षमा सीता सती॥ ८-५१ ॥

॥ श्रीराघवः शन्तनोतु ॥